रायपुर। राज्यपाल अनुसुईया उइके ने राजभवन में कनक तिवारी, पूर्व महाधिवक्ता की पुस्तक ‘‘आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा: ब्रिटिश हुकुमत से 21वीं सदी तक’’ का विमोचन किया. राज्यपाल ने इस अवसर पर कहा कि कनक तिवारी गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होने के साथ ही प्रखर वक्ता भी हैं. उनकी कानून की समझ के सभी कायल हैं.

उनकी इस पुस्तक में आदिवासियों की वर्तमान और पिछले दशकों की स्थिति  के संबंध में विस्तार से जानकारी दी गई है. उन्होंने कहा कि वे स्वयं आदिवासियों के हितों के लिए हमेशा आवाज उठाती रही हैं. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों के हितों के लिए पेसा अधिनियम लागू करने की दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं. अपने अधिकारों के लिए आदिवासियों को स्वयं भी जागरूक और संगठित होना होगा.

कनक तिवारी ने इस अवसर पर कहा कि आदिवासियों का जंगलों पर जो अधिकार है, उसे वह मिलना चाहिए. आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए पांचवीं अनुसूची को संविधान में शामिल किया गया. साथ ही वर्ष 1996 में पेसा अधिनियम लाया गया. उन्होंने कहा कि आदिवासी दर्शन सामूहिकता पर आधारित है.  उनका मानना है कि जंगल सबके लिए है.

कनक तिवारी का कहना है कि वन और पहाड़ियां, जनजातीय समाज के मुख्य स्रोत हैं. जनजातीय समुदायों को उनकी भूमि, रहवास, जीविका, राजनैतिक व्यवस्था, सांस्कृतिक मूल्यों एवं पहचान से वंचित करके प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय जीवन से ही बेदखल किया जा रहा है. जनजातियों के साथ एक अन्य समस्या यह भी है कि भूमि में एकल अधिकार की जगह वे सामुदायिक अधिकार में विश्वास रखते हैं. इसलिए भूमि संबंधित मामलों में उनके पास स्वामित्व का लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता.

जनजातियों के दावे अधिकतर मौखिक साक्ष्य पर ही आधारित होते हैं. नतीजतन उनके मालिकी हक स्थापित करने में कठिनाईयां उत्पन्न होती है. कनक तिवारी ने कहा कि ब्रिटिश शासन का, शुरूआत से ही आदिवासियों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया था. बिरसा मुण्डा ने एवं भूमकाल आंदोलन के नायकों ने ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ अनेक संघर्ष किए, किन्तु आजादी के बाद भी आदिवासियों को जो हक मिलना था वो नहीं मिल सका.

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