
गज केसरी योग
ज्योतिष विज्ञान कहता है कि यदि किसी व्यक्ति को सम्मान, विद्या, पद, प्रभाव और समझदारी मिलती है, तो ऐसे व्यक्ति की जन्मपत्री में गज केसरी योग बना होता है. मुख्य सचिव अमिताभ जैन के संदर्भ में ज्योतिष की समझ रखने वाले कुछ ऐसा ही तर्क दे सकते हैं. मुख्य सचिव की कुर्सी पर बैठने के बाद अमिताभ जैन ने कई कीर्तिमान स्थापित किए हैं. वह राज्य में सर्वाधिक समय तक मुख्य सचिव रहे, सरकार बदलने के बाद भी मुख्य सचिव की उनकी कुर्सी बची रह गई और अब सेवानिवृत्त होते-होते उन्हें तीन महीने की सेवावृद्धि मिल गई. लगता है कि न भूतो- न भविष्यति की संज्ञा अमिताभ जैन जैसे चुनिंदा लोगों के लिए ही रची गई होगी. सामान्यत: यह धारणा रही है कि मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुँचने के लिए अफसरों को राजनीतिक अनुकूलता, सद्भावना और कभी-कभी पूर्ण समर्पण का भाव दिखाना होता है. मगर अमिताभ जैन का प्रशासनिक ग्राफ इस थ्योरी से थोड़ा बाहर आता दिखता है. न चापलूसी का कोई ठोस प्रमाण है, न नजदीकियों की कोई चर्चा है. तब फिर ऐसा क्या था, जो उनकी कुर्सी बची रह गई? यही यक्ष प्रश्न जस का तस खड़ा हुआ है, जिसका जवाब हर कोई अपने-अपने तरीके से ढूंढ रहा है. प्रशासनिक गलियारों की कानाफूसी कहती है कि प्रशासन तंत्र, राजतंत्र से कुछ तालीम लेकर गुणा-भाग में जुटा रहा, जिसकी परिणीति यह सेवा विस्तार है. खैर, हकीकत जो भी हो. मुद्दे की बात यह है कि अगर अमिताभ जैन अपने इन कीर्तिमानों को इत्तेफाक मान रहे हो, तो उन्हें अपनी जन्मपत्री किसी ज्योतिषी को दिखानी चाहिए. मुमकिन है कि ज्योतिषी से उन्हें यह मालूम चलेगा कि उनकी जन्मपत्री में गज केसरी योग है. इस योग में चंद्रमा और बृहस्पति एक-दूसरे के केंद्र में होते हैं. यानी 1,4, 7 या 10 वें भाव में इन ग्रहों की मौजूदगी होती है. एक चर्चा में एक सीनियर आईएएस ने इस पर व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी करते हुए कहा कि शायद भविष्य के प्रशासनिक पाठ्यक्रमों में अमिताभ जैन की जन्मपत्री पढ़ाई जाएगी, जिसमें अमिताभ जैन एक केस स्टडी होंगे. इस पाठ्यक्रम में यह पढ़ाया जाएगा कि शीर्ष पदों पर ग्रहों की भूमिका का क्या असर होता है? तब प्रशासनिक सेवा में आने वाले अफसर अपनी योग्यता के साथ-साथ अपना ग्रह-नक्षत्र भी देखेंगे. वैसे मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचने के बाद भी जिन अफसरों को मायूसी मिली, उनकी जन्मपत्री में ग्रहों के गोचर में विरोध हो सकता है. ज्योतिष विज्ञान कहता है कि कभी-कभी जन्मपत्री में सब कुछ अनुकूल होने के बावजूद ग्रहों का गोचर अनुकूल नहीं होता. शनि या राहु/केतु का गोचर कर्म भाव या चंद्र के निकट होने से अंतिम समय में यह विघ्न ले आता है. मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुँच चुके अफसर के साथ यही हुआ होगा.
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एजेंट
देश के एक बड़े संत सीबीआई के लपेटे में आ गए हैं. सीबीआई को मेडिकल कॉलेज रिश्वत कांड में संत की सीधी भागीदारी मिली है. कई नेता-मंत्री, अधिकारी और कारोबारी संत के शिष्य हैं. पहले इन शिष्यों की कमर और कलम दोनों झुकती थी, अब ये सब अपने बगले झांक रहे हैं. कुछ अधिकारी नुमा शिष्यों को भी संत के साथ-साथ सीबीआई ने एफआईआर का प्रसाद दे दिया है. कई नेताओं और कई अधिकारियों के बीच सन्नाटा पसर गया है. संकेत है कि सीबीआई की जद में कई और आ सकते हैं. संत का प्रवचन अब बदल गया है, मंच बदल गया है और संत के आगे-पीछे रहने वाले भक्तों की जगह सीबीआई ने ले ली है. एफआईआर में दर्ज धाराओं 7, 8, 9,10,12 और 61(2) के श्लोक गूंज रहे हैं. सीबीआई की एफआईआर में जब संत का नाम चढ़ा, तो कई कहानियां किस्सों के रूप में किस्तों में बाहर आने लगी. कहते हैं कि 90 के दशक में संत का प्रकट होना किसी धार्मिक चेतना का विस्फोट भर नहीं था, बल्कि रणनीतिक बैठकों का फल था. कुछ अधिकारियों ने संत में अपना भविष्य देखा, कुछ कारोबारियों ने अवसर देखा और कुछ नेताओं ने धर्म की आड़ में सियासत की उपजाऊ जमीन देखी. अधिकारी, कारोबारी और नेताओं ने मिलकर एक संत का निर्माण किया. संत आए. ट्रस्ट बना. नाम रखा गया-लोक कल्याण ट्रस्ट. न जाने लोक कल्याण हुआ या नहीं? मगर ट्रस्ट से जुड़े लोगों ने खुद का खूब कल्याण किया. संत के आश्रम में साधना की जगह संपत्ति, प्रवचन की जगह प्रोजेक्ट और आशीर्वाद की जगह अप्रूवल बंटने लगे. सीबीआई ने खुलासा किया, तो मालूम पड़ा कि मेडिकल कालेज को मान्यता देने की प्रक्रिया में न तो आध्यात्मिक ज्ञान था, न ही नैतिकता थी. अगर कहीं कुछ थी तो बस ‘रिश्वत’ की कड़ियां थी, जिसने अब हथकड़ी लगने के हालात पैदा कर दिए हैं. एक बड़े आध्यात्मिक गुरु कहते हैं कि संत ने प्रसाद नहीं, अपराध परोसा है. सीबीआई की जद में आए संत केवल मोक्ष के मार्गदर्शक नहीं रह गए थे, वह मान्यता दिलाने वाले ‘एजेंट’ बन गए थे. देश की बड़ी भीड़ इन संतों में अपनी मजबूरियों का समाधान ढूंढती है.
गूढ़ ज्ञान
सरकार सुशासन की मुहिम में जुटी है. पारदर्शिता, जवाबदेही, ईमानदारी के नारे गूंज रहे हैं, मगर अफसोस है कि कुछ अफसर कुशासन की पटरी पर अपना निजी इंजन लिए सरपट भाग रहे हैं. इनमें से ही एक जिले के एसपी हैं. नए जिले का अनुभव नया-नया है. जाहिर है, जिला नया है, तो ‘सिस्टम’ भी नया बनाना पड़ेगा. इस ‘सिस्टम’ को जमाने में अनुभव, नेटवर्क और थोड़ा बहुत गूढ़ ज्ञान चाहिए. एसपी को नया जिला समझ नहीं आ रहा था. उन्होंने सोचा कि इस जिले को पिछले एसपी से समझने में थोड़ी मदद मिल जाएगी. मगर पिछले एसपी ईमान धर्म पर चलने वाले थे, वहां से मदद की कोई गुंजाइश नहीं थी, तब पिछले के पिछले एसपी साहब पर ध्यान गया. उनका जिला छूटे लंबा वक्त बीत गया था, मगर जिले में अब भी वह कइयों के लिए प्रभावशाली मेंटार की भूमिका निभा रहे थे. एसपी ने उनसे गूढ़ ज्ञान हासिल किया. अब अफसरों के भीतर यह चर्चा फूट पड़ी है कि पूर्व एसपी साहब गुप्त विद्या देने के इरादे से हफ्ते में एक-दो बार इस जिले के सैर सपाटे पर निकल पड़ते हैं. उनका यह गूढ़ ज्ञान रासायनिक दृष्टिकोण से कैल्शियम ऑक्साइड, सिलिकन ऑक्साइड, एल्युमिनियम ऑक्साइड और आयरन ऑक्साइड के मिश्रण की तरह ही ठोस है. यह वहीं फार्मूला है, जिससे तरक्की की इमारतें खड़ी होती हैं. इस फार्मूले में सबसे जरूरी यह है कि सही वक्त पर सत्य की जगह, ‘समझ’ डाली जाए. यह गूढ़ ज्ञान सबके लिए नहीं होता. यह आम प्रशिक्षण भी नहीं है, यह विशेषाधिकार है. इसे वही समझ सकता है, जिसे प्रशासन में धंधे की भाषा पढ़नी आती हो. सरकार को गूढ़ ज्ञान के इन अघोषित केंद्रों पर भी निगाह रखनी होगी, नहीं तो सुशासन के झंडे के नीचे, अफसरों की कुशासन की प्रयोगशाला नया फार्मूला गढ़ती रहेगी और सरकार महज़ नारे में सिमट कर रह जाएगी.
घुस आई आत्मा
पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली में पदों की एक तयशुदा श्रृंखला है. हर पद की सीमाएं होती है, अधिकार तय होते हैं और जवाबदेही स्पष्ट होती है. मगर कोई निचला अधिकारी पूरे महकमे का ‘केंद्र’ बन जाए, तो यह सिर्फ एक अधिकारी की बात नहीं रह जाती. यह एक व्यवस्था की कमजोरी का संकेत हो जाती है. एक समय था, जब एक एडिशनल एसपी की गिनती उन अफसरों में होती थी, जिनके इशारों पर न केवल पुलिस विभाग की कुर्सियां घूम जाया करती थीं, बल्कि डीजीपी की स्याही के बिना ही फाइलें भी दौड़ लगाना सीख गई थीं. उस दौर में यह चर्चा आम थी कि डीजीपी सिर्फ नाम के डीजीपी हैं. पुलिस महकमे की असली कमान एडिशनल एसपी के हाथों है. मगर वक्त की करवट भी अजीब होती है. सरकार बदली, कमान सरक गई. नई सरकार ने दूर ले जाकर पटक दिया. जिस एडिशनल एसपी के इशारे भर से फाइलें दौड़ लगा लिया करती थीं, अब वह खुद अर्जियों की कतार में अपनी फाइल लिए खड़े दिखते हैं. फिर भी उनकी रुकावटों का कोई अंत नहीं दिख रहा है. खैर, अब एक नई चर्चा बिखरी है कि एक जिले के एडिशनल एसपी में उनकी आत्मा आ गई है. एडिशनल एसपी ने पूरा महकमा तो नहीं, मगर एक जिले की कमान संभाल ली है. लोग यह सोचकर हैरान है कि न जाने एडिशनल एसपी ने, एसपी के भरोसे की कितनी कीमत चुकाई है? जो बदले में उन्हें पूरे जिले की कमान मिल गई है. महादेव सट्टा का प्रसाद पा चुके एडिशनल एसपी के चक्कर में कहीं एसपी को लेने के देने न पड़ जाए? आला अफसरों की नजरों में दोनों चढ़ गए हैं. चढ़ना कठिन है, उतरना आसान है. मगर नजरों से उतरने के अपने नुक़सान भी हैं. पिछले हादसों से सबक लेते हुए आला अफसर कोई रिस्क नहीं उठाना चाहते. उठाना भी नहीं चाहिए. छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है ‘मुड़ी के घाव’. वक्त रहते इस अव्यवस्था का इलाज नहीं किया गया, तो बस यही कहावत चरितार्थ होती दिखेगी.
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डंडा
दशकों पुराने मामलों का निपटारा नहीं होने पर लोक आयोग ने राज्य के अलग-अलग विभागों के अफसरों पर डंडा चलाया. लोक आयोग की नाराजगी इतनी थी कि एक विभाग की आला अधिकारी को तलब कर दिया. आनन-फ़ानन में पुराने प्रकरणों की फ़ाइल ढूंढी गई. एक दशक पुरानी फाइल भी धूल खाती पड़ी मिली. विभाग के अधिकारियों ने संबंधित लोगों को नोटिस जारी करने की प्रक्रिया शुरू की. इस दौरान एक अत्यंत रोचक घटना घटी. एक आरोपी, जिसका शरीर पंचतत्व में विलीन हो चुका था, वह आज भी सरकारी फाइलों में जांच की प्रतीक्षा में जीवित पाया गया. यह बताते हुए एक अधिकारी ने कहा कि इससे यह पता चला कि फाइलों की दुनिया में मोक्ष कभी नहीं मिलता. खैर, नोटिस जारी होने के पहले ही अधिकारी की नज़र पड़ने से मृतक के नाम को काट दिया गया. बहरहाल यह मालूम चला है कि छोटे-छोटे मामलों से जुड़े सैकड़ों प्रकरण दशकों से धूल खाते पड़े हैं. मगर इसके निपटारे के लिए किसी की दिलचस्पी नहीं रहती. ढेरों ऐसे लोग हैं, जिनके विरूद्ध प्रकरण चल रहा है, कई हैं, जो मर खप गए हैं, लेकिन सरकारी दस्तावेजों में उनका नाम अजर अमर है. खैर, अब लोक आयोग का डंडा चल रहा है. तब अधिकारी हरकत में आ रहे हैं. जिस विभाग की हम चर्चा कर रहे हैं, मालूम चला है कि इसने क़रीब 80 फीसदी लंबित प्रकरणों का खात्मा कर लिया है.
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प्रशिक्षण
भाजपा का मैनपाट में तीन दिवसीय प्रशिक्षण शुरू हो रहा है. बंद कमरे में मंत्री, विधायक और सांसदों को संगठन की तालीम हासिल होगी. राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह प्रशिक्षण के दौरान संबोधित करेंगे. बीजेपी सख्त पार्टी है. बंद कमरे की चर्चा कितनी बाहर आती है, मालूम नहीं, लेकिन इस पाठशाला में नेताओं को अनुशासित रहने की शिक्षा दी जा सकती है. संगठन के एक दिग्गज नेता ने इस प्रशिक्षण के संदर्भ में हुई एक अनौपचारिक चर्चा में कहा कि ऐसी बैठकों से कुल जमा हासिल कुछ नहीं होता. हमारी सरकार, पूर्ववर्ती सरकार को देखकर यह सीख ले ले कि उसने क्या किया था, जिससे सत्ता से बेदखली मिली? बस हम वहीं न करे. बंद कमरे में नेताओं के भाषण में लोग जम्हाई लेते दिखेगे. कुछ बड़े भाईसाहबों की ठोस नसीहत मिल जाएगी. सब लौटकर अपनी उसी दुनिया में वापस आ जाएंगे, जहां से प्रशिक्षण के लिए निकले थे. इससे ज्यादा और क्या ही होगा!