जगदलपुर। 75 दिनों तक मनाया जाने वाला ऐतिहासिक बस्तर दशहरा दुनियाभर में प्रसिद्ध है. इस दौरान सभी रस्म-रिवाज भी बेहद महत्वपूर्ण हैं. इसके रस्म-रिवाज बस्तर दशहरे को एक अलग ही पहचान देती है. मां दंतेश्वरी की छत्र और डोली नवमी तिथि को दंतेवाड़ा से जगदलपुर पहुंचती है. इसका भव्य स्वागत किया जाता है. इस रस्म को मावली परघाव के नाम से जानते हैं.
मावली परघाव
शारदीय नवरात्र की महानवमी को मावली परघाव रस्म होती है. मां दंतेश्वरी मंदिर में रियासतकालीन सैकड़ों साल पुरानी देवी प्रतिमाओं की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. इसमें शामिल होने के लिए विभिन्न गांवों से सैकड़ों ग्राम देवता वाहन से जगदलपुर पहुंचते हैं.
दंतेवाड़ा छोटे डोंगर और बड़े डोंगर में स्थित माईजी की डोली बस्तर पहुंचती है और उन्हें अलग-अलग जगहों पर ठहराया जाता है. दंतेवाड़ा से आने वाली डोली जिया डेरा में ठहरती है और उसके बाद परंपरा के मुताबिक उसका स्वागत होता है. स्वागत की परंपरा जिया डेरा से शुरू होकर कुटरू बाड़ा पहुंचती है, जिसका दीए से आरती उतारकर कुटरू जमींदार परिवार इसमें शामिल होता है.
समय के साथ रस्म में बदलाव
पुराने समय में छत्र और डोली हाथी-घोड़े पर सवार होकर आती थी. डोली को दंतेवाड़ा से जगदलपुर पहुंचने में 4 दिन का समय लगता था. माईंजी की पालकी के साथ हाथी-घोड़ा, पुजारी, सेवादार, समरथ, मांझी, चालकी समेत 12 परघना के लोग पैदल वहां से जगदलपुर रवाना होते थे और रास्ते में पड़ने वाले गांवों के लोग माता की पूजा-अर्चना करते थे.
गीदम में पूजा-पाठ, बंजारन घाट, बास्तानार घाट और तोकापाल में रात्रि विश्राम के बाद चौथे दिन माता की डोली जगदलपुर जिया डेरा पहुंचती थी. लेकिन बदलते वक्त के साथ अब मोटरों में छत्र और डोली आती है. हर साल शारदीय नवरात्र की अष्टमी के दिन बड़ी माता की डोली विधि-विधान से दंतेवाड़ा से रवाना होती है.
राजा भिजवाते थे हाथी और घोड़े
वापसी के दौरान तोकापाल, कोड़ेनार और बास्तानार के बीच छतरगुड़ (तिरथुम) में माईंजी का विश्राम होता था. आंवराभाटा में परघाव रस्म अदायगी के बाद डोली मंदिर पहुंचती थी. बस्तर दशहरा में शामिल होने के बाद वापसी में भी उतने ही दिन का समय लगता था. जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी ने बताया कि बस्तर महाराजा स्व प्रवीरचंद्र भंजदेव माता की पालकी लाने के लिए हाथी-घोड़े भिजवाते थे.
पुजारी के मुताबिक, 1965 में राजा गोली कांड के बाद हाथी-घोड़े का यहां आना बंद हो गया. इसके बाद माईंजी की डोली बैलगाड़ी से जगदलपुर पहुंचती रही. 1978 के बाद से माता की डोली मोटर गाड़ी से जगदलपुर पहुंचाए जाने का सिलसिला शुरू हुआ.