यत्नेश सेन, देपालपुर। मध्य प्रदेश के इंदौर से 55 किलोमीटर दूर एक बार फिर परंपरा का निर्वाह होगा, जब दीपावली के दूसरे दिन पड़वा पर होने वाला हिंगोट युद्ध हिंगोट मैदान पर आयोजित होगा। जिसको लेकर योद्धा पूरी तरह से तैयार है। यह युद्ध देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्वभर में प्रसिद्ध है।

वहीं सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आयोजन का न आयोजक होता है न प्रायोजक इसके बाद भी स्थानीय प्रशासन, पुलिस व स्वास्थ्य विभाग आयोजन को लेकर तैयारी करता है। हिंगोट एक ऐसा अनूठा युद्ध है। इसमें दो दल एक-दूसरे पर जलते हुए हिंगोट फेंकते है, लेकिन इसमें किसी भी दल की हार-जीत नहीं होती। यह दोनों ही दल अपने पूर्वजों की आपसी भाईचारे की इस परंपरा को जीवित रखने के लिए इस युद्ध बना खेल को खेलते है।

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युद्ध में तुर्रा (गौतमपुरा) और कलगी (रूणजी) नाम के दो दल आपस में युद्ध लड़ते है। जिसमें दोनों दल के योद्धा जलते हुए हिंगोट एक-दूसरे पर फेंकते है। इस युद्ध को देखने के लिए गोतमपुरा के साथ ही कई शहरों के अलावा देश के कोने कोने से लोग यहां बिना निमंत्रण के पहुंचते है।

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युद्ध में काम आने वाला हिंगोट

हिंगोट हिंगोरिया नामक फल एक पेड़ पर पैदा होता है। जिसे यहां के नागरिक जंगल में पहुंचकर पेड़ से तोड़कर लाते है। नींबू आकारनुमा फल जो ऊपर से नारियल समान कठोर व अंदर खोखला गूदे से भरा हुआ रहता है। जिसे ऊपर से साफ कर एक छोर पर बारिक व दूसरे पर बड़ा छेद कर दो दिन धूप में रखने के बाद स्वयं ग्रामीणों द्वारा तैयार किया जाता है। बारूद भरकर बड़े छेद को पीली मिट्टी से बंद कर दूसरे बारिक छेद पर बारूद की टीपकी लगाने के बाद निशाना सीधा लगे इसलिए हिंगोट के ऊपर आठ इंची बांस की किमची बांध दी जाती है।

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