नीरज काकोटिया, बालाघाट। मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले की रामपायली को भगवान श्रीराम की नगरी के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि भगवान श्रीराम 14 वर्षो के वनवास के समय इसी नगरी से होते हुए महाराष्ट्र के रामटेक गये थे। चंदन नदी किनारे यह मंदिर श्रीराम बालाजी मंदिर के नाम से भी विख्यात है।
बालाघाट मुख्यालय से 30 किमी दूर स्थित रामपायली में भगवान श्रीराम का 1625 ईसवी पुराना प्रसिद्ध मंदिर है। मंदिर में साल भर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र राज्य से भक्तगण भगवान के दर्शन करने पहुंचते है। यहां पर चंदन नदी के तट पर किलेनुमा मंदिर मौजूद है जिसमें भगवान श्रीराम और सीता की कालेपत्थर की क्रोधित रुप की वनवासी रुपी प्रतिमा विराजमान है, जो भगवान के वनवास के दिनों में भ्रमण को दर्शाती है। इतना ही नही इस मंदिर में रेत के शिवलिंग और हनुमान जी का मंदिर है जो लंगड़े हनुमान जी के नाम से प्रसिद्ध है हनुमान जन्मोत्सव व कार्तिक पूर्णिमा में विशाल मेला लगता है जहाँ भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है।
यहां का प्रसिद्ध श्रीराम बालाजी मंदिर भगवान श्रीराम के वनगमन की कई ऐतिहासिक धरोहरों और मान्यताओं को समेटे हुए हैं। इतिहासकारों की मानें तो रामपायली में ऋषि शरभंग का आश्रम था। वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम सीता माता के साथ उनके दर्शन करने पहुंचे थे लेकिन दर्शन करने के पहले ही रामपायली से कुछ दूर स्थित गांव देवगांव में विराध नामक राक्षस सामने आ गया था जिसका वध कर उन्होंने ऋषि के दर्शन प्राप्त किए थे। हालांकि इस दौरान सीता माता राक्षस के सामने आने से भयभीत हो गई थी जिसके चलते भगवान ने विकराल रूप धारण कर सीताजी के सिर पर हाथ रख अभयदान दिया था इसी रुप में रामपायली मंदिर में बालाजी व माता सीता की वनवासी प्रतिमा विराजमान हैं।
राममंदिर के पुजारी रविशंकर दास वैष्णव ने जानकारी देते हुये बताया कि भगवान श्रीराम सीता के भ्रमण के साथ ही रामपायली मंदिर में वनवासी रुप की मूर्ति स्थापना की अलग गाथा है। यहां करीब सैकड़ो साल पहले एक व्यक्ति को स्वप्न दिखाई दिया था जिसमें नदी के अंदर हजारों वर्ष पुरानी प्राचीन उक्त मूर्ति के होने की जानकारी मिली थी। जिसके बाद उक्त स्थान से मर्ति को चंदन नदी से निकालकर एक पेड़ के नीचे स्थापित किया गया था। इस स्थान को राम डोह के नाम से भी जाना जाता है इसके बाद नागपुर के राजा भोसले ने सन 1665 में मंदिर का जीर्णोंद्धार कर मूर्ति की स्थापना की थी और 18 वीं शताब्दी में मंदिर का नव निर्माण कर इसे आधुनिक रूप दिया था।
मंदिर में स्वयं प्रकट श्रीराम भक्त हनुमान जी की प्रतिमा है जो लंगड़े हनुमान जी के नाम से प्रख्यात है। पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीराम भक्त पूर्व मुखी हनुमान जी की मूर्ति का एक पैर जमीन पर और दूसरा पैर यानि बायां पैर जमीन के अंदर होने से स्पष्ट दिखाई नहीं देता है। वर्षों पूर्व एक समिति ने हनुमानजी की मूर्ति हटाकर मंदिर में स्थापित करने की कोशिश की थी तब पचास फीट से अधिक गड्ढा खोदा गया था, लेकिन पैर का दूसरा छोर नहीं मिल पाया. मान्यता है कि भगवान हनुमान जी का पैर पाताल लोक तक गया है, यहां हनुमान जन्मोत्सव व कार्तिक पूर्णिमा के अलावा साल भर श्रृद्धालूओं का तांता लगा रहता है मंदिर पहुंचने वाले भक्तगण इन मूर्तियों की कहानियां बड़े उत्साह से सुनते हैं।
शिवलिंग के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यहां पर रेत की शिवलिंग स्वयंभू है जो सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करते है। चंदन नदी किनारे मंदिर होने से रोजाना सूरज की पहली किरण रेत के शिवलिंग को स्पर्श करते हुए भगवान राम जिन्हें काले बालाजी के नाम से भक्तगण पुकारते है,उनके चरणों में पढ़ती हैं यह दृश्य प्रातः सुबह देखा जा सकता है।
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