रायपुर. धन का अतिशय खर्च करना अथवा कंजूसी की हद तक संचय करना आम प्रवृत्ति है. कई बार व्यक्ति मितव्ययी होता है, तो कई बार लोग किसी को कंजूस की श्रेणी में भी रख देते हैं. कंजूसी और मितव्ययीता के बीच एक बारीक अंतर ही है. वर्तमान के आवश्यक खर्चो में कटौती कर बचत की जाती है, तो उसे कंजूसी की श्रेणी में रखा जाता है, लेकिन कमाई से ज्यादा खर्च करना फिजूलखर्ची की श्रेणी में आता है.

गरीब या पिछड़े देशों में भ्रष्टाचार की शुरुआत फिजूल खर्च और विलासी खर्च से होती है. शायद यह बात सारे मानव समाज के लिए सही होगी विलासिता बाजार का यह दबाव है कि लोग अपने वेतनमान से दो गुना दस गुना अधिक उपार्जन करें.

शुक्र भोग विलास के लिए प्रेरित करने वाला ग्रह है और जीवन में खर्च तथा व्यय करने की आदत मतलब धन का व्यय है. अतः खर्च और बचत दोनो को शुक्र से देखना चाहिए. किसी भी कालपुरूष की कुंडली में शुक्र द्वितीय अर्थात् संपत्ति और जमापूंजी तथा सप्तम भाव अर्थात् साथी से देखा जाता है और शुक्र का मूल भाव संसारिक सुख है. अतः शुक्र की कुंडली में स्थिति की गणना महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. शुक्र विपरीत कारक हो या नीच अथवा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो जाए तो व्यक्ति को फिजूलखर्ची की लत होती है और यह फिजूलखर्ची की लत गलत काम करने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, भष्ट्राचार करने को भी प्रेरित कर सकती है. 

जरूरत से ज्यादा शौकिन होना भी गलत है. इसके लिए कुंडली में शुक्र की शांति कराना, दुर्गा कवच का पाठ करना, कन्या भोज कराना और हवन करना चाहिए. इसके साथ ही व्यवहार में नियंत्रण हेतु मंत्रजाप करना चाहिए.