रायपुर. ‘‘धमार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः’’ ऋषियों ने मानव मात्र के लिए चार प्रमुख पुरुषार्थ या उद्देश्य निर्धारित किए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. धर्म के लिए धन परमावश्यक है. अभावग्रस्त न तो सुखी हो सकता है और न धर्मनिष्ठ. गीता में भगवान कृष्ण धन का महत्व समझाने के लिए अपने को धन का देवता कुबेर और धन की देवी श्री बताते हैं और अर्जुन के लिए वे आदेश देते हैं कि ‘धन-धान्य से संपन्न राज्य को भोग’. वेदों में संपत्ति और ऐश्वर्य के लिए अनेक प्रार्थनाएँ हैं.

‘हम सौ वर्ष तक दुर्बल और दरिद्र न बनें, मैं मनुष्यों में तेजस्वी और धनवानों में अग्रगण्य बन जाऊँ, हम वैभव के स्वामी बनें, सौ हाथों से धन कमाओ, हजारों हाथों से उसे बाँटो। अपने पुरुषार्थ से धन का अर्जन करो आदि. धन के बिना यदि धर्म नहीं टिक सकता तो धर्म के बिना धन भी नहीं टिक सकता.

धार्मिक तरीकों से अर्जित धन ही मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में सहायक हो सकता है. बेईमानी से दूसरों का हक मारकर रिश्वत या चोर- बाजारी से, दूसरों को धोखा देकर या उनकी मजबूरी का अनुचित लाभ उठाकर धन कमाना पाप है, अधर्म का मूल है. ऐसा धन थोड़ी देर तो सुख देता है, पर बाद में दारुण दुःख देकर चला जाता है.

धनाद्धर्मस्ततः सुखम् का अभिप्राय धर्म और अर्थ के सामंजस्य में ही चरितार्थ होता है. धन से सुख प्राप्त हो और धर्म का कर्म भी हो इसके लिए कुंडली का सहारा लेना चाहिए. शुक्र और गुरु को अनुकूल करने से धन और धर्म दोनों की स्थापना और स्थिरता प्राप्त होती है, क्योंकि ज्योतिष में शुक्र को धन, सम्पत्ति और भौतिक सुख का कारक माना गया है. वही पर गुरु को भाग्य और अध्यात्म का अर्थात धर्म का स्वामी माना गया है इसलिए शुक्र और गुरु को अनुकूल करने से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों प्राप्त होते हैं और स्थिर भी रहते है और दोनों को स्थिर रखने के लिए मंगल का व्रत करना, वेदों में बताये गये मन्त्र का पाठ करना, हवन, दान और जीव सेवा करना चाहिए, आशीर्वाद लेना और सत्संग करना चाहिए, इससे जीवम में धन और धर्म दोनों प्राप्त होंगे.