पिछले दिनों प्राइमरी स्कूल के दो सहपाठी दिल्ली में बसे एक मित्र को लेकर आए, जिनके साथ मैं कक्षा पहली से पांचवी तक महाराणा प्रताप प्राथमिक शाला में पढ़ा था.फिर एक दिन हम 4 सहपाठी और मिले और हमने जीवन की अपनी पहली स्कूल में दुबारा जाने का प्लान बनाया. जिसे हम याद करते रहते हैं.

हमारा प्रायमरी स्कूल का एक व्हाट्सएप ग्रुप भी कुछ समय पहले बना है जिसमें 10 से ज्यादा मित्र जुड़ चुके हैं. ग्रुप में बातें होती हैं पर किन्ही कारणों से स्कूल जाना नहीं हो पा रहा था. इस बार जब हरिशंकर दुबे दिल्ली से आया तब अपने पुराने स्कूल जाने की बात चली. हमने एक दिन पहले जाकर स्कूल की प्रिंसिपल मैडम से बात की, उन्हें बताया कि हम इसी स्कूल में 1968 से 1972 तक पढ़ते थे, 1968 में कक्षा पहली में भर्ती हुए थे,उनसे अनुमति ली. ग्रुप में भी मेसेज डाला गया, कि भाई लोग दोपहर 2.30 बजे तक आ जाओ साथ मे स्कूल चलेंगे.

मैं, हरिशंकर, मनोज, राजकुमार, कमल पाठक, भाया (ओझा) 6 लोग इकट्ठे हुए. लगभग 50 वर्षों के बाद फिर से पूरे स्कूल में घूमने का मौका मिल रहा था.सभी के मन में एक खुशी, उत्साह, उत्कंठा थी, स्कूल के मेन गेट में घुसने के साथ साथ ही सब के चेहरे पर प्रतिक्रिया अलग अलग थी. स्कूल के छोटा सा मैदान जो उस समय हमें बड़ा लगता था,जहां कार्यक्रम होते थे, कक्षाएं, हॉल, गलियारा, यहां तक कि छत जहां 15 अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराया जाता था, जिसमें एक बच्चा सैनिक की ड्रेस में सजा कर सामने खड़ा किया जाता था, झंडा फहराया जाता था, मिठाई मिलती थी, जिसका विशेष इंतजार रहता था. सभी जगहों पर घूम घूम कर देखते रहे. हम स्कूल भ्रमण के दौरान प्रधान पाठक के कमरे में भी गए जहां पहले कभी जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी. इस बार तो प्रिंसिपल ने हमें वहां बैठाया. हम उन हाल में भी गए जहां छोटे कार्यक्रम होते थे.

स्कूल में उपस्थित छात्राओं, टीचर्स ने हमसे ढेर सारी बातें की. हम बताते रहे कि किस प्रकार छोटे छोटे त्योहार स्कूल में एक साथ मनाए जाते थे, नागपंचमी के दिन स्लेट पर नाग की फ़ोटो, बनाकर आना, शाम को दरवाजे से कमरे में धूप आते ही समझ जाना कि अब 4 बजने वाले हैं, छुट्टी होने वाली है, अब तो स्कूल में टेबल कुर्सियां हैं, तब जमीन में टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ाई लिखाई, उन टाटपट्टी के लिए भी छीना झपटी, स्लेट पर पेंसिल से लिखना, सामूहिक पहाड़े याद करना पांचवी तक तो स्लेट पेंसिल से ही काम चलता था.

हमारी एक किताब साल दर साल चलती थी, जिससे छोटे भाई बहिन भी पढ़ लेते थे. उस समय क्लास में शरारतें करने, होमवर्क न करने ,आपस में बात करने पर गुरुजी का कहना न मानने पर पिटाई भी हुई है, जो कभी स्केल से, कभी डस्टर से, कभी पीठ पर हल्के घूंसे, तो कभी कान पकड़ कर खड़े होने, उठक बैठक लगाने और मुर्गा बनने तक की सजाएं पाई है. पर मजाल कि घर में कभी शिकायत की हो और यदि किसी ने शिकायत भी की तो माता-पिता का सीधा जवाब कि गलती की होगी तभी मार पड़ी होगी. अब ठीक से अपना काम करना और तो और कई बार यह कि अपने गुरुजी को बोलना कि यह शैतानी करे तो दो हाथ और लगाना. शायद ही कभी किसी माता-पिता ने सजा को लेकर बच्चे का पक्ष लिया हो.

ट्यूशन पढ़ने की तो कोई बात ही नहीं थी. हमें लगता था कि ट्यूशन तो कमजोर बच्चे ही पढ़ते हैं. स्कूल में ही एक्स्ट्रा क्लास लगा दी जाती थी. हमारे समय लड़कों के नयापारा अ और नयापारा ब दो प्राथमिक स्कूल थे. नीचे के तल में छात्राओं की प्राइमरी स्कूल लगती थी. इंटरस्कूल खेल प्रतियोगिता में भी हमारा जाना होता था. जिसमें पी.टी. और लेझिम डंबल्स के साथ पी.टी. होती थी. उसमें भी हमने भाग लिया है. यह प्रतियोगिता सप्रे स्कूल में होती थी. जिसमें हम लाइन बनाकर स्कूल के झंडे के साथ जाते थे. स्कूल में पी.टी. के लिए एक हमारे सहपाठी के पिता ने ड्रम दान किया, तो किसी ने और कुछ. उस समय की एक फोटो भी संलग्न है. परीक्षा साल में 3 बार होती थी तिमाही, छमाही और वार्षिक परीक्षा.

परीक्षा के आखिरी दिन क्राफ्ट का पेपर होता था, जिसमें अपने हाथ से कुछ चीजें बना कर ले जाना पड़ता था. जिसमे हम गत्ते की झोपड़ी, घर, चटाई, टेबल कुर्सी, फूल लगे गमले, माचिस की डिबिया को जोड़कर सोफा सेट,आदि, जिसे बनाने में घर वालों की मदद लेनी पड़ती थी. बहुत देर तक हम सब उस समय के माहौल को याद करते रहे पुरानी यादों में डूबते उतराते रहे, स्कूल के सामने चूरन वाले के ठेले, बेर, चने, चॉकलेट के ठेलों की याद होती रही. उस समय 5 पैसे, 10 पैसे में ही जेब खर्च के लिए मिलते थे, उसी में शान से हमारा काम चल जाता था.

हम स्कूल के कमरों में, मैदान में, चहारदीवारी से सात कर, छोटे बच्चों के साथ, शिक्षकों के साथ कुछ समय बिताकर अपने गुजरे बचपन को ढूंढने के प्रयास करते रहे. बच्चों के प्रश्नों के जवाब दिये.हमने बच्चों को आवश्यकतानुसार मदद का वादा भी किया. स्कूल की प्रिंसिपल ने हमें बच्चों के हाथों से बने पेंट किये गमले, नारियल भेंट किये. हम सबने अनेक यादगार फ़ोटो भी खिंचाई. हमारे गुरुजनों में प्रधानपाठक दुर्गाप्रसाद पांडेय, आनंद सिंह गुरुजी, सेन गुरुजी, दाऊ राम गुरुजी, विधिनारायण शुक्ला गुरुजी, पचौरी गुरुजी, सहपाठियों में विनय नत्थानी, दिनेश नत्थानी, सुशील, कलीमुद्दीन, प्रेमचंद, ललित चोपड़ा, रामावतार शर्मा, चांद मोहम्मद, नन्दू शर्मा, शेखर, राजेन्द्र,के नाम याद आ रहे कुछ नाम ध्यान नहीं आ रहे पर जैसे जैसे याद आएंगे जोड़ते जाएंगे.

एक उल्लेखनीय बात पहले जहां हमारी प्राइमरी की कक्षाएं लगती थी अब वहां ऊपर की मंजिलों में बालिकाओं के आवासीय विद्यालय खुल गया है. जहां बच्चियां रहती है और पढ़ाई करती हैं. वहीं भूतल पर नगर निगम के पार्षद का ऑफिस खुल गया है. मेरे विचार से पूरी बिल्डिंग में आवासीय विद्यालय खोल दिया जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंद परिवार की बच्चियों को पढ़ने और रहने का स्थान मिले.