हाल-ए-मंत्री (1)आशिक़ मिज़ाज मंत्री से परेशान होकर एक बोर्ड के एमडी ने अपना तबादला करा लिया. एमडी, मंत्री के नाजायज़ फरमानों से बेहद परेशान थे. दूध में पानी मिलाने तक की बात समझ आती थी, लेकिन दूध की जगह सिर्फ पानी सप्लाई करने का फरमान एमडी के गले नहीं उतर रहा था, लिहाजा खादी खद्दर से हटने में ही भलाई समझी. खैर, हर अफसर इतना सज्जन नहीं होता कि मंत्री से परेशान होकर तबादले का विकल्प चुन ले. कुछ थोड़े टेढ़े भी होते हैं. मंत्री के ही दूसरे विभाग के एक अफसर हैं, जिन्होंने उन्हें टाइट कर रखा है. आलम यह है कि अफसर मंत्री को खूब पानी पिला रहे हैं और मंत्री पानी पी-पी कर अफसर को कोस रहे हैं. ये विभाग ही कुछ ऐसा है,जो इन दिनों आम तबके को पानी पिलाने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है. केंद्र सरकार का पैसा है. राज्य सरकार क्रियान्वयन का काम देख रही है. पिछली बार जब टेंडर में गड़बड़ी का मामला फूटा था, तब हाउस को बात संभालनी पड़ी थी. टेंडर रद्द किया गया था. ले देकर मामला तो संभल गया था, मगर मंत्री हैं कि अब तक लड़खड़ाए हुए हैं. कहते हैं कि अबकी बार ऊपर से हिदायत मिली है कि कहीं कुछ गड़बड़ी हुई तो जिम्मेदारी अफसर की होगी. ये अफसर चंद महीनों पहले ही तबादले में पहुंचे है. हिदायत के साथ. लाजमी है कि मंत्री की लड़खड़ाहट पर लगाम कैसा लगाया जाएगा, ये वह बखूबी समझते होंगे. बताते हैं कि अफसर ने अपने कमरे के भीतर सीसीटीवी कैमरा लगा रखा है,ताकि बाहर खड़े लोग यह देख और जान सके कि भीतर क्या चल रहा है. इधर अफसर ट्रांसपेरेंसी पर जोर देते दिखते हैं, उधर मंत्री अपने आचरण से ट्रांसपेरेंट हुए पड़े हैं. बहरहाल सुनते हैं कि मंत्री ने प्रदेश प्रभारी से अफसर को लेकर खूब राग अलापा है. मंत्री ने सोचा रहा होगा कि शिकायत का असर होगा, मगर हाल ढाक के तीन पात की तरह रहा. हर रोज ढलती शाम से लेकर काली अंधेरी रात की मदहोशी में मंत्री ना जाने कितनी बार अफसर को गरियाते होंगे. वैसे सुना है कि कई अफसर हैं, जिन्होंने मंत्री, मंत्री के ओएसडी, पीए से लेकर बंगले के दूसरे अधीनस्थ तक के मोबाइल नंबरों को ब्लॉक कर रखा है. यकीनन मंत्री की ख्वाहिशों को अफसर ही पूरा कर पाते, मगर यहां तो ख्वाहिशों का आसमान नाफरमानी के बादलों से जा घिरा है. बेचारे मंत्री जी ! अफसरों ने उनके साथ अच्छा नहीं किया. कम से कम पद और ओहदा का ही सम्मान कर लेते. 

इस्तीफे की पेशकश ! (2)

भले ही मंत्री जैसी गंभीरता ना दिखती हो, मगर हैं तो मंत्री ही. अपने काम के तरीकों को लेकर माननीय मंत्री महोदय ने खूब नाम कमाया. शोहरत कमाई. गौरव हासिल किया. मगर जब खुद के विभाग में अफसरों ने कहीं का ना छोड़ा, तो शिकवा शिकायतों का गुलदस्ता लेकर वजीर ए आला के दरबार जा पहुंचे. कहते हैं कि दबाव की रणनीति बनाने की जोरदार कवायद की गई. सामाजिक दबाव तो था ही, इस्तीफे की पेशकश भी थी. मातहत बताते हैं कि वजीर ए आला पहले से ही मंत्री के कामकाज से नाखुश थे. मानो इस बात के इंतजार में बैठे थे कि इस्तीफे की पेशकश मंत्री खुद ही कर दें. कहते हैं कि जैसे ही मंत्री ने इस्तीफे की पेशकश की. वजीर ए आला ने फौरन कहा दे दो. यकायक मंत्री की सारी खुमारी दूर हो गई. खुमारी उतरी तो दिमाग की बत्ती जली. सोचा मंत्री पद भी गया, तो बच क्या जाएगा. झटके से कहा, इस्तीफा लेकर नहीं आया हूं. वजीर ए आला ने कहा ठीक है, जब लाओ तो ओएसडी को दे देना. वह दिन है और आज का दिन. मंत्री आए, मगर इस्तीफा नहीं आया. वैसे बताते हैं कि जिन मंत्रियों के हार की गुंजाइश सबसे ज्यादा है, उनमें माननीय भी शामिल हैं. 

कलेक्टर का दबदबा

खबर बस्तर के दुरुस्त जिले से है, जहां एक कलेक्टर ने विधायक परिवार की मनमानी पर पूरी तरह लगाम लगा दिया है. मनमानियां भी ऐसी थी, जिससे सरकार की फजीहत हो रही थी. रुतबा और रुआब ऐसा था, मानो पूरे जिले की जागीर मिल गई हो. साल भर पहले तबादले में जब कलेक्टर ने जिले में आमद दी थी, तब मनमानियां गुलजार थी. प्रशासनिक कामकाज में विधायक परिवार का सीधा दखल था. कहते हैं कि किसी फिल्मी नजारे की तरह विधायक के परिवार से जुड़े लोग सीधे कलेक्टर के कमरे में दाखिल हो जाते और अपना फरमान सुना लौट आते. दबदबा बनाने और दबंगई दिखाने की कोशिशें परवान चढ़ रही थी. कहते हैं कि विधायक परिवार के किस्से, कहानियों की शक्ल में जब ऊपर पहुंचने लगे, तब कलेक्टर को हरी झंडी मिल गई. सुना तो यह भी गया है कि विधायक परिवार ने कई मर्तबा कलेक्टर की शिकायत हाईकमान से की है. चर्चा है कि इन शिकायतों पर विधायक परिवार को दिए गए दो टूक जवाब में कहा गया है कि ”चार साल आपकी चली, अब कलेक्टर की चलने दो”. 

‘जबरिया रिटायरमेंट’ की अनुशंसा

राज्य सरकार ने निलंबित आईपीएस जी पी सिंह को जबरिया रिटायरमेंट देने की अनुशंसा केंद्र सरकार से की है. जी पी सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार समेत कई मामले दर्ज है. फिलहाल इस वक्त वह जमानत पर हैं. चर्चा है कि केंद्र को भेजी गई अनुशंसा में गृह विभाग ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को आधार बनाया है. इधर जी पी सिंह ने उन पर दर्ज प्रकरणों की जांच सीबीआई से कराने संबंधी याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की हुई है. इससे पहले गृह विभाग ने मुकेश गुप्ता समेत दो अन्य आईपीएस को जबरिया रिटायरमेंट किए जाने की अनुशंसा केंद्र को भेजी थी. तब अनुशंसा खारिज कर दी गई थी.

घुड़की

पिछले दिनों यूनिफाइड कमांड की बैठक में भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी) के एक बड़े अफसर को सीएम की घुड़की मिलने की चर्चा है. बीएसपी केंद्र सरकार का सार्वजनिक उपक्रम है. यकीनन वहां के अफसरों को सीएम साहब के कामकाज का तरीका मालूम नहीं. बैठकों में शरीक नहीं हुए थे, इसलिए जिस अंदाज में जवाब दिया, वह ना देते. कहते हैं कि रावघाट प्रोजेक्ट से जुड़ी बात चल रही थी. साहब ने कुछ सवाल पूछा. बीएसपी के अफसर का जवाब बड़ा कैजुअल था. इस पर ही सीएम साहब ने आंखें तरेरी और जमकर फटकार लगा दिया. इससे पहले तक बैठक अच्छी चल रही थी. अचानक लगी फटकार से अफसर को यह समझने में देरी नहीं लगी कि यह सामान्य बैठक नहीं है और ना ही बैठक लेने वाला सामान्य है. कामकाज में ढिलाई तो कतई पसंद नहीं. अफसर जब अगली बार जब बैठक में शामिल होंगे, यकीनन अप टू डेट होकर पहुंचेंगे. 

कारपेट बाम्बिंग

बीजेपी अब बैठकों से बाहर निकल रही है. 22 जून को दुर्ग में अमित शाह, 30 जून को बिलासपुर में जे पी नड्डा और 1 जुलाई को कांकेर में राजनाथ सिंह के बाद अब 7 जुलाई को रायपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दौरा हो रहा है. उन राज्यों में केंद्रीय नेताओं खासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी के दौरे बढ़ जाते हैं, जहां चुनाव होने होते हैं. बीजेपी इसे कारपेट बाम्बिंग बता रही है. मोदी के प्रस्तावित दौरे को मिला दें, तो बीजेपी ने दुर्ग, बस्तर, बिलासपुर और रायपुर यानी पांच में से चार संभाग में अपनी चुनावी आमद दे दी है. वरना अब तक यह हाल था कि राज्य के बीजेपी नेता बंद कमरे में फ्रंट फुट खेलने की प्रैक्टिस कर रहे थे. यह भूलकर कि चुनाव कमरे से नहीं मैदान में आकर लड़ा जाता है. बहरहाल बड़े नेताओं के आने से बीजेपी के वो नेता भी सक्रिय हो गए हैं, जिनकी रूटीन में सुबह उठना, खाना-पीना और फिर सो जाना शामिल हो गया था. ऊंघने वाला वक्त ही राजनीति के लिए आरक्षित था. अब नींद टूट रही है, तो जमीन दिखाई पड़ रही है. सर्वे रिपोर्ट्स तो आंख में मिर्च डाल रहे हैं. उम्मीद सिर्फ दिल्ली से है. दिल्ली के नेता पानी लाकर आंख में छिड़केंगे, तब जाकर कहीं साफ दिखाई दे. फिलहाल केंद्रीय नेताओं की कार्पेट बाम्बिंग के सहारे बीजेपी जमीन सींच रही है. 

कांग्रेस में क्या बदला?

कांग्रेस की दिल्ली में हुई रणनीतिक बैठक ने क्या बदला? इस सवाल का जवाब बस इतना है कि सूबे की मौजूदा राजनीति की तस्वीर बदल दी. टी एस सिंहदेव डिप्टी सीएम बन गए. सरकार में नंबर दो का आधिकारिक दर्जा हासिल कर लिया. सरगुजा साधने का रास्ता खुल गया. दूसरी बड़ी बात जो इस रूप में दर्ज हुई कि राज्य में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी कर्नाटक के फार्मूले पर लड़ेगी, जिसमें कोई चेहरा नहीं होगा, सब मिलकर चुनाव लड़ेंगे. कहते हैं कि नेताओं के बीच टकराहट बढ़ रही थी. सो यह रास्ता ढूंढा गया कि सब नेता अपने-अपने हिस्से की पूरी-पूरी जिम्मेदारी निभाएं और चुनावी रण में कूद जाएं. बहरहाल सवाल यह भी है कि महज नेताओं के टकराव को खत्म कर चुनाव में जीत दर्ज की जा सकती है? कांग्रेस हाईकमान ने जिस वक्त यह फैसला लिया कि राज्य में चुनाव संयुक्त रूप से लड़ा जाएगा, ठीक उस वक्त तमाम सर्वे रिपोर्ट यह बता रही है कि राज्य में लोकप्रियता के पैमाने पर भूपेश बघेल से बड़ा चेहरा किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है. किसान हो या युवा या फिर बात जातिगत समीकरण की ही क्यों ना हो, भूपेश बघेल तमाम समीकरणों में अव्वल पायदान पर खड़े हैं. चुनावी विश्लेषक कहते हैं कि राज्य में कांग्रेस को बीजेपी के स्थानीय संगठन से नहीं बल्कि मोदी-शाह से लड़ना है. कांग्रेस की रणनीति यह ध्यान में रखकर बननी चाहिए.