रजनी ठाकुर, रायपुर। सर पर छत नहीं थी, माँ अपने बीमार बेटे को लेकर धूप बारिश में भटकती रहती थी, मोहल्लेवालों को तरस आया और माँ-बेटे को रहने के लिए जगह दे दी. लेकिन भटकने का सिलसिला अब भी जारी है.
पिछले कई महीनो से व्हील चेयर पर बेटे को बैठाए, स्कूल में उसका एडमिशन कराने लगभग हर दिन 25 से 30 किलोमीटर पैदल सफर करती है और निराश होकर लौट आती है. नया दिन, नई उम्मीद, नई कोशिश लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता है. ये सिलसिला पिछले कई महीनों से चल रहा है.
ये मजबूर मां स्कूल के चक्कर काट रही है. इस गुहार के साथ कि बच्चे को एडमिशन मिल जाए और उसकी ज़िन्दगी कुछ बेहतर हो सके. क्यूंकि बेटे को सेलेब्रल पाल्सी की बीमारी है और माँ को वही बीमारी जो हिन्दुस्तान में आम है “गरीबी.” जिसकी वजह से चाहकर भी ये माँ ना तो अपने बेटे का इलाज करा सकती है और ना ही सही देखभाल कर सकती है.
बेटे की हालत ऐसी है की उसे अकेला छोड़कर काम पर जा भी नहीं सकती है. घरों में साफ़ -सफाई करके जो थोड़ी बहुत कमाई होती है,उससे इलाज कराना तो दूर, दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल है. यही वजह है की ये मां अपने बेटे का दाखिला स्पेशल बच्चों के स्कूल में कराना चाहती है ताकि उसकी सही देखभाल हो सके.
ये कहानी है रायपुर की रहने वाली विभा देवी की. विभा देवी के पति की मौत हो चुकी है, बेटा राज बचपन से ही दिव्यांग है जो ना तो चल सकता है, ना बोल सकता है और ना ही सुन सकता है. दरसअल विभा अपने 15 साल के बेटे राज का एडमिशन रायपुर के माना स्थित बहु-विकलांग मूक-बधिर विद्यालय में कराना चाहती है.
लेकिन एडमिशन के बदले स्कूल प्रबंधन से जवाब मिलता है कि बच्चा जिस हालत में है उसकी देखभाल के लिए काफी मेहनत करनी होगी. गन्दगी साफ़ करनी होगी और ये सब करना मुश्किल है. मिन्नतें करने के बाद भी कोई बात ना बनी तो अपनी फरियाद लेकर कलेक्टर और कृषि मंत्री के पास भी गयीं. कृषि मंत्री के आश्वासन के बाद भी अब तक एडमिशन नहीं मिल पाया है.
जिन संस्थाओं का काम ही इस तरह के बच्चों की जिंदगी को आसान बनाना है, उसके ऐसे गैर जिम्मेदाराना जवाब चौंकाते हैं. सवाल ये है की जिस मानवता को आधार बनाकर इस तरह की संस्थाएं शुरू की जाती है वही अगर ऐसे अमानवीय जवाब दे रहा है तो विभा और राज जैसे ये बेसहारा लोग मदद की उम्मीद लेकर कहाँ जाएंगे.