Onion Price : एक्सपोर्ट बैन के कारण मंडियों में प्याज की आवक काफी बढ़ गई है. इतनी आवक हो रही है कि कुछ बाजारों में रोजाना प्याज की नीलामी नहीं हो पा रही है. उस पर भी अच्छा दाम नहीं मिल पा रहा है. लागत तो दूर की बात है यहां तक कि माल भाड़ा भी निकालना मुश्किल हो रहा है. सरकारी आदेश के आगे महाराष्ट्र के किसान बेबस हैं. Read More – अजब-गजब : अलग-अलग देशों के अलग-अलग कानून, यहां पत्नी का जन्मदिन याद नहीं रखने पर मिलती है सजा, जानिए और भी बहुत कुछ …
ये प्याज स्टोर नहीं होता
इस समय खरीफ सीजन का प्याज बाजार में आ रहा है. खरीफ सीजन वाले प्याज की दिक्कत ये है कि उसे स्टोर नहीं किया जा सकता. ऐसे में उनके पास दो रास्ते हैं या तो बाजार में लाकर औने-पौने दाम पर उपज को बेच दें या तो उसे खेत में फेंक दें. कई किसानों ने दाम न मिलने की वजह से ऐसा ही किया है. इसमें से बीड़ जिला निवासी श्रीराम शिंदे भी हैं, जिन्हें सोलापुर मंडी में 443 किलो प्याज बेचने के बाद इतने कम पैसे मिले कि भाड़ा के रूप में 565 रुपये घर से लगाने पड़े.
धुले में 1 रुपये 40 पैसे किलो रहा दाम
धुले मंडी में तो दाम का और बुरा हाल रहा. इस एपीएमसी में सिर्फ 2,619 क्विंटल प्याज बिकने को आया था. इसके बाचजूद किसानों को न्यूनतम सिर्फ 100 रुपये प्रति क्विंटल के दाम पर संतोष करना पड़ा. अधिकतम दाम 2,150 रुपये तक गया, लेकिन औसत दाम सिर्फ 140 रुपये क्विंटल रहा. अगर औसत दाम ही 1 रुपये 40 पैसे प्रति किलो रहा तो सोच लीजिए किसान कितने दुखी मन से प्याज बेच रहे होंगे. महाराष्ट्र कांदा उत्पादक संगठन के अध्यक्ष भारत दिघोले का कहना है कि सबसे ज्यादा किसानों को न्यूनतम और औसत दाम मिलता है. बहुत कम किसान होते हैं जिन्हें अधिकतम दाम मिलता है.
राज्य की दूसरी बड़ी मंडियों का हाल
महाराष्ट्र की जुन्नर (नारायण गांव) मंडी में प्याज का न्यूनतम दाम सिर्फ 5 रुपये किलो, जलगांव, धाराशिव और कोपरगांव में 5, येवला में 3 रुपये 50 पैसे, लासलगांव में 7 रुपये, मालेगांव-मुंगसे में 4, मंगलवेढा, कोपरगांव और कलवन में 2 रुपये प्रति किलो का न्यूनतम दाम रहा. इतने कम दाम में किसानों की लागत भी नहीं निकल पा रही है. क्योंकि लागत 15 से 20 रुपये किलो के बीच पहुंच गई है. नेशनल हॉर्टिकल्चरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन (NHRDF) के अनुसार 2014 के खरीफ सीजन के दौरान ही महाराष्ट्र में प्याज की उत्पादन लागत 7 रुपये 24 पैसे प्रति किलो आती थी. किसानों का कहना है कि एक दशक बाद लागत डबल से ज्यादा हो गई है, लेकिन दाम पुराना ही मिल रहा है.
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