दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है कि समलैंगिक सहमति से जुड़े मामलों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के कारणों पर स्पष्टीकरण प्रदान किया जाए. एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस तुषार गेडेला की बेंच ने टिप्पणी की कि भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में इस पर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है. इसका मतलब यह है कि यदि बीएनएस में इसका कोई जिक्र नहीं है, तो क्या यह अपराध की श्रेणी में आता है?
याचिकाकर्ता ने मांग की है कि बिना सहमति से किए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखा जाए या फिर रेप से संबंधित कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाया जाए.
1 जुलाई से भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की जगह भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) लागू हो गई है. आईपीसी की धारा 377 बिना सहमति के किए गए अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध मानती थी, लेकिन बीएनएस में इसे पूरी तरह से हटा दिया गया है.
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र के वकील ने कहा कि यदि कोई विसंगति है, तो अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती और संसद को कोई नया प्रावधान लागू करने का निर्देश नहीं दे सकती. उन्होंने कहा कि यह कानून का नया स्वरूप नहीं, बल्कि पूरी तरह नया कानून है. अब यह देखना होगा कि अदालतें कितना हस्तक्षेप कर सकती हैं.
हाईकोर्ट में हुई सुनवाई का हाल
दिल्ली हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता ने बताया कि पुरुषों के खिलाफ यौन हिंसा की कोई कानूनी राहत नहीं है और एफआईआर भी दर्ज नहीं की जा सकती. कोर्ट ने कहा, “यदि कोई अपराध है ही नहीं, तो अदालत तय नहीं कर सकती कि सजा क्या हो. यह निर्णय लेना उनकी जिम्मेदारी है कि इसे अपराध मानना है या नहीं.”
इसके बाद, अदालत ने केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है और अगली सुनवाई 28 अगस्त को होगी.
धारा 377 का पूर्ण अंत: कितना चिंताजनक?
पिछले साल अगस्त में केंद्र सरकार ने संसद में भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) का बिल पेश किया था, जिसे बाद में संसदीय समिति के पास भेजा गया. संसदीय समिति ने धारा 377 को बीएनएस में शामिल करने का सुझाव दिया था, लेकिन सरकार ने इस सिफारिश को अस्वीकार कर दिया. धारा 377 अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध मानती थी, जिसमें पुरुष, महिलाएं, ट्रांसजेंडर और जानवर शामिल थे. अब, चूंकि ऐसा कोई कानून नहीं है, समलैंगिकता के साथ-साथ पुरुष और महिला के बीच अप्राकृतिक यौन संबंध भी गैरकानूनी हो गए हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018 में धारा 377 के एक हिस्से को निरस्त कर दिया था, जिससे सहमति से बने समलैंगिक संबंध अब अपराध की श्रेणी में नहीं आते. हालांकि, बिना सहमति के बने यौन संबंध अभी भी अपराध के दायरे में आते हैं. जानकार मानते हैं कि धारा 377 का पूर्ण अंत यौन उत्पीड़न के मामलों में पुरुषों और ट्रांसजेंडर्स को मिलने वाली कानूनी सुरक्षा को हटा सकता है.
नए कानून के प्रावधान
बीएनएस में धारा 377 के समान प्रावधान नहीं हैं, लेकिन कुछ अन्य प्रावधान हैं जो ऐसे कृत्यों को अपराध मानते हैं. बीएनएस की धारा 140(4) के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति ‘अप्राकृतिक वासना’ के इरादे से किसी का अपहरण करता है, तो उसे 10 साल की जेल हो सकती है, हालांकि यह प्रावधान तब लागू होगा जब अपहरण का मामला हो. बीएनएस की धारा 38 आत्मरक्षा में हत्या को अपराध के दायरे से बाहर करती है, लेकिन ‘अप्राकृतिक वासना’ की परिभाषा अस्पष्ट है.
आंकड़े और तथ्य
भारत में पुरुषों के खिलाफ यौन हिंसा के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कुछ शोध दर्शाते हैं कि पुरुष भी यौन उत्पीड़न का शिकार होते हैं. अमेरिकी साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, 27% पुरुष और 32% महिलाएं अपने जीवन में कभी न कभी यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं. इसी तरह, सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल (सीडीसी) की एक स्टडी के अनुसार, हर 17 में से 1 पुरुष को यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता है. ‘नेशनल अलायंस टू एंड सेक्सुअल वॉयलेंस’ की रिपोर्ट में बताया गया है कि बलात्कार के मामलों में 14% पीड़ित पुरुष होते हैं, और पुरुषों के खिलाफ यौन हिंसा के 90-95% मामले दर्ज नहीं होते.
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि पुरुषों के खिलाफ यौन हिंसा और उत्पीड़न की समस्याओं को नजरअंदाज किया जा रहा है और कानूनी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है.
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