
‘सागौन’ की कहानी
इस दफे कहानी बस्तर के अंदरुनी इलाके से आई है। कहानी में जंगल है। सागौन की लकड़ी है। पुलिस की गाड़ी है। जंगल विभाग है। कहानी की प्रस्तावना कहती है कि जंगल विभाग के पास गाड़ी नहीं थी, इसलिए पुलिस की गाड़ी में लकड़ी की ढुलाई की गई। मगर इस कहानी के अध्यायों से गुजरने पर मालूम पड़ता है कि बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। इस कहानी के पन्ने पलटने पर कई छिपे सच भी बाहर आ जाते हैं। फिर यह कहानी किसी सस्पेंस थ्रिलर से कम नहीं लगती। कहानी कुछ यूं है कि बस्तर के एक जिले के जंगल से पुलिस की गाड़ी में सागौन लकड़ी की ढुलाई हो रही थी कि अचानक ग्रामीणों ने गाड़ी पकड़ ली। पुलिस की गाड़ी में सवार लोग भाग खड़े हुए। खूब हल्ला हुआ, तब जाकर जंगल विभाग जागा। जंगल विभाग ने कह दिया कि उनकी गाड़ी खराब थी, इसलिए पुलिस की गाड़ी से सागौन लकड़ी की ढुलाई हो रही थी। इस पर ग्रामीणों ने पूछ लिया कि गाड़ी में जंगल विभाग का एक चपरासी तक नहीं था और जो थे, आखिर वह भाग क्यों गए? जंगल विभाग ने चुप्पी साध ली। सागौन की कहानी की इस किताब के कई पन्ने उलटने-पलटने के बाद यह मालूम चला कि इस कहानी का असली किरदार कोई और नहीं बल्कि जिले के ‘कप्तान साहब’ हैं. पुलिस की गाड़ी से सागौन की ढुलाई उनकी निजी जरूरतों के लिए की जा रही थी. सच खुल न जाए, इसलिए जंगल विभाग उस पर झूठ की परत चढ़ा रहा था। कलई खुल गई थी। जिस बस्तर से नक्सलवाद का सफाया करने का बीड़ा सरकार ने उठा रखा है, उस बस्तर से वर्दी की आड़ में तस्करी की खबर ने सरकार के कान खड़े कर दिए। सरकार ने आंखें तरेर दी। आला अफसर समझ गए। ‘कप्तान साहब’ की क्लास लग गई। आला अफसरों की डांट फटकार से ‘कप्तान साहब’ की आंखें चौंधिया गई। सागौन की लकड़ी से बनने वाले चमचमाते फर्नीचर की चमक ‘कप्तान साहब’ के ख्यालों में ही कहीं ठहर कर रह गई। खैर, बस्तर के इस जिले के ‘कप्तान साहब’ कुछ नया नहीं कर रहे थे। बस्तर की आंखें बरसो से यह सब देख कर पथरा सी गई है। बस्तर ने सिर्फ नक्सलवाद नहीं देखा है. बस्तर ने देखा है, सरकारी अफसरों की उस भीड़ को भी, जिसने आदिवासियों के हिस्से की संपदा दोनों हाथों से खूब बटोरी है। खूब लूटी है। बस्तर के आदिवासियों की आंखों में ऐसी अनगिनत कहानियां समाई हुई हैं।
कुछ तो ‘ख़ास’ बात है
कप्तान साहबों की पत्नियों को भी उतने राज मालूम नहीं होते होंगे जितने की उनके ‘खास’ कर्मचारियों को होते हैं। पत्नी के बगैर भले ही उनका दिन-रात कट जाए, मगर मजाल है कि ‘खास’ कर्मचारी एक पल के लिए भी नज़र से ओझल हो जाए। कुछ तो ‘ख़ास’ बात है, वरना यूं ही नहीं, कोई इतना ‘खास’ हो जाता है। यह ‘ख़ास’ बिरादरी भीड़ में भी अलग से पहचानी जा सकती है। इस बिरादरी को कुछ विशेष अधिकार मिल जाते हैं। ये बिरादरी कप्तान साहब की परछाई कही जाने लगती है। कभी ये एडिशनल एसपी, तो कभी टीआई या एसआई के रूप में या कभी-कभी गनमैन या ड्राइवर के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनका पद कुछ भी हो सकता है। बस्तर से जब सागौन की कहानी बाहर आई, तब यह बात पता चली कि सागौन की लकड़ी की कटाई और फिर उसकी ढुलाई का जिम्मा भी कप्तान साहब ने अपने ‘खास’ को सौंप रखा था। पुलिस महकमा अगर कप्तान साहबों के इन ‘खास’ लोगों की ही सूची बना ले, तो साहबों की पूरी कुंडली बाहर आ जाएगी।
एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा
पूर्ववर्ती सरकार में एक एडिशनल एसपी थे, जिनकी तूती बोला करती थी। पूरे पुलिस महकमे में वह बेहद चर्चित थे। जितनी बखत डीजीपी की नहीं थी, उससे ज्यादा उनकी थी। दरअसल, एडिशनल एसपी के पद को असली वेटेज उन्होंने ही दिलाया था, वर्ना एसपी के आगे एडिशनल एसपी भीगी बिल्ली की तरह होते थे। एसपी को देखते ही ‘ठक’ से जूता ज़मीन पर ठोकते और सैल्यूट करते। अब यह परंपरा पुरानी हो गई है। अब जमीन से जूता पटके जाने की ‘ठक’ की आवाज नहीं निकलती। एसपी भी एडिशनल एसपी से रिक्वेस्ट करना सीख गए हैं। उन्हें डर है कि कहीं एडिशनल एसपी किसी निर्देश पर मुंह में ही न कह दे ‘माय फुट’। बड़ी बेइज्जती हो जाएगी। इसलिए अब एडिशनल एसपी का मिज़ाज देखकर ही एसपी कुछ कह पाते हैं। कुछ ही एसपी हैं, जिन्होंने अपना दबदबा बचाकर रखा हुआ है। खैर, सूबे के एक वीआईपी जिले में एक नए एडिशनल एसपी की उत्पत्ति हुई है। वैसे हैं तो पुराने ही, मगर उनका अंदाज नया है। अब वह सीना चौड़ा कर घूमते हैं। उन्होंने अपना रुतबा ऐसा बना लिया है कि एसपी भी उनके आगे पानी भर रहे हैं। उन्हें लेकर एक कहावत चल रही है कि ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’। एडिशनल एसपी से इस कहावत का संबंध जोड़ते हुए लोग अब अपने-अपने तरीके से छिद्रान्वेषण कर सकते हैं। इस कहावत का पूरा सार ‘करेला’ और ‘नीम’ पर केंद्रित है। राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों किस्म की ताकत उनके साथ है, इसलिए मैदान में अच्छी पारी खेल रहे हैं। अच्छी पारी खेलता अफसर, ‘आला अफसरों’ और ‘सरकार’ को अच्छा लगता है। तब तक, जब तक कि खेल पर्दे के पीछे से खेला जा रहा हो।
तबादला
पुलिस महकमे में तबादले की अटकलें लग रही हैं। सुनते हैं कि कुछ जिलों के एसपी साहबों के चाल चलन से सरकार नाराज हो गई है। वैसे भी सुशासन की सरकार है। शासन के आगे ‘सु’ की जगह ‘कु’ जुड़ जाए, तब हंटर चल ही जाता है। आख़िर सरकार पर जनता को जवाब देने की जिम्मेदारी भी है। चर्चा है कि तबादले की सूची बन गई है और अब-तब में कभी भी जारी की जा सकती है। बाबूगिरी कर रहे कुछ अच्छे अफसरों को मैदानी तैनाती दी जाएगी और मैदान में दादागिरी कर रहे साहबों को बाबूगिरी के काम में लगाया जाएगा। अवैध शराब की सप्लाई को संरक्षण देकर नाम कमा चुके सीमावर्ती जिले के एसपी साहब पर गाज गिर सकती है। वहीं ढाबे से उगाही की रकम उठाने वाले एसपी साहब भी सरकार के रडार पर आ सकते हैं। बस्तर से आई हालिया सागौन की कहानी पर भी सरकार का गुस्सा प्रचंड है। अब जब तबादले की सूची आएगी, तब मालूम चलेगा कि सरकार की गर्माहट पर इनमें से किस-किस ने बर्फ डालकर अपनी कुर्सी बचा ली है।
आजादी-पिपासु
जेल अफसरों को इल्म भी नहीं था कि कैदी यूं भाग खड़ा होगा। बस एक रोड ही तो बांटती थी, जेल और जेल विभाग के पुराने मुख्यालय भवन को, जिसे अब कवर्धा सदन बना दिया गया है। गृह मंत्री के इलाके से इलाज के नाम पर आने वाले मरीजों को यहां ठहराया जाता है। पुरानी इमारत है। कुछ मरम्मत का काम था। जेल विभाग के अफसरों को शायद लगा कि जेल में बंद कुशल श्रमिक जब हैं ही, फिर जेब क्यों ढीली की जाए! कागजों में जेल परिसर के काम दर्ज कर कैदी ले आए गए। उन कैदियों में उम्र कैद की सजा काट रहा एक कैदी भी था, जो वेल्डिंग का काम करता था। मौके की नजाकत देखकर वह भाग खड़ा हुआ। अफसरों के हाथ पैर सुन्न पड़ गए। उधर कैदी भागा, इधर सियासत शुरू हो गई। पूर्व मुख्यमंत्री ने सवाल पूछ लिया कि अब बताओ किसकी अनुमति से कैदियों से काम कराया जा रहा था? अब गृह मंत्री का इसमें क्या दोष! गृहमंत्री को क्या मालूम की इमारत की मरम्मत कैदियों से कराई जाएगी, लेकिन बैठे ठाले मुसीबत उनके हिस्से आ गई। इमारत की मरम्मत के काम के लिए लाए गए कैदियों में अगर कोई कैदी आजादी-पिपासु निकलेगा, तो इसकी जवाबदेही तो तय होगी ही। खैर, मुद्दा सियासी हो गया है। मरम्मत की जरूरत अब उस इमारत से ज्यादा, उस जवाब की हो गई है, जिसका आना बाकी है।
एक्सटेंशन
मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव अनुराग जैन के रिटायरमेंट के ठीक पहले उन्हें एक साल का एक्सटेंशन दिया गया है। इधर छत्तीसगढ़ में जून महीने की आखिरी तारीख को ऐसी ही एक घटना घटी थी। मंत्रालय में रखी गई कैबिनेट मीटिंग में विदाई लेने पहुंचे अमिताभ जैन नहीं जानते थे कि उन्हें तीन महीने का एक्सटेंशन मिल रहा है। मंत्रियों के विदाई भाषण के बीच ही दिल्ली से एक्सटेंशन की खबर आ गई। अब मध्य प्रदेश की तस्वीर देखकर लोग अटकलें लगा रहे हैं कि कहीं छत्तीसगढ़ में भी मुख्य सचिव के एक्सटेंशन की मियाद आगे तो नहीं खिसक जाएगी। अमिताभ जैन से सरकार को कोई दिक्कत भी नहीं है। नौकरशाही के भीतर चल रही रस्साकसी और इससे जुड़े सभी गुणा-भाग में उनका नाम फिट भी है। ऐसे में उनके एक्सटेंशन की संभावना बढ़ती दिख रही है। अमिताभ जैन को मिली एक्सटेंशन की तय अवधि में अब केवल एक महीना ही बाकी रह गया है और नए चेहरे को लेकर सरकार के भीतर किसी तरह की हलचल भी नहीं दिख रही है। एक्सटेंशन अवधि के बीच ही मुख्य सचिव की सीएम साय के साथ जापान और दक्षिण कोरिया की यात्रा भी हो गई है। इस तरह के दौरों में दो लोगों के बीच एक ख़ास तरह की बांडिंग भी बन जाया करती है। फिलहाल तो जैन साहब के एग्जिट और एक्सटेंशन के बीच की लाइन धुंधली पड़ गई है। मगर इस चक्कर में मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी खाली रह गई है। हाईकोर्ट में सरकार ने जवाब दाखिल कर दिया है। न जाने हाईकोर्ट इस पर अपना फैसला क्यों नहीं सुना रहा? मुख्य सूचना आयुक्त के लिए इंटरव्यू देने वालों में अमिताभ जैन का नाम भी शामिल था।
काबिल मुख्यमंत्री !
इंडिया टुडे ने अपने सर्वे में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को देश का दूसरा सबसे काबिल मुख्यमंत्री बताया है। पहले पायदान पर असम के मुख्यमंत्री हैं। गुजरात, यूपी, मध्यप्रदेश, ओडिशा जैसे भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का क्रम क्रमश: चौथा, पांचवां, छठवां और सातवां है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आख़िर मुख्यमंत्री साय ने बीते 18 महीनों में ऐसा क्या कर लिया कि तमाम बड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पछाड़कर सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्रियों की सूची में वह दूसरे पायदान पर आ खड़े हुए? मुख्यमंत्री साय के पास ऐसा कौन सा तिलिस्म था, जो भूपेंद्र पटेल, योगी आदित्यनाथ, मोहन यादव और मोहन चरण मांझी के पास भी नहीं था। तब उन राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में किए गए कामों पर नज़र जाती है। छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य बना, जिसने सुशासन एवं अभिसरण विभाग बनाया है। भाजपा शासित राज्यों में विष्णुदेव साय ऐसे इकलौते मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने महज़ 18 महीने की सरकार में ही सुशासन की जमीनी नब्ज टटोलने के इरादे से सुशासन तिहार शुरू किया। गांव-गांव निकल पड़े। फाइलों की ढेर में उलझे छत्तीसगढ़ में ई-आफिस की शुरुआत की। सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर इन्वेस्टमेंट समिट जैसे आयोजन करने वाले पड़ोसी राज्यों की तुलना में बगैर किसी बड़े इवेंट के करीब छह लाख करोड़ रुपए का निवेश जुटा लिया। मुमकिन है कि अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तुलना में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने इन सब नवाचारों से ज्यादा अंक बटोरे होंगे। सीएम सचिवालय के अफसरों ने खूब तैयारी कराई होगी। ख़ुद भी खूब मेहनत की रही होगी। तब जाकर यह खिताब उनके हिस्से आया है। बहरहाल इस तरह का खिताब आना एक बात है, लेकिन ज़मीन पर इस खिताब के अनुरूप काम करना दूसरी बात है। खिताब मिला है, तो कुछ तो हुआ होगा ही, लेकिन अब कुछ से काम नहीं चलता। लोगों को ज्यादा पाने की आदत हो गई है।