रायपुर। राजधानी रायपुर का सत्ती मंदिर यूं तो काफी प्राचीन है और राजधानीवासियों की अस्था का भी प्रतीक है,लेकिन बहुत ही कम लोगों को इस मंदिर की स्थापना और नाम के पीछे की कहानी पता होगी. हम आपको बताने जा रहे हैं इस मंदिर का रोचक इतिहास, जिसे जानने के बाद आपकी आस्था इस मंदिर में और भी बढ़ जाएगी. हैहयवंशी राजाओं के जमाने में जहां पुरानी बस्ती क्षेत्र बसा, वहीं मराठा काल में बूढ़ापारा, तात्यापारा, तेलीपारा, गोलबाजार, कमासी पारा, भोईपारा जैसे क्षेत्र भी बसे।
हैहयवंशी राजाओं के शासन तक कंकाली तालाब से लेकर सत्ती बाजार का क्षेत्र श्मशान घाट हुआ करता था। यहीं एक तरफ राजाओं की सैनिक छावनी और शस्त्रागार भी बने थे.यहीं पर तलवार, ढाल जैसे शस्त्र भी बनाए जाते थे। अठारहवीं सदी में भोसले राजाओं के सामंतों ने रतनपुर पर जीत हासिल कर उस पर शासन शुरू किया। थोड़े समय बाद उन्होंने राज्य विस्तार के उद्देश्य से रायपुर पर भी हमला कर दिया। छत्तीसगढ़ में मराठों ने रतनपुर को साल 1742 में जीता और रायपुर पर उन्होंने 1752 में जीत हासिल की।
उस समय हैहयवंशी राजा देवनाथ सिंह का रायपुर में शासन था। मराठा हमलावरों ने ब्रह्मपुरी स्थित तीन ओर से तालाबों से सुरक्षित किले पर कब्जा करने के लिए राजा देवनाथ सिंह के सेनापति हजारी लाल को मार डाला। हजारी लाल जिस जगह पर रहते थे, वर्तमान में उस जगह को नाहटा भवन के नाम से जाना जाता है.हजारी लाल के वीरगति प्राप्त करने पर उनकी धर्मपत्नी ने उनके सिर को गोद में रखकर सती हो गईं. उस समय उस सती स्थल में मिट्टी पत्थर का चबूतरा बनाया गया। आज वह जगह मन्दिर के रूप में तब्दील हो गया और धीरे-धीरे लोगों की आस्था यहां से जुड़ती गयी .इस मंदिर को आज सत्ती मन्दिर कहा जाता है और मोहल्ले की पहचान सत्ती बाजार के नाम से है। पहले इसे हजारी सत्ती चौक के नाम से भी जाना जाता था.कसेर समाज समेत रायपुर वासियों में इस मंदिर के लिए बड़ी आस्था है.साल 1965 तक इस मंदिर के पास कदम्ब का बड़ा से पेड़ हुआ करता था.यहां कुछ सालों पहले तक जलपरी का पुतला भी हुआ करता था जिसका फव्वारा भी आकर्षण का केंद्र था.इधर हैहयवंशी राजाओं के वंशज मराठों से हार के बाद महासमुंद के बड़गांव में जाकर बस गए।
अजय वर्मा की वॉल से साभार