
कुर्सी सुरक्षा गारंटी योजना
कुछ प्रभावशाली नेताओं द्वारा सूबे की ब्यूरोक्रेसी के लिए कुर्सी सुरक्षा गारंटी योजना शुरू की गई थी. यह योजना ब्यूरोक्रेसी की विशेष संरक्षित प्रजाति के लिए लाई गई थी, जिसका लाभ कुछ अफसर उठा रहे हैं. इस योजना के हितग्राहियों के लिए पात्रता साफ और स्पष्ट है. अपने संपर्कों के आधार पर मनचाही कुर्सी का वजन तौला कर कोई भी अफसर इस पर काबिज हो सकता है. एक बार योजना का लाभ मिलना शुरू हो गया फिर तबादले की आंधी में भी कुर्सी सुरक्षित रहेगी. दूसरे जिलों में जमे एसपी की कुर्सी उखड़ती रहेगी, मगर मजाल है कि योजना का लाभ उठा रहे एसपी की कुर्सी एक इंच भी खिसकेगी. राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण माने जाने वाले एक जिले में कुर्सी सुरक्षा गारंटी योजना का लाभ उठा रहे एक एसपी साहब की तैनाती है. अब तक आई बदलाव की आंधी उन्हें टस से मस न कर सकी है. सुनते हैं कि सरकार की नजरें भी उन्हें लेकर टेढ़ी ही है. डीजीपी साहब की भौंह भी तनी होती है, फिर भी कुर्सी की मजबूती बरकरार है. फेविकोल का मजबूत जोड़ वाला विज्ञापन एसपी और उनकी कुर्सी पर ही सार्थक दिखाई पड़ता है. खैर, फिलहाल मसला न एसपी है न एसपी की कुर्सी है. मसला है जिले में बेधड़क चलता जुआ-सट्टा, अवैध शराब और अवैध रेत खनन कारोबार. सारा अवैध काम इस जिले में वैध है. राजनीतिक सफेदपोश चेहरे अवैध कारोबार के सरगना है और एसपी उस कारोबार के भागीदार. जब कारोबार अवैध हो, तब कॉम्पिटिशन बढ़ जाता है. दो प्रभावशाली नेताओं के दो गुट बन गए हैं. दोनों गुट के समर्थक जिले में जुआ-सट्टा का बड़ा फड़ चलाते हैं. एसपी साहब की भागीदारी एक गुट से प्रत्यक्ष है, दूसरे गुट से अप्रत्यक्ष. पिछले दिनों एक गुट ने दूसरे गुट के जुए के बड़े फड़ में छापा मारने का फरमान एसपी को दिया. फरमान ही था, क्योंकि एसपी की कुर्सी के चार पायों की मजबूती इसी गुट से है. सो दूसरे गुट से अप्रत्यक्ष भागीदारी को उन्होंने ताक पर रखते हुए छापा मार दिया. इतनी वफादारी जरूर निभाई कि दूसरे गुट के बड़े गुर्गों को छापे की इत्तला कर दी. जब तक छापा पड़ता, वह भाग चुके थे. कुछ छोटे गुर्गे धर लिए गए. फड़ से करीब दस लाख रुपयों की बरामदगी होने की खबर बाहर आई. एसपी साहब सियासी शतरंज का वह मोहरा बन गए हैं, जिसे राजनीतिक चेहरे अपनी-अपनी जीत के उद्देश्य से चलना चाहते हैं. बहरहाल एसपी को मिले राजनीतिक संरक्षण ने जिले की कानून व्यवस्था का क्षरण कर दिया है. सरकार हुजूर कानून व्यवस्था की बहाली की लाख दलील दे दे, जब तक कुर्सी तौलकर बेची जाएगी, कम से कम तब तक कानून व्यवस्था बहाल होने की दलील बेमानी ही होगी.
मुआवजा घोटाला मॉडल
छत्तीसगढ़ अब नया मुकाम हासिल कर चुका है. राज्य में योजनाबद्ध तरीके से किए जाने वाले भ्रष्टाचार को देख योजना आयोग भी शर्मा जाता होगा कि हम विकास माडल की इतनी गहरी सोच क्यों नहीं पैदा कर सकते, जितना भ्रष्ट तंत्र भ्रष्टाचार की दे सकता है. रायगढ़ के बजरमुड़ा मुआवजा घोटाला को ही देख लीजिए. अफसरों की प्रशासनिक कल्पनाशीलता ने मुआवजा राशि बढ़ाने के इरादे से कागजों पर पेड़ उगा दिए. जिस जमीन पर बेशरम का पौधा भी ठीक ढंग से न उगता हो, उस जमीन पर अफसरों ने कागजों में हरियाली बिखेर दी और करोड़ों रुपए का मुआवजा तैयार कर दिया. मुआवजा पुनर्गणना की जांच के लिए जब टीम पेड़ों को ढूंढने गई, तब पेड़ क्या, पेड़ के ठूंठ तक नहीं मिले. मुआवजा राशि बढ़ाने कच्चे मकानों को पक्का बता दिया गया, जिस गांव में नदी क्या? नाला भी न गुजरता हो, उस गांव की खेती जमीन को दो फसली बता दिया गया. साल भर पहले राजस्व महकमे की जांच रिपोर्ट ने जब इन गड़बड़ियों को उगला, तब जाकर मामला सुर्खियों में आया. यह जांच रिपोर्ट करीब साल भर पड़ी रही. अब जाकर रायगढ़ कलेक्टर ने एसडीएम समेत 7 अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ एफआईआर का आदेश दिया है. एक वरिष्ठ आईएएस अफसर कहते हैं कि इस घोटाले की रचना सिर्फ एसडीएम और उसके मातहत कर्मचारियों के बस की बात नहीं है? आला अफसरों की भूमिका भी संदिग्ध हो जाती है. भारतमाला प्रोजेक्ट की गड़बड़ी में भी एसडीएम, निचले अधिकारी-कर्मचारी और भू माफिया का शिकार कर दिया गया. मगर जब मुआवजा गड़बड़ी का पूरा अध्याय लिखा जा रहा था, तब इसकी प्रस्तावना लिखने वाले अफसरों की भूमिका जांच के दायरे के बाहर कर दी गई? लगता है, इस तैरते सवाल को कोई किनारा देना नहीं चाहता है. सरकार अगर भू अधिग्रहण का इतिहास खंगालना शुरू करे, तो निश्चित है कि एक सुनियोजित, संगठित आर्थिक अपराध की गहरी जड़े मिलेंगी. बहरहाल, दूसरे राज्यों में अब यह चर्चा होती है कि छत्तीसगढ़ घपले-घोटालों का नॉलेज हब है. पूर्ववर्ती सरकार में जिस तरह से झारखंड ने शराब घोटाले की तकनीक छत्तीसगढ़ से आयात की थी, उसी तरह उम्मीद है कि मुआवजा घोटाला माडल भी कोई दूसरा राज्य पायलट प्रोजेक्ट की तरह जल्द ही आयात कर लेगा. भ्रष्टाचार का यह एक बेहतरीन सस्टेनेबल मॉडल है.
समरसता खत्म
राजधानी के सूदखोर तोमर बंधुओं पर पुलिस ने नकेल कस दी है. तोमर बंधु भागे-भागे फिर रहे हैं. जेल की सलाखें तय है. तोमर बंधुओं के सूदखोरी के धंधे ने न जाने कितने परिवार लील लिए होंगे. न जाने कितनों ने आत्महत्या कर ली होगी. न जाने कितने होंगे, जिन्होंने अपना सब कुछ लुटा दिया होगा. तोमर बंधुओं ने ऐसा ब्याज लिया कि लोगों की जिंदगी ही मूलधन बन गई. तोमर बंधुओं की राजनीतिक गलियारे में अच्छी खासी घुसपैठ थी, पुलिस वाले गलबहियां करते थे. नेताओं को तब तोमर बंधुओं में राजनीतिक स्वार्थ दिख रहा था और पुलिस को हिस्सेदारी. तोमर बंधु उनके लिए अपराधी नहीं थे. पार्टनर थे. कहते हैं कि नेता उन्हें संरक्षण देते थे और चुनाव में सहयोग लेते थे. पुलिस से बचने तोमर बंधु की फिक्स ईएमआई चलती थी. यह एक समरसता से संचालित एक सुव्यवस्थित अपराध प्रणाली थी, जहां अपराध स्वीकृत था और अपराधी सम्मानित था. मगर अबकी बार न तो कोई राजनीतिक आका संबंधों को निभाने आगे आ रहा है न ही पुलिस सेट हो रही है. किसी गुमशुदा की तलाश में बांटे जाने वाले पर्चे की तरह पुलिस अब कह रही है कि तोमर बंधुओं कब तक भागोगे. पलक पावड़े बिछाकर यहां हम इंतजार कर रहे हैं. आ जाओ. कार्रवाई के अलावा हम कुछ नहीं करेंगे. डंडा तो बिल्कुल नहीं मारेंगे. हां, अगर देरी हुई, तो बात अलग है. गुस्सा निकालने दो-चार डंडा जरूर सोट देंगे. हम तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.
दिल दिल्ली मांग रहा है…
अफसरों की दिल्ली दौड़ बढ़ गई है. बीते डेढ़ साल में आधा दर्जन से ज्यादा आईएएस अफसर दिल्ली दौड़ लगा चुके हैं. कुछ दौड़ने की तैयारी में है. आर प्रसन्ना, अय्याज तंबोली, नम्रता गांधी, ऋचा प्रकाश चौधरी, पी अनबलगन, अलरमेल मंगई डी और सौरभ कुमार सेंट्रल डेपुटेशन पर जा चुके हैं. सेंट्रल डेपुटेशन की कतार में अंकित आनंद भी हैं. बस सेंट्रल से पोस्टिंग का इंतजार है. अंकित आनंद की आईएफएस पत्नी सतोविशा समाजदार भी सेंट्रल डेपुटेशन पर जाने वालों की कतार में हैं. आईपीएस कैडर में भी कई अफसर हैं, जो दिल्ली की दौड़ लगा चुके हैं. डी श्रवण, मयंक श्रीवास्तव इसमें शामिल हैं. कई कतार में हैं, जो आने वाले दिनों में दौड़ लगाएंगे. कुछ ने अर्जी दे रखी है. सूबे में नई सरकार के आने के बाद सेंट्रल डेपुटेशन खत्म कर अपने मूल कैडर में लौटने वाले अफसरों की भरमार थी. अब मूल कैडर से सेंट्रल डेपुटेशन पर जाने वालों की भीड़ बढ़ गई है. सर्विस पीरियड में कम से कम एक बार सेंट्रल डेपुटेशन कर आना चाहिए. सेंट्रल में होने वाले प्रमोशन में अड़चन नहीं आती. सेंट्रल डेपुटेशन पर जाने का एक कारण यह भी ढूंढा जाता है कि अफसर का दिल उसके मूल कैडर में नहीं लग रहा. इसकी वजह कई तरह की हो सकती है. फिलहाल तो राज्य की ब्यूरोक्रेसी से एक आवाज सुनी जा रही है कि उनका दिल दिल्ली मांग रहा है.
SP (to be confirmed)
हाल ही में 2021 बैच के आईपीएस अफसरों को एडिशनल एसपी प्रमोट कर दिया गया. प्रमोशन के बाद 2021 बैच को बस्तर में तैनाती दी गई. जाहिर है बस्तर की तैनाती एक तरह की चुनौती है, लेकिन नाम कमाने का मौका भी है. नक्सलवाद के खिलाफ अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई बस्तर की जमीन पर लड़ी जा रही है. केंद्र और राज्य सरकार ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद के खात्मे का ऐलान किया है. 2021 बैच के आईपीएस अफसरों को इस लड़ाई का हिस्सा बनाया गया है. बस्तर की पोस्टिंग देखकर जब कुछ आईपीएस ने यह कहा कि यह प्रमोशन पोस्टिंग है या परीक्षा? तब आला अधिकारियों ने कहा कि बस्तर में तैनाती का मतलब सीधे ग्राउंड जीरो पर देश सेवा का प्रमाण पत्र है. जंगल की खामोशी में गूंजती गोलियों को सुनने का अनुभव उठा लो. यह अनुभव हमेशा काम आएगा, फिर बात समझ में आ गई और शक और सवालों के घेरे में रहने वाले अफसर भी बोरिया बिस्तर उठाकर बस्तर रवाना हो गए. अब चर्चा है कि 2020 बैच के आईपीएस अफसरों को जिलों में एसपी और बटालियन कमांडेंट के रूप में तैनाती दिए जाने की तैयारी चल रही है. इस तैनाती के साथ ही 2020 बैच के कुछ अफसर एसपी बन जाएंगे और कुछ कमांडेंट. संकेत हैं कि सरकार कुछ जिलों के एसपी को फील्ड से बुलाकर बाबूगिरी में लगा सकती है और बेहतर परफॉर्म कर रहे कुछ अफसरों को ठीक ठाक जिला दे सकती है. बचे हुए जिलों में ही 2020 बैच के आईपीएस एडजस्ट किए जाएंगे. फिलहाल उन अफसरों के आपस के व्हाट्स एप चैट में होने वाली बातचीत में नामों को लिखकर एक-दूसरे को मैसेज भेजा जाता है, जिस पर लिखा होता है, SP (to be confirmed)