रायपुर। छत्तीसगढ़ एक आदिवासी बाहुल्य राज्य है. यहाँ 32 फीसदी आबादी जनजातियों की है. लिहाजा यहाँ पेसा लागू है. लेकिन कानून बनने के करीब 25 और राज्य बनने के 20 साल भी प्रदेश में अब तक पेसा कानून के नियम नहीं बन पाए हैं. ऐसे में अब राज्य सरकार ने इस दिशा में कवायद शुरू कर दी. लेकिन सरकार की इस कवायद पर भाजपा को विश्वास नहीं है. हालांकि पेसा कानून और आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले लोग इसका स्वागत कर रहे हैं.

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सबसे पहले इस तस्वीर को देखिए. यह तस्वीर उत्तर बस्तर कांकेर में चारामा ब्लॉक के खैरखेड़ा गाँव की है. इस गाँव से छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के नियम बनाने के लिए राज्य सरकार ने आदिवासियों से बातचीत की शुरुआत की है. परिचर्चा का आयोजन सर्व आदिवासी समाज ने किया था. इस आयोजन में पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव, विधानसभा उपाध्यक्ष मनोज मंडावी, संसदीय सचिव शिशुपाल सोरी, मुख्यमंत्री के सलाहकार राजेश तिवारी, आदिवासी समाज के नेता सोहन पोटाई सहित बड़ी संख्या में समाज के पदाधिकारी और लोग शामिल हुए.बैठक में पेसा कानून को कैसे आदिवासी क्षेत्रों में प्रभावी बना सकते हैं ? क्या-क्या नियम हो सकते हैं ? कानून के उल्लंघन पर क्या कार्रवाई हो सकती है ? जैसे बिंदुओं पर समाज के लोगों से राय ली गई.

जो वादा किया उसे निभा रहे हैं- टीएस सिंहदेव

पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव का कहना है सरकार ने आदिवासियों से चुनाव से पहले ही वादा किया था पेसा कानून का बेहतर क्रियान्वयन राज्य में हो इस दिशा में काम करेंगे. इसी वादे के साथ हमने एक शुरुआत की है. पाँचवीं अनुसूची में शामिल ऐसे ही कई गाँवों में जाकर आदिवासी समाज के लोगों से बात करेंगे. कानून को प्रभावी बनाने के लिए रिपोर्ट तैयार करेंगे. रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सौंपेंगे. विधानसभा में कानून के नियम संबंधी विधेयक सदन में लाएंगे.

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जानिए क्या है पेसा कानून ?

पेसा का पूरा नाम ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक (The Provisions on the Panchyats Extension to the Scheduled Areas Bill) है। भूरिया समिति की सिफारिशों के आधार पर यह सहमति बनी कि अनुसूचित क्षेत्रों के लिए एक केंद्रीय कानून बनाना ठीक रहेगा, जिसके दायरे में राज्य विधानमंडल अपने-अपने कानून बना सकें. इसी दृष्टिकोण से दिसंबर, 1996 में संसद में विधेयक प्रस्तुत किया गया. दिसंबर, 1996 में ही यह दोनों सदनों से पारित हो गया तथा 24 दिसंबर को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त कर लागू हो गया.

  • इसका मूल उद्देश्य यह था कि केंद्रीय कानून में जनजातियों की स्वायत्तता के बिंदु स्पष्ट कर दिये जाएं जिनका उल्लंघन करने की शक्ति राज्यों के पास न हो.
  • वर्तमान में 10 राज्यों (आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान) में यह अधिनियम लागू होता है.
  • इसका अन्य उद्देश्य जनजातीय जनसंख्या को स्वशासन प्रदान करना, पारंपरिक परिपाटियों की सुसंगता में उपयुक्त प्रशासनिक ढाँचा विकसित करना तथा ग्राम सभा को सभी गतिविधियों का केंद्र बनाना भी है.
  • इस अधिनियम की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें जनजातीय समाजों की ग्राम सभाओं को अत्यधिक ताकत दी गई है.
  • प्रत्येक गाँव में एक ग्राम सभा होगी जिसमें वे सभी व्यक्ति शामिल होंगे जिनका नाम ग्राम स्तर पर पंचायत के लिये तैयार की गई मतदाता सूची में शामिल है.
  • प्रत्येक ग्राम सभा सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं को स्वीकृति देगी, इसके पहले कि वे ग्राम स्तरीय पंचायत द्वारा कार्यान्वयन के लिए हाथ में लिये जायें.
  • इस अधिनियम द्वारा संविधान के भाग 9 के पंचायतों से जुड़े प्रावधानों को ज़रूरी संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तारित करने का लक्ष्य है.
  • गरीबी उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के लिये लाभार्थियों को चिन्हित करने तथा चयन के लिये भी ग्राम सभा ही उत्तरदायी होगी. पंचायतों को ग्राम सभा में इसआशय का प्रमाणपत्र लेना होगा कि उन्होंने इन कार्यक्रमों व योजनाओं के संबंध में धन का उचित उपयोग किया है.
  • संविधान के भाग 9 के अंतर्गत जिन समुदायों के संबंध में आरक्षण के प्रावधान हैं उन्हें अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक पंचायत में उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिया जाएगा। साथ ही यह शर्त भी है कि अनुसूचित जनजातियों का आरक्षण कुल स्थानों के 50% से कम नहीं होगा तथा पंचायतों के सभी स्तरों पर अध्यक्षों के पद अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित रहेंगे.
  • मध्यवर्ती तथा ज़िला स्तर की पंचायतों में राज्य सरकार उन अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधियों को भी मनोनीत कर सकेगी जिनका उन पंचायतों में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, किंतु ऐसे मनोनीत प्रतिनिधियों की संख्या चुने जाने वाले कुल प्रतिनिधियों की संख्या के 10% से अधिक नहीं होनी चाहिये.
  • अनुसूचित क्षेत्रों में लघु जल निकायों की योजना बनाने तथा उसका प्रबंधन करने का कार्य उपयुक्त स्तर की पंचायतों को सौंपा जाएगा.
  • अनुसूचित क्षेत्रों में गौण खनिजों के लिये लाइसेंस या खनन पट्टा देने के लिये ग्राम सभा पंचायत के उचित स्तर की सिफारिशों को अनिवार्य बनाया जाएगा.
  • अनुसूचित क्षेत्रों में बोली (Auction) द्वारा गौण खनिजों के दोहन की प्रक्रिया में रियायत देने के लिये ग्राम सभा या पंचायत की पूर्व सिफारिश लेना अनिवार्य होगा. राज्य विधानमंडल प्रयास करेंगे कि अनुसूचित क्षेत्रों में ज़िला स्तर पर पंचायतों के लिये वैसा ही प्रशासनिक ढाँचा बनाया जाए जैसा कि संविधान की छठी अनुसूची में वर्णित जनजातीय क्षेत्रों पर लागू होता है.
  • अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के तौर पर कार्य करने के लायक बनाने के लिये अपेक्षित शक्तियाँ और अधिकार देते हुए राज्यों के विधानमंडल यह सुनिश्चित करेंगे कि ग्रामसभा और पंचायतों को निश्चित रूप से शक्तियाँ प्रदान की गई हों, जो निम्नलिखित हैं-
    • किसी भी मादक पदार्थ की बिक्री या उपभोग को प्रतिबंधित या नियमित या सीमित करने की शक्ति।
    • गौण वन उत्पादों का स्वामित्व.
    • अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि के हस्तांतरण को रोकने की शक्ति और किसी अनुसूचित जनजाति की अवैध रूप से हस्तांतरित की गई भूमि को वापस लेने के लिये उचित कार्यवाही करने की शक्ति.
    • गाँवों के बाज़ारों के प्रबंधन की शक्ति, चाहे वे किसी भी नाम से प्रयोग में हो.
    • अनुसूचित जनजातियों को धन उधार दिये जाने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने की शक्ति।
    • आदिवासी उप-योजनाओं सहित स्थानीय योजनाओं तथा उनके लिये निर्धारित संसाधनों पर नियंत्रण रखने की शक्ति।
  • राज्य विधान के अंतर्गत ऐसी व्यवस्था होगी जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उच्च स्तर की पंचायतें निचले स्तर की किसी पंचायत या ग्राम सभा के अधिकारों का हनन अथवा उपयोग न करे.
  • अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत से संबंधित किसी कानून का कोई प्रावधान यदि इस अधिनियम के संगति में है तो वह राष्ट्रपति द्वारा इस अधिनियम की स्वीकृति प्राप्त होने की तिथि के एक वर्ष की समाप्ति के बाद लागू होने से रह जाएगा.
  • हालाँकि उक्त तिथि के तत्काल पहले अस्तित्व में रही सभी पंचायतें अपने कार्यकाल की समाप्ति तक चलती रहेंगी बशर्ते कि उन्हें राज्य विधायिका द्वारा पहले ही भंग न कर दिया जाए.

ऐसे ही अनेक बातें हैं जो कानून में शामिल है.

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सरकार की कवायद स्वागतयोग्य- आलोक शुक्ला

पेसा कानून के जानकर और आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला राज्य सरकार की ओर से की गई इस शुरुआत का स्वागत करते हैं. लेकिन वे यह सवाल भी उठाते हैं कि इस कानून को बने करीब 25 साल हो चुके हैं, वहीं छत्तीसगढ़ को राज्य बने 20 साल, बावजूद इसके इस दिशा में राज्य में कोई ठोस कार्य हुआ. वे इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी को कारण बताते हैं.

आलोक शुक्ला कहते हैं कि पूरे देश में सिर्फ 6 राज्यों में पेसा कानून के तहत नियम बनाए गए हैं. लेकिन वहाँ भी प्रभावी तरीके नियम नहीं बने. नियम प्रभावी नहीं होने के चलते अनुसूचित क्षेत्रों में इसका जमकर उल्लंघन हुआ है और आज भी हो रहा है. छत्तीसगढ़ जैसे राज्य जहाँ जल-जंगल-जमीन का मुद्दा सबसे ज्यादा बड़ा है, वहाँ पर तो यह कानून और भी अहम है. क्योंकि भू-विस्थापन के साथ जल-जमीनों और जंगलों का जिस तरह से विभन परियोजनाओं के नाम पर अधिग्रहण हुआ या हो रहा उससे आदिवासी क्षेत्रों में समस्याएं बढ़ी हैं. इन समस्याओं को दूर करने में पेसा कानून की भूमिका अहम है. लिहाजा मौजूदा सरकार अगर इस दिशा में आगे बढ़ रही तो यह एक महत्वपूर्ण कदम है. क्योंकि आदिवासियों की संस्कृति, रीति-रिवाजों या उनके संरक्षण के लिए कानून का बेहतर क्रियान्वयन जरूरी है.

सरकार की नीयत साफ नहीं – भाजपा 

वहीं राज्य सरकार की ओर से की गई शुरुआत पर भाजपा को विश्वास नहीं है. भाजपा प्रवक्ता संजय श्रीवास्तव का कहना है कि कांग्रेस सरकार 2 साल पूरे होने के बाद इस दिशा में आगे बढ़ रही है. सरकार खुद पेसा कानून का उल्लंघन कर चुकी है. सरकार ने मरवाही ग्राम पंचायत को नगर पंचायत में बदलने की कोशिश भी थी. जबकि वह पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में शामिल है. ऐसा करना पेसा कानून का उल्लंघन था. राज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद ग्राम पंचायत का अधिकार छिनने से बच सका था. उन्होंने पंचायत मंत्री पर निशाना साधते हुए यहाँ तक कह दिया कि यह कोशिश आदिवासी हित में कम, स्वहित में ज्यादा है.

सरकारी प्रयास और बीजेपी के सवालों के बीच सवाल यही है कि राज्य बनने के 20 और कानून बनने के करीब 25 साल बाद भी छत्तीसगढ़ में पेसा कानून के नियम क्यों नहीं बन सके ? यहाँ यह जानना भी जरूरी है कि कानून बनने के 25 साल के दौरान अविभाजित मध्यप्रदेश और पृथक छत्तीसगढ़ राज्य में करीब 10 साल कांग्रेस की सरकार, तो 15 साल भाजपा की सरकार रही है. मौजूदा दौर में बीते 2 साल से राज्य में कांग्रेस की सरकार है, सरकार ने अब कानून को प्रभावी बनाने की दिशा में सर्व आदिवासी समाज के साथ मिलकर कवायद शुरू कर दी है.