भगवान विष्णु के अवतार ‘परशुराम’ को अपना आदर्श,अपना प्रतिनिधि मानकर समग्र भारत का ब्राह्मण-वर्ण यत्र-तत्र-सर्वत्र ‘परशुराम जयन्ती’ जोरशोर से मनाने लगा है। उन्हें महान-पुरूष मानकर महा-जनों की मण्डली में महिमामण्डित करने हेतु उनकी जयन्ती-अवसरों पर जुलूसों-भाषणों-लेखों की बाढ़ ला देता है। पर,क्या इस ब्राह्मण-वर्ण ने ब्राह्मण-श्रेष्ठों द्वारा महा-जनों का अनुसरण करने का जो उपदेश दिया है उसे कभी आचरण में उतारने का प्रयत्न किया है ? हमारे पूर्वजों ने ही पथ प्रदर्षन किया है-‘महाजनों येन गतः स पन्थाः’। महा-जन अर्थात् महा-पुरूष जिस रास्ते पर चले उसी रास्ते पर चलते हुए अपना जीवन सार्थक करना चाहिए। क्या हमने महापुरूष ‘परशुराम’ का अनुसरण करने हेतु स्वयं को, सन्तानों सहित समाज को संस्कारित-प्रेरित किया है ? यदि नहीं, तो महा-सम्मेलनों में महापुरूष-परशुराम को महिमामण्डित कर अपना वाक्चातुर्य व संख्या- बल प्रदर्शित करने का लाभ क्या ? अपना ब्राह्मण-वर्ण विधि-विधानपूर्वक पूजा करता है उस दिन परशुराम की । पर, पूजा करने का अर्थ जो पूर्वज ब्राह्मण-श्रेष्ठों ने ही बताया है उसे आत्मसात् करने का प्रयत्न कभी इस ब्राह्मण-वर्ण ने किया है ? पूज्य-पूर्वजों ने आदेश दिया है -‘शिवो भूत्वा शिवम् यजेत्’ अर्थात् ‘ शिव’ बनकर ही ‘शिव-पूजा’ करो। दूसरे शब्दों में -‘ जिसकी पूजा करनी हो, उसी के अनुरूप बनने की चेष्टा करने में ही पूजा की सार्थकता है। जैसा देव वैसी पूजा। सरस्वती-पूजक को शास्त्राध्ययन छोड़ शस्त्राभ्यास करना शोभा देगा ?

यदि उसे शारीरिक शक्ति संचित करनी है तो वह शक्ति-साधना करे। बल-देवता वज्रांग( बजरंग) बली की उपासना करे, अखाड़े में जाए, ‘सरस्वती’ के पीछे क्यों पड़ता है ? यदि शास्त्र व शस्त्र दोनों ही चाहिए तो दोनेां देवताओं का दास बने और तदनुकूल आचरण करे। तभी पूजा करने का प्रयोजन सार्थक होगा अन्यथा ‘पूजा’ मात्र प्रदर्शन बन कर रह जाएगी।
सौभाग्य से हमारे पूर्वज-पूरूष ‘परशुराम’ शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही श्रेष्ठ थे। ‘बाहुबल’ और ‘ज्ञानबल’ दोनों ही दृष्टि से बलिष्ठ थे। क्या आज ब्राह्मण उनके अनुरूप बनने का प्रयत्न करते हैं ? परशुराम-पथगामी बनने का संकल्प भी कभी लिया है ? शारीरिक -शक्ति प्राप्त करने हेतु कभी व्यायामशाला या अखाड़ा जाकर अभ्यास किया है या करने की कोशिश भी की है ? खेल के खुले मैदानों मेे जाकर मांसपेशियों को मजबूत बनाने का नियमित उपक्रम कभी किया है ? दण्ड-बैठक,दौड़ आसन-प्राणायाम, एक्सरसाइज आदि कुछ भी नियमित करने का मन भी कभी बनाया है ? यदि नहीं तो, मात्र ‘परशुराम-पूजा’ क्यों ? वे ‘शास्त्रों’ के ज्ञाता थे। ज्ञानवृद्ध थे, सर्वज्ञ थे। उन्होनें ज्ञानार्जन हेतु तप किया था, साधना की थी। ‘बह्मं जानाति इति ब्राह्मणः’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए वे स्वयं ब्रह्मस्वरूप अर्थात् ज्ञानस्वरूप हो गए थे। इसीलिए तो सात चिरंजीवियों में उन्होंने अपना स्थान बना लिया है -‘अष्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः।’ उन्हें अपना आदर्श मानकर जयन्ती अवसर पर उनकी पूजा करने वाला ब्राह्मण-वर्ण क्या ब्रह्मज्ञानी,सर्वज्ञानी,अथवा सामान्य-ज्ञानी भी बनने की कोशिश करता है ? या केवल ‘रोटी’ कमाने की कला ही सीखता है ? या उतना भी सीखने की साधना न कर बेरोजगार बने रहना ही अपनी नियति मान बैठा है ? ‘परशुराम’ का अनुयायी ब्राह्ममुहुर्त में उठकर ब्रह्मोपासना अर्थात् सर्व-ज्ञानोपासना करने के बजाय यदि मात्र ‘परीक्षा’ पास करने के लिए रात-रात भर जाग कर ‘निशाचर’ नाम सार्थक करता है और ज्ञान की उच्चावस्था प्राप्त करने के बजाय मात्र ‘डिग्री’ लेकर ‘नौकरी’ की भीख माँगते दर-दर की ठोकरें खाता फिरता है; उच्च ज्ञान प्राप्त कर ‘उद्यम’ करने का साहस नहीं करता तो फिर खाली ‘परशुराम-पूजा’ प्रायोजन की फलश्रुति क्या है ?

यह तो सब जानते हैं कि भगवान परशुराम ने स्वार्थान्ध-अन्यायी-अत्याचारी, राजशक्ति सम्पन्न बलात्कारी-बाहुबली राजाओं -क्षत्रियों की एक नहीं इक्कीस बार बलि चढ़ायी थी। सहस्र भुजाओं का बल रखने वाले सहस्रार्जुन की भुजाएंँ एक-एक कर अकेले परशुराम ने काट डाली थी। शारीरिक-शक्ति के घमण्ड से सराबोर शैतानों का सर्वनाश किया था। और ‘दशरथ’ तथा ‘जनक’ जैसे जनसेवक, धर्मी -न्यायी राजाओं को अभयदान दिया था। शारीरिक-शक्ति का दुरूपयोग नहीं किया था। क्या, उनका गुणगान करने वाला हमारा ब्राह्मण-वर्ण उनके नक्शे कदम पर चलकर प्रजापीड़क सत्ताधारियों को धूल चटाने में अपनी शक्ति का सदुपयोग करता है ? या फिर अपना स्वार्थ साधने हेतु प्रजापीड़क ‘प्रतिनिधियों’ की ‘परिक्रमा’ करने में ही पूरी शक्ति झोंक देता है ? ‘जनसेवा’ के बजाय ‘जनशोषण’ करने वाले जन-प्रतिनिधियों को शक्तिहीन बनाने के बजाय उन्हें और अधिक शक्तिशाली बनाने में अपनी शक्ति लगा देने वाला ब्राह्मण-वर्ण ‘परशुराम’ का अनुयायी कदापि नहीं हो सकता। इक्कीस बार दुष्ट क्षत्रियों का संहार कर उनका राज्य प्राप्त करने के बाद भी स्वयं कभी ‘राजा’ नहीं बने परशुराम। उन्होंने समस्त विजित भूमि अश्वमेध तथा वाजपेय यज्ञ समारोहों में सहभागी सभी विरागी पुजारियों, ऋषियों व साधुओं को दान में दे दी थी। इस निःस्पृहता, दानशीलता को अपनाने का प्रयत्न कितने ब्राह्मण करते हैं ? उन्होंने अपने शस्त्रबल का सदुपयोग किया, सामर्थ्य का संयोजन सकारात्मक ‘सेवा’ में किया। अपने शास्त्रज्ञान अर्थात् ‘वेदज्ञान’ से प्राप्त ‘ज्ञानबल’ द्वारा उन्होनें समुद्र-प्रकोप से सागर-वासियों की न केवल रक्षा की तो उनके लिए समुद्र में से भूमि प्राप्त कर उसे शस्य-श्यामला धरती में परिणित किया। कहते हैं आज का ‘केरल’ प्रदेश उन्हीं की देन है। बहुश्रुत कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम ने अपने परशु द्वारा समुद्र को काटकर उसका जल पीछे धकेलते हुए वह भूमि प्राप्त की थी। कितने गजब के ‘इंजीनियर’ थे प्रभु परशुराम !

उस युग में दक्षिण-पश्चिम दिशा स्थित समुद्र-तीरे घने वनों में न जाने कहाँ-कहाँ से आकर वनवासी-कबीले बस गए थे। वे सब असंस्कारी,कुसंस्कारी, रूढ़िग्रस्त,राग-द्वेष से प्रेरित परस्पर पीड़ाजनक व्यवहार करने वाले तमाम दुर्गुणों से युक्त थे। दक्षिण के अत्याचारी क्षत्रियों का विनाश करते हुए जब परशुराम सह्याद्रि के इस वनप्रान्त में पहूँचे तो उन्होंने उन अशिक्षित वनवासियों को शिक्षित -संस्कारित किया। उन्हें सुसभ्य बनाया। इतना ही नहीं तो वेदानुष्ठान करना सिखाया। अपने सुखोपभोग के लिए संहार करने वाले कबिलाई जीवन जीने वाले इन ‘वनवासियों’ को विधिवत् ‘ब्राह्मण’ बनाया, यज्ञोपवीत प्रदान किया। उन अवर्णों को सवर्ण बनाया। उनके उस समाज सुधारक स्वरूप के ही प्रमाण हैं वनवासी से ब्राह्मण बने आज के ‘कोंकणस्थ ब्राह्मण’। आचार-विचार-पवित्रता व निर्मलता की शिक्षा से शिक्षित कर उनसे परशुराम ने कहा था ‘ आज से तुम सब लोग अपने को ब्राह्मण समझना और ऐसी ही निर्मलता, पवित्रता,स्वच्छता,लोकसेवा, शूर-वीरता अपने चरित्र में लाना। शुद्ध आचार-विचार में रखना।’ तब से ब्राह्मण बने कोंकणस्थ भगवान परशुराम को अपना आदि पुरूष मानते चले आ रहे हैं। यह समग्र आख्यान ‘समुद्रोपनिषद’ में संग्रहीत है। ऐसे थे हमारे पूर्व-पुरूष प्रभु ‘परशुराम’ जिनके अग्रभाग में चारों वेदों का ज्ञान तो पृष्ठभाग में धनुष्-बाण सधा रहता था -‘‘ अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरे धनुः। इदम् क्षात्रं इदम् ब्रह्मः शापादपि शरादऽपि च।। हम चारों वेदों का ज्ञान लेकर चलते हैं, उनके पीछे सिद्ध धनुष बाण हैं सत्य बात लोगों को बताने के लिए तथा आवश्यक हो तो, शक्तिपूर्वक उसको व्यवहार में लाने के लिए हम शाप से काम लेते हैं और शक्ति से भी। क्षात्रतेज व ब्रह्मतेज, दोनों के ही पुजारी हैं हम।’’ क्या सचमुच आज के ब्राह्मण परशुराम-पथगामी बन कर शस्त्र-शास्त्र दोनों के ही पुजारी बनेंगे कभी ?

लेखक-  नन्दकिशोर शुक्ल- वरिष्ठ पत्रकार, बिलासपुर