बस्तर। हिन्दुस्तान के कई मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी की बात आप सुने भी होंगे और जानते भी होंगे. लेकिन शायद ही आप ने पहले कभी सुना भी होगा कि पुरूषों का किसी मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित है. जी हां चौंकिए मत आपने बिल्कुल सही पढ़ा पुरूषों के प्रवेश पर प्रतिबंध है. दरअसल यह जगह छत्तीसगढ़ के बस्तर में है.
बस्तर दशहरा पर्व के दौरान मावली मंदिर में नौ दिनों तक ऐसा अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें पुरूषों का प्रवेश निषेध होता है. दो समाजों की 12 सुहागिन महिलाएं गौरा-गौरी की विधि पूर्वक पूजा करती हैं. दिलचस्प बात यह है कि पूजा के दौरान कक्ष का कपाट बंद रहता है और पुरूषों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबंधित होता है. 9 दिनों के अनुष्ठान उपरांत महिलाओं द्वारा स्थापित कलश व प्रतिमा का नवमीं तिथि को विसर्जन किया जाता है.
रियासतकाल में महिलाएं रानी को खिलाती थीं प्रसाद
पौराणिक मान्यता अनुसार देवी गौरी में ही महादेव के क्रोध का शमन करने की शक्ति है. रियासत काल से दशहरा पर्व व नवरात्रि के दौरान गौरा-गौरी पूजा चल रही है. उस समय 12 जातियों की सुहागिनों को पूजा-अनुष्ठान की जिम्मेदारी दी गई थी. वर्तमान में धाकड़ व यादव समाज की 12 महिलाओं द्वारा इस परपंरा का निर्वहन किया जा रहा है. रियासत काल में सुहागिनें विसर्जन के बाद प्रसाद लेकर महल पहुंचती थीं। रानी को प्रसाद दिया जाता था. रानी की ओर से व्रतधारी महिलाओं को सुहाग सामग्री वस्त्र व अन्य प्रकार का उपहार प्रदान किया जाता था. सिरासार चौक स्थित मावली मंदिर में गौरा-गौरी पूजा संपन्न की जाती है.
लकड़ी के पाटे पर स्थापित होती है प्रतिमा
नवरात्रि के प्रथम दिन कुम्हार द्वारा निर्मित मिट्टी से बने गौरा-गौरी की प्रतिमा एक लकड़ी के पाटे पर कलश के साथ स्थापित की जाती है साथ ही केले व आम के पत्तों से बंदनवार सजाया जाता है और गेंहू, धान व चना की भोजली भी उगाई जाती है. इस प्रकार गौरा-गौरी के रूप में भगवान शिव-पार्वती का पूजन नौ दिनों तक चलता है. अनुष्ठान में खास बात यह है कि पूजा के दौरान केवल सुहागिन महिलाओं को छोड़ पुरूषों का प्रवेश वर्जित होता है, हालांकि इसके कारण के बारे में कोई स्पष्ट मान्यता ज्ञात नहीं है. नवमीं के अनुष्ठान बाद महिलाएं गाजे-बाजे व शंख ध्वनि के साथ प्रतिमा व कलश विसर्जन करती हैं।