रेणु अग्रवाल,धार : मध्य प्रदेश के धार जिले के आदिवासी अंचलों में होलिका दहन के दूसरे दिन गल बाबा का मेला लगता है। इस दिन लोग रंग ना खेलकर इस मेले में पहुंचते है। यहां पहुंचने के पीछे भी लोगों की खास वजह होती है। गल मेला आस्था मन्नत और परंपरा के नाम पर लगता है। गल का मेला ग्रामीण अंचलों में हर 15 से 20 किलोमीटर की दूरी पर आयोजित किया जाता है। इस मेले का आयोजन ग्राम पंचायत के द्वारा किया जाता है। मेले में ग्रामीण आदिवासी दूर-दूर से आते हैं यह मन्नत धारी होते हैं ।
यहां मन्नत अनुसार 1 से 5 साल तक गल घूमा जाता है। मन्नत धारी अपने पूरे परिवार के साथ गल बाबा के मेले में पहुंचते हैं और मन्नत उतारते हैं। बताया जाता है कि यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। ऐसा ही कुछ नजारा तिरला के गल मेले में देखने को मिला। जहां मन्नतधारी विशेष तरह के ड्रेस कोड (लाल कलर का कुर्ता और पीली पगड़ी ) में पहुंचे। ऐसी मान्यता है कि यहां जो भी मन्नत लोग मांगते है वो पूरी हो जाती है। मन्नत पूरी होने के बाद इस मेले आकर लोगों को अपने वचन अनुसार यहां की परंपरा को निभाना होता है और गल की परिक्रमा करनी होती है।
क्या है गल मेला की परंपरा
यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। मान्यता है कि बच्चा बीमार होने पर ठीक हो जाता है बच्चा नहीं होने पर हो जाता है। घर में अन्य समस्याएं हैं तो मन्नत लेने पर मन्नत पूरी हो जाती है। मन्नत पूरी होने पर गल घूमना होता है। यहां एक टावर होता है जिसकी ऊंचाई लगभग 50 फीट होती है। इस टॉवर पर एक व्यक्ति बैठा होता है। वहीं एक आड़ा बांस बंधा होता है, जिस पर मन्नत धारी व्यक्ति को कपड़े से बांध दिया जाता है। फिर नीचे से एक व्यक्ति रस्सी से उस बांस को गोल गोल घुमाता है। इस तरह वह व्यक्ति ऊंचाई पर घूमता है। मन्नत धारी 1 से लेकर 5 साल या पूरे जीवन तक गल पर घूमता है। इसमें लोगों की मान्यता है कि गल बाबा की कृपा से वह जो मन्नत लेते हैं वह पूरी हो जाती है। अक्सर मन्नत बच्चे होने की, बीमारी से ठीक होने की ली जाती है।
आस्था व परम्परा के नाम पर यह मेले प्राचीन काल से लगते चले आ रहे हैं। आदिवासी ग्रामीण अंचलों में इन मेलों में आने वाले मन्नत धारियों की भारी भीड़ देखी जाती है। इस मेले में ग्रामीण आदिवासी दूर-दूर से आते हैं जो मन्नत धारी होते हैं ।
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