रायपुर। हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिस को भी देखना हो कई बार देखना. निदा फाजली साहब इस शेर को जब लिखे होंगे तो शायद उन्हें भी नहीं मालूम होगा कि किसी शख्स को पहचानने के लिए लिखे गए इस शेर के और भी कई मतलब हो सकते हैं. उनका यह शेर छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अधिकारी के ऊपर बिल्कुल सटीक बैठता है. पेशे से वो आईएएस हैं.. एक जिले में कलेक्टर के पद पर पदस्थ हैं.. संवेदनशील इंसान होने के साथ ही वे एक साहित्यकार और कवि भी हैं. हम बात कर रहे हैं बिलासपुर कलेक्टर डॉ संजय अलंग की. रविवार को बिलासपुर के लोगों ने एक कलेक्टर की भावनात्मक दुनिया को उनकी कविताओं में महसूस किया.

“कविता चौपाटी से” एवं उर्दू काउंसिल बिलासपुर के द्वारा डॉ संजय अलंग का एकल काव्य पाठ प्रार्थना भवन नेहरू चौक में रखा गया. अपने कलेक्टर की कविताओं को सुनने शहर के साहित्यप्रेमी बड़ी संख्या में यहां पहुंचे. डॉ संजय अलंग ने अपनी कुछ पुरानी गंभीर कविताओं से शुरुआत की फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति,मानवतावादी और सौर्यभौंमिक सत्यता पर केंद्रित कविताओं का पाठ किया. उन्होंने बांस, इतिहास, कुई का विद्रोह, सलवा जुडूम, रेड़ नदी के तीर पर बैठा कलाकार, गुलेल आदि कविताओं से खूब वाहवाही और तालियाँ बटोरीं. डॉ अलंग अपनी समकालीन कविता,अकविता से विख्यात हैं. साहित्य जगत में उनका दृष्टिकोण उनकी कविताओं का केंद्र है.

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे ख्यातिनाम कथाकार कवि रामकुमार तिवारी ने कहा कि उनकी कविताएं भाषा का मानवीकरण करतीं हैं. उनकी कविताओं में एक रचनात्मक पृष्ठ तनाव है। उन्होंने उनकी कविताओं के विभन्न आयामों पर बात की जिसमें संवेदना,काव्यदृष्टि,चराचर चेतना और विकास का द्वन्द मुख्य हैं.

मुख्य अतिथि प्रमुख लोकायुक्त जस्टिस टीपी शर्मा ने डॉ अलंग की कविताओं को सत्य विचारों का प्रगटीकरण कहा.उन्होंने कहा डॉ अलंग की कविताओं में चिंता, बचपन की यादें, कलाकार की पीड़ा और एक अलग दृष्टिकोण है. उन्होंने आयोजन समिति को बधाई देते हुए कहा कि ऐसे कार्यक्रमों से शहर को बौद्धिक खुराक मिलते रहती है. कार्यक्रम के विशिष्ठ अतिथि समीक्षक साहित्यकार शाकिर अली ने डॉ अलंग की कविताओं को उनके व्यक्तित्व और महीन वैचारिक दृष्टिकोण को विस्तृत ढंग से समझाया.

अंत में डॉ अलंग से दर्शकों ने सवाल किया, जिसका उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर दिया. शौकत अली ने पूछा कि आईएस का दायित्व और कवि का कर्तव्य कैसे निभाते हैं? उन्होंने सहजता से उत्तर दिया कि मानवीय दायित्व निभाना अपना धर्म समझता हूँ. धनेश्वरी सोनी ने पूछा क्या आप अपनी पत्नी के लिए भी कविताएं लिखते हैं? जिस पर उन्होंने कहा नहीं मैं केवल विचार कविताओं का कवि हूँ.

सभी अतिथियों ने आयोजन समिति के प्रमुख सुमित शर्मा, श्री कुमार को यह कार्यक्रम आयोजित करने पर बधाई दी और कहा कि ऐसे बौद्धिक कार्यक्रमों की निरंतरता के लिए हर संभव सहायता दिये जाने का वादा किया. कार्यक्रम का सधा हुआ प्रभावी सञ्चालन विवेक जोगलेकर जी ने किया. कार्यक्रम में रायपुर से अंकिता झा, शुभ्रा सिंह आदि ने शिरकत की. कार्यक्रम में शहर के प्रख्यात साहित्यकार द्वारिका प्रसाद अग्रवाल,आचार्य शील, बुधराम यादव, डॉ सुधाकर बिबे, रश्मि रामेश्वर गुप्ता, प्रियंका शुक्ल, अनु चक्रवर्ती, पूर्णिमा तिवारी, एम डी मानिकपुरी, अश्वनी पाण्डेय, रामकुमार पाण्डेय, दिग्विजय पाठक, ज्योति दुबे, पूजा पाण्डेय सहित बड़ी संख्या में युवा शामिल हुए.

पेश है डॉ संजय अलंग की कविताएं

पेडों पर उछलते कूदते, आमा डगाली खेलते
निगाहें तलाशती रहती
व्ही आकार अंगूठे मोटाई की गोल टहनी
मिलते ही आल्हाद छा जाता
छूट जाते सभी खेल

सावधानी से उसे काटते, छीलते, तराशते
निखारते आकार और देते सुगढ़ता उसे

तलाशते रबर की पुरानी ट्यूब
खंगालते कबाड़, खाक छनते साइकिल दुकानों की
करीने से काटते दो पट्टियाँ ट्यूब से
बराबर आकार की लंबी
निकालते ढ़ेर सारी पतली बंधनी

मोची से बनवाते चमौटी
देखते घिसे और तराशे जाते चमड़े को
निहारते दोनों किनारों पर छेदों का कतरा जाना

आँखों में बेचैनी छटपटाती
मस्तिष्क़ में उत्तेजना

व्ही आकार डंठल पर लंबी पट्टी बैठाते, जमाते
बांधते संभाल-संभाल खींचकर बंधनी

रबर पिरो दोनो सिरों पर बैठाते चमौटी
खींच कर परखते तनाव

आकाश की ओर अनजाने निशाने पर तानते
एक आँख बंद निशाना साध खुली आँख तक खींच लाते

उछलते गोटी हवा में, दन से

इठलाते विजेताओं सा गले में डाल

क्राफ्ट मेले से, सौहार्द के लिए
खरीदते हुए गुलेल, याद आया मुझे

बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए सलवा जुडूम आंदोलन काफी चर्चा में रहा. लगातार मीडिया में सुर्खियों में रहने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को बंद करने का आदेश दिया था. डॉ संजय अलंग ने ‘सलवा जुडूम के दरवाजे से’ के नाम से भी कविता लिखी.

जंगल के बीच निर्वात तो नहीं था
सघनता के मध्य
समय दूर तक बिखरा था
और उसी से सामना था

उम्मीद की फसल जरूर उगाते
पर वह थी ही नहीं
न तब न अब
परछाइयों का टूटना असंभव है
मानव का भी

अपनी जमीन से हटे नहीं
पर हम वही करते रहे हैं
जो कैदी करते हैं
धूल के मध्य आदम याद आता है
मैं नहीं