मुख्यमंत्री का थोड़ा कहा भी वजनदार होता है…

ललचाए मन की कोई सीमा नहीं थी. जमीन के लफड़े की गूंज होनी ही थी. रायपुर पुलिस के कुछ अफसरों ने पुलिसिंग छोड़ भू माफियाओं के साथ संगति जमा ली थी. भू माफिया जमीन के विवादित मामले थाने लेकर आते और थाने से ही पूरे मामले का निपटारा कर दिया जाता. एक तरीके का पार्टनरशिप पैटर्न शुरू हो गया था. यह सब मालूम पड़ने पर सूबे के मुखिया ने नजरें टेढ़ी की है. इस नसीहत के साथ कि जमीन के लफड़े में नहीं, लॉ एंड ऑर्डर पर ध्यान रहे तो बेहतर है. समझा जा रहा है यह एक तरह का संकेत है. ये बताने के लिए कि नजर में सब है. शिकायत आई तो सख्ती भी होगी. दरअसल पिछले दिनों राज्य पुलिस सेवा के अफसरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री से मुलाकात कर महंगाई भत्ता, कीट भत्ता समेत अन्य सुविधाओं में हुए इजाफे के लिए धन्यवाद दिया था. इस दौरान राज्य पुलिस सेवा के अफसरों ने कुछ मांगें भी रखी. मसलन राज्य प्रशासनिक सेवा के अफसरों की तर्ज पर उन्हें भी जमीन आबंटित की जाए. मुख्यमंत्री ने भी मांग पत्र में दस्तखत कर प्रशासनिक महकमे के अफसरों को भेज दिया. सब कुछ अच्छा चल रहा था कि अचानक जाते-जाते सधे हुए शब्दों में उन्होंने नसीहत दे दी ‘ जमीन के लफड़े में नहीं, लाॅ एंड आर्डर पर ध्यान दें’. ये बात और है कि उस वक्त ज्यादातर लोग समझ नहीं पाए कि असल मसला आखिर है क्या? अफसर यही समझते रहे कि जमीन आवंटित करने की उनकी मांग पर यह जवाब उनके हिस्से आया है. मगर असली कहानी कुछ और ही थी. खैर, जिन्हें समझना है, वक्त रहते समझ जाए तो ही अच्छा. उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुख्यमंत्री का थोड़ा कहा भी वजनदार होता है.

तन गया ‘टेंट वाला’

पिछली सरकार में टेंट लगाने वाले एक शख्स की तरक्की देख कईयों की आंखें सूख गई. सुनते हैं कि कुछ कलेक्टरों की मेहरबानी से टेंट वाले ने बीते चार साल में करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए का ठेका हासिल कर लिया. स्कूलों में स्मार्ट क्लास बनाने का काम एक जिले से शुरू होकर धीरे-धीरे कई जिलों तक पहुंच गया. कहा जा रहा है कि इसकी शुरुआत पिछली सरकार में सीएम हाउस में तैनात रहे एक ज्वाइंट सेक्रेटरी स्तर के अधिकारी की पैरवी से हुई. इस पैरवी ने टेंट लगाने वाले इस शख्स को डीएमएफ मद से स्कूलों में स्मार्ट क्लास बनाने का काम दिलाया. एक स्मार्ट क्लास की लागत करीब साढ़े चार लाख रुपए वसूली गई, जिसमें एक कंप्यूटर, एक स्मार्ट बोर्ड, कुछ चेयर्स रखे गए और दीवारों का रंग-रोगन कर दिया गया. सब मिलाकर बमुश्किल 35-40 हजार रुपए का खर्चा. मगर वसूला गया करीब साढ़े चार लाख रुपए प्रति स्मार्ट क्लास. एक जिले में एक स्कूल तो था नहीं. सैकड़ों स्कूल थे. तो लगा लीजिए हिसाब. टेंट वाला दिमाग चल निकला. जिस तरह से ज्वाइंट सेक्रेटरी रहे अफसर की पैरवी ने काम दिलाया था. उसी पैटर्न पर कलेक्टरों की पैरवी काम करने लगी. सुनते हैं कि एक कलेक्टर की दूसरे कलेक्टरों को पैरवी जाने लगी. यही क्रम बनता गया. काम आने लगा. अब स्मार्ट क्लास ने स्कूली बच्चों को स्मार्ट किया या नहीं. इसका कोई अता-पता नहीं. मगर स्मार्ट क्लास बनाने-बनाते टेंट वाला खुद खूब तन गया. सुनते हैं कि कभी ये शख्स राजनांदगांव की सड़कों पर सट्टा पट्टी लिखा करता था.

लाचार अफसर

बात थोड़ी पुरानी हो गई, मगर मौजूं है. रूप लोभी मंत्री के किस्सों की बगिया में फूल खिलने का सिलसिला थम नहीं रहा. बात विधानसभा के मानसून सत्र के वक्त की है. अनुपूरक बजट को लेकर बैठक चल रही थी. यह विशुद्ध सरकारी बैठक थी. बजट प्रस्ताव तैयार होना था. मंत्री-अफसरों की इस बैठक में किसी बाहरी का कोई काम ना था, फिर भी मंत्री की चाहत उस शख्सियत को भीतर खींच लाई, जिसने मंत्री का ग्राफ डाउन कर रखा है. अफसर भी भौंचक थे, मगर असहाय थे. मंत्री की खिदमत में गुस्ताखी हो जाती, अगर विरोध किया होता. लाचार अफसर जब बैठक खत्म कर निकले, तब उनकी चर्चा फाइलों से निकलकर मंत्री की करतूतों पर जा सिमटी. एक अफसर ने कहा- अगर विभाग का कोई गैर जरूरी बाबू भी बैठक में होता, तब भी कोई बात नहीं होती. मंत्री ने तो सप्लायर को ही बिठा दिया. मंत्री को सभी कोस रहे थे. एक अफसर ने चुटकी लेते हुए कहा- प्रेम में पड़ा व्यक्ति समझने बुझने का फर्क खो देता है. अफसरों को यही हाल मंत्री का दिख रहा था. सरकार में शामिल रहे एक मंत्री का पत्ता इसलिए ही कट गया कि सरकारी बैठकों में वह एक बाहरी शख्स को बिठाकर अपना ‘वैभव’ ढूंढा करते थे. आलाकमान तक शिकायत गई. नतीजतन कुर्सी से हाथ धोना पड़ा.

आत्महत्या की धमकी

एक जिले में सहकारिता विभाग में आर्थिक गड़बड़ी का एक मामला फूटा. बारदाने से लेकर किसान क्रेडिट कार्ड तक में बड़ा घालमेल सामने आया. विभाग के एक आला अधिकारी ने जांच की और गड़बड़ी में लिप्त दोषियों के खिलाफ निलंबन की कार्रवाई कर दी. एफआईआर की अनुशंसा भी कर दी. आला अधिकारी ने जब एक दोषी कर्मचारी से संबंधित मामले के दस्तावेज मांगें, तब कर्मचारी ने गोलमोल जवाब दिया. बाद में दबाव पड़ता देख संबंधित अधिकारी को व्हाट्सएप पर मैसेज भेज आत्महत्या की अनुमति मांग ली. कर्मचारी ने अपने मैसेज में लिखा कि वह जांच से परेशान है. जब कर्मचारी की यह पैतरेबाजी काम ना आई, तब जांच करने वाले अधिकारी के खिलाफ सोशल मीडिया में अभियान छेड़ दिया. अधिकारी के खिलाफ रिश्वत मांगे जाने का आरोप तक लगा दिया. कलेक्टर सब जानते थे, सो अधिकारी पर गाज नहीं गिरी. कर्मचारी अब राहत की फरियाद लिए दर-दर भटक रहा है. यकीनन मामला बेहद छोटा है, पर तरीका बड़ा है. भ्रष्टाचार करो- फल में निलंबन मिले, तब आत्महत्या की धमकी दे डालो…

बीजेपी के हुए ‘धर्मजीत’

लोरमी विधायक धर्मजीत सिंह आखिरकार बीजेपी के हो गए. चर्चा है कि धर्मजीत सिंह बीजेपी की टिकट पर लोरमी या पंडरिया सीट से चुनाव लड़ेंगे. पंडरिया उनका पैतृक निवास है. धर्मजीत अगर पंडरिया से चुनाव लड़ते हैं, तब ऐसी स्थिति में बीजेपी किसी साहू चेहरे को लोरमी का उम्मीदवार बनाएगी. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव के नाम की चर्चा तेज है कि वह लोरमी से चुनाव लड़ सकते हैं. ऐसी स्थिति में बीजेपी इन दोनों सीटों को साध सकती है. लोरमी के अंदरुनी इलाकों में धर्मजीत सिंह की अच्छी पैठ है. वह अपने इस वोट बैंक को बीजेपी में शिफ्ट कराने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. धर्मजीत सिंह को बीजेपी में लाने के पीछे पूर्व मुख्यमंत्री डाॅक्टर रमन सिंह की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. धर्मजीत सिंह का बीजेपी आना तय था, लेकिन किन्हीं कारणों से यह टलता रहा. पिछले दिनों रमन दिल्ली में थे. रमन रायपुर लौटे, इससे पहले धर्मजीत सिंह के बीजेपी प्रवेश की खबर सुर्खियां बन गई. धर्मजीत खुद डाॅक्टर रमन सिंह को लेने एयरपोर्ट पहुंचे. माना जा रहा है कि रमन ने दिल्ली में धर्मजीत सिंह के बीजेपी प्रवेश के रास्ते में आ रही अड़चनों को दूर किया होगा. बहरहाल धर्मजीत सिंह के बीजेपी में शामिल होने से बीजेपी संगठन में भारी उथल पुथल के हालात बन गए हैं. बिलासपुर में बीजेपी की राजनीति अब तक अमर अग्रवाल और धरमलाल कौशिक सरीखे दिग्गज नेताओं के इर्द गिर्द सिमटी थी. प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद तीसरा नाम अरुण साव का जुड़ा था. अब धर्मजीत सिंह जैसे बड़े कद के नेता की आमद हुई है. जाहिर है कि वह किसी स्थापित नेता की छत्रछाया में होंगे नहीं. वह रमन गुट का हिस्सा बनेंगे. एक समीकरण यह भी बनता दिखता है कि बीजेपी लोकसभा चुनाव के लिए बिलासपुर से किसी नए चेहरे की खोज करेगी, तब धर्मजीत भी एक विकल्प के तौर पर खड़े दिखेंगे. स्थानीय नेताओं को यही बात रास आती नहीं दिखती.

खरगे का दौरा

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का छत्तीसगढ़ दौरा महज एक सामान्य दौरा नहीं है. खरगे का जांजगीर चांपा आने का मतलब दलित वोट बैंक को साधना है. खरगे दलित समुदाय से आने वाले एक बड़े नेता है. अनुसूचित जाति वर्ग के लिए राज्य में दस सीटें आरक्षित हैं. 2013 के चुनाव में बीजेपी ने दस में से नौ सीटों पर जीत दर्ज की थी. 2018 में पासा पलटा और कांग्रेस ने दस में से सात सीटों पर जीत दर्ज की. कांग्रेस यथास्थिति बनाने की तैयारी में है. कांग्रेस को लग रहा है कि बीजेपी 2013 जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश कर सकती है. बीजेपी ने तब सतनाम समाज के धर्मगुरु बालदास का सियासी फायदा उठाया था. बीस सीटों पर उम्मीदवार खड़े करवा दिए गए थे. प्रचार के लिए हेलीकाॅप्टर दिया था. गैर बीजेपी वोट माने जाने के बावजूद दस में से नौ सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी. आगामी विधानसभा चुनाव करो-मरो के नारे पर लड़ा जाएगा. साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाई जाएगी. सियासत के प्रचलित पैमाने ध्वस्त होते दिखेंगे. जाहिर है समय रहते कांग्रेस जातिगत दृष्टि से भी अपनी सियासी जमीन मजबूत करना चाहती है. राज्य में अनुसूचित जाति वर्ग की दस सीटें जरूर हैं. मगर इस वर्ग का प्रभाव करीब-करीब चालीस सीटों पर है. खरगे के जरिए कांग्रेस इन चालीस सीटों पर अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश करेगी. इधर बहुजन समाज पार्टी ने अपने नौ उम्मीदवार पहले ही मैदान में उतार दिए हैं, जिनमें से दो मौजूदा विधायक हैं. अनुसूचित जाति की बहुलता वाली सीटों पर बहुजन समाज पार्टी का वोट प्रतिशत बेहतर रहा है.

सिर फुटव्वल

चुनाव करीब हो और कांग्रेस में सिर फुटव्वल के हालात ना बने, ये कैसे हो सकता है. एक संकल्प शिविर में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में दो गुटों की भिड़ंत हो गई. हुआ कुछ यूं कि मुख्यमंत्री जैसे ही आडिटोरियम पहुंचे. विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे एक नेता के समर्थकों ने अपने नेता के नाम का नारा लगाना शुरू कर दिया. मुख्यमंत्री ने टोका भी, लेकिन जैसे ही वह आगे बढ़े, दोबारा नारेबाजी शुरू हो गई. नारेबाजी करने वाला गुट स्थानीय विधायक का प्रतिद्वंदी गुट था, सो विधायक भी तमतमा गए. एक समर्थक को जमकर चमकाया. जाहिर सी बात थी कि मुख्यमंत्री के टोकने के बाद भी कार्यकर्ताओं पर कोई असर नहीं हुआ था. सो विधायक फट पड़े. खैर, ये तस्वीर किसी एक संकल्प शिविर तक सिमटी हो ऐसा नहीं है. दूसरी विधानसभाओं में आयोजित संकल्प शिविरों में भी अमूमन ऐसे ही हालात है. संकल्प शिविर का उद्देश्य बूथ संगठन के पदाधिकारियों को चुनाव के लिए तैयार करना है, लेकिन इन शिविरों में दावेदारी करने वाले नेता अपने समर्थकों की भीड़ में अपने पक्ष में नारे बुलंद करा रहे हैं. हाथों में अपने नेता की तख्तियां लेकर समर्थकों की भीड़ शिविर में शामिल हो रही है. शक्ति प्रदर्शन के चक्कर में कहीं नेताओं को लेने के देने ना पड़ जाए.

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