Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

भ्रष्टाचार का अनुभव

हाल ही में एक पूर्व मंत्री ने एक मौजूदा मंत्री को अपने अनुभव का निचोड़ सुनाया। वह बोले, “जितना खा सको, उतना ही खाओ, नहीं तो हज़म नहीं कर पाओगे, और फंस जाओगे”। मंत्री, पूरी दिलचस्पी से पूर्व मंत्री की बात सुन रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि यदि एक भ्रष्टाचार विशेषज्ञ सलाह दे रहा है, तो इसे सुन लेना चाहिए। शायद भ्रष्टाचार के उनके अनुभवों से कुछ सीख मिल जाए। मंत्री चुपचाप सुनने लगे। पूर्व मंत्री ने कहा, पिछली सरकार में मेरे मंत्री बनते ही, पैसों की बारिश होने लगी थी। खूब पैसा बरस रहा था। इतना पैसा मैंने कभी नहीं देखा था। मेरी लालच की गहराई बढ़ गई थी। पैसा रखने की जगह नहीं थी। जब जांच एजेंसियों के छापे शुरू हुए, तब मैंने एक सेठ के पास सारा पैसा रखवा दिया। सरकार बदली। सेठ बदल गया। पहले मिलना- जुलना कम हुआ और फिर बाद में उसने फोन उठाना बंद कर दिया। मैंने जब उस पर दबाव बनाया, तब उसने भाजपाई दोस्तों को आगे कर दिया। अब ज्यादा सख्ती बरतने पर मुझे मेरी बची हुई प्रतिष्ठा के छीछालेदर हो जाने का डर है। सेठ ढीठ आदमी है। मेरी राजनीति तो अब भी बाकी है। मुझे ही कहीं लेने के देने न पड़ जाए। इसलिए अपने अनुभव से कह रहा हूं। तुम उतना ही कमाना, जितना कि खुद की क्षमता से पचा सको। भ्रष्टाचार का अनुभव सुनाते हुए पूर्व मंत्री के पास अफसोस था। वे दुखी थे कि उनका पैसा चला गया। पूर्व मंत्री का अनुभव सुनने के बाद मौजूदा सरकार के मंत्री ने एक गहरी सांस ली और खामोश बैठ गए। अचानक पूर्व मंत्री को इस बात का बोध हुआ कि वह आखिर समझा किसे रहे हैं, जो खुद एक सेठ है। वह झटपट बोल पड़े, ”अरे तू तो ठहरा व्यापारी आदमी। तेरे पचाने की क्षमता मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर है”। दोनों ने खूब ठहाका लगाया। मंत्री जी उस इलाके से आते हैं, जहां का प्रतिनिधित्व सूबे की सरकार में सबसे ज्यादा है।

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भ्रष्टाचार के तीन तरीके

भ्रष्टाचार के तीन तरीके चर्चित हैं। पहला नजराना, दूसरा शुकराना और तीसरा जबराना। ‘नजराना’ सबसे शालीन तरीका है। यह तरीका सदियों से लोकप्रिय रहा है। आधुनिक भाषा में इसे प्रोसेस ऑफ स्मूद वर्किंग कहते हैं। इस तरीके में फंसने की गुंजाइश नहीं होती। रिश्वत देने वाले और रिश्वत लेने वाले के बीच की कड़ी में कोई तीसरी कड़ी नहीं जुड़ती। इस तरीके पर यकीन करने वालों का मानना है कि तनख्वाह की रकम बैंक खाते में जमा होती रहे और रोजमर्रा का खर्च ‘नजराना’ से चलता रहे। अब यह प्रचलित तरीका विलुप्ति की कगार पर है। दूसरा तरीका है, ‘शुकराना’। दरअसल यह कृतज्ञता प्रकट करने की परंपरा है। आधुनिक भाषा में इसे सेवा शुल्क कहते हैं।इसमें सरकारी सिस्टम में ऊपर से नीचे तक की कई कड़ियां जुड़ जाती हैं। सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला तरीका यही है। मगर इस तरीके में फंसने की गुंजाइश थोड़ी बढ़ जाती है। रही बात ‘जबराना’ की। इस तरीके में डंके की चोट पर भ्रष्टाचार किया जाता है। फिर चाहे जनहित के फैसले ही क्यों न आड़े आ जाए? इस तरीके पर चलने वाले साहस से भरे होते हैं। जांच एजेंसियों के छापे और उनकी कार्रवाई बताती है कि पूर्ववर्ती सरकार इस तरीके पर ही चल रही थी। मौजूदा सरकार के कई मंत्री इस तरीके को अब भी मान्यता देते हैं। पूर्व मंत्री से भ्रष्टाचार का अनुभव लेने वाले मंत्री जी इस तरीके पर ही यकीन करते हैं। वैसे मुद्दे की बात यह है कि ‘जबराना’ में एक्सपोज होना तय रहता है। मंत्री जी समय रहते अगर चेत जाएं, तो उनके लिए ही बेहतर है। वह इस गलतफहमी में न रहें कि डबल इंजन की सरकार में वह एजेंसियों की निगरानी से बाहर हैं। दिल्ली की नजर सब पर है।

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वर्गफीट

रूलिंग पार्टी के एक विधायक हैं, जिन्होंने अपनी कमाई की एक नई तरकीब ढूंढी है। पूर्व प्रचलित परंपराओं से परे विधायक ने विवादित और अवैध जमीन को वैध करने की जिम्मेदारी उठाई है, और इसके बदले में उन्होंने भू-माफियाओं के कारोबार में अघोषित भागीदारी हासिल कर ली है। विधायक की हिस्सेदारी प्रति वर्ग फीट की दर पर तय है। कभी 15 फीसदी, तो कभी 20 फीसदी। जमीन के दस्तावेजों में अगर कुछ गड़बड़ी निकली, तो उनकी हिस्सेदारी बढ़कर 25 फीसदी तक पहुंच जाती है। सत्ता की छतरी उनके पास है। सत्ता का तमगा टांगे घूम रहे विधायक को रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। विधायक को लगता है कि जनता ने उन्हें जिता दिया है, तो उनकी जमीन, जमीर, जिंदगी सब कुछ उनके नाम पर चढ़ गई है। अब ऐसे विधायक हमारे जनप्रतिनिधि हैं या जनविरोधी आप ही तय करिए।

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सम्मान नहीं ‘सामान’

शिक्षक दिवस पर राजभवन में सम्मान समारोह का आयोजन हुआ। शिक्षक आए थे, पूरे गर्व के साथ। मगर जाते-जाते सम्मान की जगह सामान ले गए। खुद से यह सवाल पूछते हुए कि जो मिला, आखिर वह क्या था? इस कथित सम्मान समारोह के दौरान राजभवन मंच बना था। मंच पर हैसियत-दार थे। शिक्षक भी थे। मगर इस आयोजन में ‘अर्थ’ नहीं था। मंच पर बुलाए जाने से पहले ही शिक्षकों को सम्मान का सामान दे दिया गया, और जब मंच पर बुलाया गया, तब हैसियत-दारों ने हाथ तक नहीं मिलाया। हाथ में सामान था। भला हाथ कैसे मिलाते? शिक्षकों की पीठ नहीं थपथपाई। दरअसल मंच पर शिक्षक नहीं, भीड़ गई थी। सम्मान समारोह के पहले शिक्षकों पर कई शर्तें लादी गई थी। शिक्षकों की ज्ञान की गरिमा कपड़ों से आंकी गई। ड्रेस कोड लागू किया गया। राजभवन के शानदार मंच और चमकदार चेहरों के बीच शिक्षकों का सम्मान वहीं कहीं किनारे छूट गया। किसी अनसुनी तालियों के बीच। बहरहाल शिक्षक दिवस पर सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों का सम्मान किए जाने की परंपरा पुरानी है। इस दफे राजभवन में यह परंपरा बस ढोई जा रही थी। निभाई नहीं गई।

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डिस्ट्रिक्ट मनी फैक्टरी

ज़मीन के नीचे दबे खनिज को निकाले जाने से उत्पन्न होने वाले प्रभाव को विकास के रास्ते दूर किए जाने के इरादे से डीएमएफ लाया गया था। मगर अफसरों के जमीर के नीचे दबे लालच ने इसका भरपूर दोहन किया। विकास की खुदाई में भ्रष्टाचार नाम का खनिज निकला। एक पूर्व आईएएस डीएमएफ को लेकर कहते हैं यह फाउंडेशन फॉर फाइनेंशियल फ्राड एंड फंड डायवर्जन हैं। कलेक्टरों ने डीएमएफ को अपना पाकेट मनी मानकर मनमाना खर्च किया। काम उसे दिया जिसने 50 फीसदी कमीशन टेबल पर पहले रखा। कई बार सवाल उठे। जांच भी हुई। मगर जांच की आंच से ज्यादातर कलेक्टर-पूर्व कलेक्टर बाहर ही रहे। अभी पिछले दिनों ईडी ने डीएमएफ घोटाले में 18 ठिकानों पर छापा मारा है। कुछ करोड़ रुपए और कुछ दस्तावेज बरामद किए हैं। मालूम नहीं कि जांच का यह दायरा उन पूर्व कलेक्टरों के बंगलों के करीब से भी गुजरेगा या नहीं, जिन्होंने घोटाले का ब्लूप्रिंट तैयार किया था। गुजर जाए, तो अच्छी बात होगी। गरीब, आदिवासियों के हिस्से के विकास से उन लोगों ने खुद का भरपूर विकास किया है। डीएमएफ की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं कि पैसा लूटा गया, बल्कि यह है कि उस लूट को विकास कहा गया। फिलहाल डीएमएफ की गड़बड़ी के खुलासे में उकेरी गई अब तक की तस्वीर बहुत बारीक है। इसे सतही तौर पर देखने में अभी वक्त लगेगा। खैर, जाते-जाते डीएमएफ का असल मतलब समझते जाइए। इसका मतलब होता है, डिस्ट्रिक्ट मनी फैक्टरी, जहां अफसर पैसों का उत्पादन करते हैं।

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सुगबुगाहट

प्रशासनिक चाल कह रही है कि सूबे में जल्द ही एक बड़ा फेरबदल होगा। कई जिलों के कलेक्टर और एसपी बदले जाएंगे। इस दफे सरकार परफॉर्मेंस पर जोर दे रही है। आड़ा-तिरछा काम करने वाले कलेक्टर-एसपी सरकार की रडार में आ गए हैं। इधर-उधर से जोर आजमाइश कर अपनी-अपनी कुर्सियों से चिपके बैठे अधिकारियों पर सरकार कोई मुरव्वत नहीं बरतेगी। कम से कम अब तक की बातचीत में तो ऐसी स्थिति दिख ही रही है। मंत्रालय में मुख्य सचिव का मसला इस महीने के अंत तक खत्म करना है। उनके कार्यकाल का विस्तार होगा या नहीं? इसे लेकर अब तक कोई चर्चा नहीं। मगर हालात पहले की तरह ही बनते दिख रहे हैं। ऐन वक्त पर फैसला हुआ, तो मानकर चलिए कि मौजूदा मुख्य सचिव को कुछ और वक्त मिल जाएगा। बदलाव की आहट हुई, तो यह कई कुर्सियों को आपस में बदलने की गुंजाइश साथ लेकर आएगी। फिलहाल इंतजार कीजिए।