रायपुर। छत्तीसगढ़ में वन अधिकार के मुद्दे पर कार्यरत जन संगठनों व आदिवासी अधिकार संगठनों ने प्रदेश सरकार के उस कदम की कड़ी आलोचना की है, जिसमें वन-अधिकारों को मान्य करने की प्रक्रिया के लिए वन विभाग को नोडल एजेंसी बनाया जा रहा है. रविवार को प्रदेश सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार अब वन विभाग को सामुदायिक वनाधिकार के लिए नोडल विभाग बनाने का आदेश जारी किया गया है. छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता, विशेषकर ग्राम सभा द्वारा वन का प्रबंधन करने का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्धता प्रदर्शित करना निस्संदेह एक स्वागत योग्य कदम है. वर्तमान सरकार का वनाधिकार कानून का सुचारू क्रियान्वयन पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जनता से किये गए वादों में शामिल था. परन्तु, कानून के मूलभूतविचारों और प्रावधान के खिलाफ जा कर जनता को अधिकार कैसे दिए जा सकते है?

आदिवासी व वन अधिकार पर सक्रिय प्रदेश भर के संगठनों के साथ साथ अन्य राष्ट्रीय नेटवर्क एक सुर में छत्तीसगढ़ शासन के इस कदम की भत्सर्ना कर रहे हैं, क्योंकि यह वन अधिकार कानून की भावना के विरुद्ध है. यह सर्व विदित है कि ग्राम सभा ही वन अधिकार मान्यता कानून के मुताबिक सच्ची और वाजिब अधिकार-धारक वैधानिक निकाय है. लेकिन, ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन अधिकार मान्य करने से पूर्व, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह ग्राम सभाएं, वन अधिकार मान्यता कानून और आदिवासी इलाकों में पेसा कानून के अनुसार बनायी जाये, न कि किसी विभाग के हित-साधन करने वाले हितधारक समूह के तौर पर.

पेसा कानून और वनाधिकार कानून के अनुपालन की कमजोरी के चलते, आज, ग्राम सभा वस्तुतः उस बैठक का नाम रह गया है, जिसे पंचायत कर्मियों द्वारा, जैसे तैसे कोरम पूरा करते हुए, शासकीय हितों को अपने पूर्व निर्धारित एजेंडा के हिसाब से खानापूर्ति करने, आयोजित की जाती है. दुर्भाग्य से, ग्राम सभा किसी गांव, टोला, पारा, माजरा के वयस्क मतदाताओं का स्व-प्रेरित संगठन नहीं बन पाया है, जो अपने गांव के मुद्दे, विशेषकर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन पर निर्णय ले सके. जब तक ग्रामसभा स्वशासन की सशक्त और स्वायत्त एजेंसी नहीं बनती, तब तक वनाधिकार कानून को अक्षरश: पालन नहीं किया जा सकता.

यदि वन विभाग को इस कानून के कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी बनाया जाता है तो यह ना सिर्फ दुर्भाग्य जनक होगा बल्कि इसी कानून का खुला उल्लंघन भी होगा, क्योंकि वन अधिकार कानून अपनी प्रस्तावना में आदिवासी और वन निर्भर समुदायों पर हुए ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने की बात करता है. जबकि सच्चाई यह रही है कि वन विभाग के बनाये जाने के समय से ही, वन घोषित करने, संरक्षण और राजस्व के लिए आदिवासियों पर अत्याचार, विस्थापन और शोषण होता रहा है. छत्तीसगढ़ सरकार के इस कदम की मंशा शायद अच्छी भी रही हो, लेकिन इसके परिणाम दुखदाई होंगे क्योंकि वन विभाग, आदिवासियों का विश्वास कभी भी नहीं जीत सका है, जो वन क्षेत्रों से अब तक हुए विस्थापन, बेदखली और वन डायवर्शन के नाम पर अधिकारों के छिनने के रूप में दिखाई देता है.

इस बात की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि वन विभाग संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के जरिए ग्राम सभा के अधिकारों का हनन करके अपने एजेंडे को आगे बढ़ाएं और समाज में द्वंद खड़ा करते रहे. हमारा मानना है कि आदिवासी विकास विभाग को ही इस कानून के अमल के लिए जवाबदेह एजेंसी बनाया जाना चाहिए. केंद्र के आदिवासी कार्य मंत्रालय ने 27 सितम्बर 2007 व 11 जनवरी 2008 को राज्यों को लिखे पत्र में जोर दिया है, कि आदिवासी विकास विभाग ही नोडल एजेंसी होगा. छत्तीसगढ़ शासन का यह प्रयास, केंद्र के आदेश की अवहेलना भी है.

प्रदेश शासन को सर्वप्रथम यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की वर्ष 2012-13 से पूरे प्रदेश में बहुत सी ग्राम सभाओं के द्वारा प्रक्रियाओं का पालन करते हुए, सामुदायिक वन अधिकार के दावे भरे गए थे जो अब तक लंबित हैं, उन्हें अविलम्ब अधिकार-पत्र दिए जाने चाहिए. ऐसे करीब 40 दावे सरगुजा जिले में और 20 दावे कोरबा, राजनांदगांव, धमतरी, गरियाबंद और बलौदाबाजार प्रत्येक जिले में वर्ष 2012 से 2015 के बीच भरे गए थे. यहां तक कि, कोरबा जिले के हसदेव अरण्य क्षेत्र में कोयला खनन सुगम बनाने समुदाय को दिए गए वन अधिकारों का खुला उल्लंघन जारी है, अब भी वहां समुदाय वन अधिकारों की बहाली के लिए संघर्षरत है.

यह दयनीय है कि, कागजों में वर्ष 2012 से ही लघु वनोपज और निस्तार के अधिकार दिए गए हैं लेकिन जंगल के प्रबंधन के अधिकार को स्वीकार नहीं किया गया है। अधिकतर सामुदायिक अधिकार सयुक्त वन प्रबंधन समितियों के नाम पर है, जिन्हें सुधाकर ग्रामसभाओं के नाम दिया जाना चाहिए था. सामुदायिक अधिकारों के नाम पर धारा ३(2) के तहत विकासमूलक कार्यों के लिए छोटे-छोटे भूखंड में वनभूमि डायवर्शन को गिनाया जा कर, अधिकार-पत्रकों की अधिक संख्या दर्शायी जा रही है. वास्तव में, नंबर गेम के लिए समस्त वनाधिकारों को किश्तों में बाँट कर, ग्रामसभा के प्रबंधन के अधिकार को जन्मपूर्व ही मारा जा रहा है.
हम मांग करते हैं, कि सामुदायिक वन संसाधनों के अधिकार सम्पूर्णता में वन अधिकार मान्यता नियम के परिशिष्ट में दिए उपबंध ३ और 4 के अनुसार ही दिए जाये.

समुदाय के वन अधिकारों की मान्यता के लिए, पहले ग्राम सभा को एक स्वायत्त संस्था के रूप में मान्यता देनी चाहिए और फिर ग्राम सभा द्वारा चुनी गयी वन अधिकार समिति और सामुदायिक वन प्रबंधन समितियों को मान्यता दिया जाना चाहिए। आदिवासी विकास विभाग के जिले में पदस्थ अमले को बेहतर प्रशिक्षण देकर और जवाबदेह बनाकर, कलेक्टर की अध्यक्षता में गठित जिला स्तरीय समिति को अधिकार-पत्र प्रदान करने की जिम्मेदारी का अनुपालन कराया जाना चाहिए. जिला समिति की भूमिका, दावे लटकाने या ख़ारिज करने की नहीं, बल्कि, ग्रामसभाओं के दावों को सुधारने और साक्ष्य जुटाने में मदद करने की है. इनकी अहम् भूमिका ग्राम सभा के अधिकारों का दस्तावेज तैयार करना होना चाहिए.

ख़ुशी की बात है कि प्रदेश सरकार, आदिवासियों को वनोपज के बेहतर मूल्य दिलाने प्रतिबद्ध है, और वन संवर्धन कार्यों के लिए निधि उपलब्ध कराना चाहती है. लघु वनोपजों पर अधिकार, उस पर ग्रामसभा के स्वामित्व के रूप में होना चाहिए, ताकि, समुदाय विक्रय, उपभोग और एकत्रीकरण की सीमा तय कर सके, और महाराष्ट के तर्ज पर आवश्यकतानुसार नीलामी या रायल्टी पा सके. अभी, व्यक्तिगत संग्रहकर्ता के रूप में उन्हें उचित मूल्य ही बमुश्किल मिलता है.

अंत में, हम यह कहना चाहते है कि, व्यक्तिगत व सामुदायिक वन अधिकारों की पूर्ण मान्यता होने तक, वन भूमि से विस्थापन, या धारित भूमि का अधिग्रहण या पुनर्वास पॅकेज प्रस्ताव नहीं दिया जाना चाहिए, और तब तक वन-विभाग को वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन में बाधा पहुँचाने या भटकाव लाने के प्रयत्नों से अलग रखा जाना चाहिए .