Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

नोटों की फसल

सत्ता की जमीन बड़ी उपजाऊ होती है. इस उपजाऊ जमीन पर नोटों की फसल लहलहाती है. कभी टेंडर में कमीशन, तो कभी ट्रांसफर-पोस्टिंग की आड़ में चलने वाला नेताओं का मिशन दरअसल सत्ता की उपजाऊ जमीन पर नोट उगाने का जरिया बनते हैं. नेताओं के मुंह से निकलने वाली लालच की चाशनी खाद का काम करती है और उनकी आंखों की चमक तपिश बनकर नोटों की फसल को जरूरी ऊष्मा देती है. सत्ता की यह जमीन राजनीतिक दलों को हर पांच साल में नसीब होती है. कई बार एक ही दल का कब्जा बना होता है, तो कई बार चुनावी बुलडोजर से यह कब्जा हटा दिया जाता है. सरकार किसी भी दल की क्यों न हो. हर सरकार में ज्यादातर नेता नोटों की फसल का भोग करना अपना नैतिक दायित्व समझते हैं. सूबे की सरकार में एक प्रभावशाली नेता हैं. उनके इस प्रभाव की आड़ में नाते-रिश्तेदार और कुछ करीबियों ने बीते डेढ़ सालों में नोटों की बंपर पैदावार ली है. धान की तरह ही नोटों का उत्पादन इतना है कि उसे खपा पाना मुश्किल हो गया है. नुकसान में ही सही मगर बचे हुए धान की नीलामी हो ही जाएगी. नोटों के बंपर उत्पादन का क्या होगा? नोटों को खपाने नया स्टोरेज खोला जाए या फिर कहीं इन्वेस्टमेंट कर दिया जाए? यह सोच-सोच कर नेता जी के रिश्तेदार और करीबियों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर रही हैं. बहरहाल पिछले दिनों मालूम चला कि नेता जी के एक रिश्तेदार को एक युक्ति सूझी. राजधानी के नजदीक ही उन्हें एक फार्म हाउस पसंद आ गया. उन्हें लगा कि नोटों के बंपर उत्पादन का एक हिस्सा यहां खप सकता है, सो फार्म हाउस के मालिक के साथ टेबल पर सौदेबाजी शुरू हुई. बातचीत का दौर चल ही रहा था तब यह पता चला कि फार्म हाउस के मालिक ने पहले से ही विवादों का दस्तावेज तैयार कर रखा है. वह शहर का एक नामचीन खाईवाल है. महादेव सट्टा घोटाले का एक किरदार. एक रेस्टोरेंट में हुई गोली कांड की घटना के बाद सलाखों के उस पार की सैर करने का अनुभव भी उनके हिस्से है. सुना यह भी गया है कि पुलिस ने एक दफे फार्म हाउस के मालिक का सिर मुंडवा कर शहर की सड़कों पर जुलूस भी निकाला था. यह सब पता चलते ही नेता जी के रिश्तेदार के माथे पर पहले से ही पड़ी चिंता की लकीरों की मोटाई-चौड़ाई दोगुनी हो गई. उन्हें यह एहसास हो गया कि सत्ता की उपजाऊ जमीन से नोटों की पैदावार एक बात है, लेकिन उस जमीन पर दफन हो जाना एक अलग बात होगी. उनके हाथ-पैर फूल गए. फार्म हाउस खरीदने का सौदा रद्द कर दिया. उनके पास नोटों का अंबार अब भी लगा हुआ है. सत्ता में नेता कमाते हैं. बेनामी संपत्ति खड़ी की जाती है और एक दिन आता है कि उस बेनामी संपत्ति का कुछ हिस्सा लूट लिया जाता है. एक पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में अक्सर यह चर्चा सुनी जाती है कि शहर के एक कबाड़ी के नाम पर खरीदी गई उनकी बेनामी संपत्ति लूट ली गई. कभी हेरा-फेरी करने वाला कबाड़ी परिवार आज शहर का नामचीन कारोबारी है. हर कहावत कुछ कहती है. बड़े बुजुर्गों की एक प्राचीन कहावत है, चोर का माल चंडाल खाए..पता नहीं कोई इस कहावत पर भरोसा क्यों नहीं करता. 

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चतुर खिलाड़ी

सूबे की ब्यूरोक्रेसी में भी कुछ चतुर खिलाड़ी है. कुछ कलेक्टर हैं और कुछ एसपी, जो जमीन के सौदागर बन गए हैं. विवादित जमीन पर उनकी पैनी नजर है. कभी बिचौलिया बनकर, तो कभी खुद सौदे का अहम किरदार बनकर बड़ा खेल, खेल रहे हैं. किसी को भनक तक नहीं. अब ऐसे अफसरों की कुंडली में किस तरह से ग्रह-नक्षत्र बिठाना है, यह सरकार देखे. बहरहाल, ब्यूरोक्रेट कागजों के खिलाड़ी होते हैं. सरकारी रेसकोर्स पर सही तरीके से कागजी घोड़े दौड़ाना वह बखूबी जानते हैं. उन्हें यह मालूम होता है कि नेता की तरह उनका कार्यकाल पांच-दस साल का तो होगा नहीं. जवानी के दिनों में लगी उनकी नौकरी, अधेड़ होने तक बनी रहेगी, सो उनका लगाया दांव खाली नहीं जाता. नौकरी में रहते हुए ढूंढ-ढूंढ कर रिश्तेदारों के नाम पर जमीन जुटाई जाती है और कच्चा पैसा व्यापारियों को सौंपकर छद्म रूप से व्यापार की हिस्सेदारी ले ली जाती है. एक नजर में देखने पर किसी स्थापित नेता का प्रभाव बड़ा दिख सकता है, लेकिन असल मायने में नेता, ब्यूरोक्रेट्स के सिर से टूटकर गिरा बाल भी नहीं होते. एक सीनियर अफसर कहते हैं कि एक कायदे के ब्यूरोक्रेट की डेफिनेशन बदल गई है. ब्यूरोक्रेसी में कायदे का ब्यूरोक्रेट वही है, जिसके रिटायरमेंट तक कुछ सौ-दो सौ- चार सौ, पांच सौ करोड़ की संपत्ति जुटा ली गई हो. बहरहाल, एक नेता के हिस्से आजीवन कुर्सी बचाए रखने का संघर्ष होता है. साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाते हुए अपने विरोधियों को मिट्टी में मिलाकर, हर दिन उगते तरह-तरह के कांटों को कुचलने का संघर्ष कभी खत्म नहीं होता, तब जाकर वह अपनी किस्मत की लकीर बड़ी कर पाता है. एक व्यापारी अपने व्यापार में नफा-नुकसान का रिस्क उठाता है. मगर ब्यूरोक्रेसी ऐसी इकलौती जगह है, जहां मैक्सिमम प्रॉफिट-नो लॉस का फार्मूला एग्जिस्ट करता है. एक बार नौकरी में आने की देरी फिर लाट साहब की जिंदगी किसी निजाम से कम नहीं. यकीनन यह बातें हर ब्यूरोक्रेट के लिए नहीं है, मगर अनुपात के लिहाज से करीब 70 फीसदी ब्यूरोक्रेट तो ऐसे ही होंगे, जिनके लिए सरकारी नौकरी वह नींव है, जिस पर भ्रष्टाचार की ऊंची अट्टालिकाएं खड़ी की जा सकती है. फिलहाल जमीन के कारोबार में जुटे कलेक्टर-एसपी पर फोकस कर लें, तो बेहतर है. सुशासन तिहार अभी-अभी खत्म हुआ है. ऐसे अफसर कुशासन की परिभाषा गढ़ रहे हैं.  ये 70 फीसदी कैटेगरी वाले लोग हैं. 

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फूफा…

अब यह अफवाह कौन फैला रहा है कि सूबे के कई मंत्री अपने इलाकों में कलेक्टरों की पोस्टिंग पर फूफा बन गए हैं. मतलब मुंह फुलाए बैठे हैं. एक चर्चा छिड़ी है कि पिछली कैबिनेट में जब एजेंडों पर बात खत्म हो गई तब कुछ मंत्रियों ने यह कहते हुए टिप्पणी की कि उनके इलाकों में कलेक्टरों की पोस्टिंग से पहले उनसे चर्चा क्यों नहीं की गई? एक अफसर ने कहा, इस तरह की शिकायत देखकर महसूस होता है कि कभी-कभी मंत्रिमंडल में भी सास-बहू का सीरियल चलता है. कलेक्टरों की पोस्टिंग के इस एपिसोड को सुनकर और देखकर लग रहा है कि मुख्यमंत्री ससुराल वाले और मंत्री फूफा हैं और कलेक्टर उस बेचारी बहू की तरह है, जिसे हर कोई अपनी पसंद का संस्कार देने पर तुल गया है. खैर, यह तो हुई मजाक की बात. सीरियस नोट पर सरकार को एक व्यवस्था बना देनी चाहिए. एक प्रस्ताव लाना चाहिए कि कलेक्टरों की पोस्टिंग के पहले एक कलेक्टर कन्फर्मेशन फार्म भरा जाए. फार्म में सिलसिलेवार ढंग से यह पूछा जाए कि अफसर की जाति और उसका गोत्र क्या है? उसका राजनीतिक झुकाव किस पार्टी की ओर है? क्या वह माफियाओं से डील में पारदर्शिता बरत सकता है या नहीं? क्या वह जन सेवा की जगह जन प्रतिनिधि सेवा को प्राथमिकता देगा? यदि हां, तो ही पोस्टिंग मान्य होगी. ऐसी व्यवस्था लागू हो जाए, तब न रहेगी बांस, न बजेगी बांसुरी. कोई मंत्री फूफा नहीं बनेगा. 

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ऐतिहासिक तबादले

कुछ तबादले ऐतिहासिक होते हैं. पिछले दिनों सरकार ने कुछ जिलों के एसपी हटा दिए. कुछ नाम ऐसे थे, जिनके हटाए जाने की वजहों का विश्लेषण किया गया. परत दर परत उधेड़ी गई. तब जाकर सच्चाई बाहर आई. एसपी साहब के कारनामों की चर्चा थानों की दहलीज़ से लेकर चाय की गुमटी तक थी. कुछ एसपी इस तरह से हटा दिए गए, जैसे कोई गुप्तचर संस्था ऑपरेशन क्लीन चला रही हो. एक सीमावर्ती जिले के एसपी थे, जो कानून व्यवस्था का एक ऐसा मॉडल खड़ा कर रहे थे कि जुए और सट्टे वालों ने बाकायदा सेलिब्रेशन शुरू कर दिया था. ट्रैफिक चालान ऐसे कट रहे थे मानो किसी प्राइवेट फर्म का मंथली टारगेट सेट हो. सरकार की आंखें जब लाल हुई, तब एसपी साहब का ही चालान कट गया. मगर जाते-जाते एसपी ने कमाल कर दिया. करीब 50 लाख रुपए रिटर्न गिफ्ट अपने अधीन टीआई पर ठोक गए. जब तक साहब बतौर एसपी जिले में रहे मातहत टीआई हांफते रहे. हर टीआई के महीने का टारगेट फिक्स था. टारगेट में चूक होने पर एसपी साहब का रौब दिखता. कहते, अपनी जमीन बेचकर टारगेट पूरा करो. तबादले के बाद एसपी साहब जिला छोड़ गए, मगर नए शहर में नए मकान की मरम्मत का एस्टीमेट पुराने जिले में छोड़ दिया. मालूम चला है कि ट्रक में भर-भर कर रेती, ईंट और गिट्टी मंगाई गई. अब बात एक दूसरे एसपी साहब की. उनका मामला कुछ अलग किस्म का रहा. ये ईमानदारी का चोंगा पहनकर घूमा करते थे, मानो गांधी टोपी लगा ली हो, लेकिन सरकार ने जब चोंगा उतार फेंका, तक पता चला कि भीतर से यह उगाही का घनघोर तंत्र चला रहे थे. एसपी साहब के पास एक एएसआई था, उनका ट्रेजरार. उन्होंने हर महीने की वसूली, घर का राशन, दूध, सब्जी सब कुछ एएसआई के जिम्मे ही सौंप रखा था. एसपी साहब की इमेज पर धब्बा न लगे, इसलिए वसूली का तरीका कलात्मक था. रेंडमली ढाबा ढूंढा जाता और वहां रकम छुड़वाई जाती. बताते हैं कि एएसआई की तीन-चार बीवियां है. हर बीवियों के लिए एक अलग घर. यानी एएसआई मल्टीटास्किंग था. एसपी साहब को एएसआई की यही खूबी भाई. ईमानदारी का चोंगा भी रह जाता और कमाई होती सो अलग. इसलिए एएसआई को अपना आधा अधिकार सौंप दिया. मगर गुप्तचर शाखा ने चोंगा के भीतर झांक लिया था. एसपी साहब तबादले की जद में आ गए. 

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कमरा

मंत्रालय में सचिव स्तर के दो आईएएस दंपत्ति अंबलगन पी और अलरमेल मंगई डी सेंट्रल डेपुटेशन पर जा रहे हैं. केंद्र सरकार ने नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया है, जाहिर है सरकार मंत्रालय स्तर पर एक छोटी प्रशासनिक सर्जरी करेगी. मंत्रालय में अब सचिव स्तर के दो कमरे खाली हो जाएंगे. मिनिस्ट्रियल ब्लाक में बैठ रहे अफसरों की नजर उन दो कमरों पर होगी, जो खाली हो रहे हैं. मंत्रालय में कमरों का टोटा है. किसी कमरे के खाली होने के पहले ही कुछ अफसरों की नजर उस पर पड़ जाती है. मुमकिन है कुछ अफसरों ने पहले से ही उन कमरों पर अपना रुमाल रख दिया हो. मंत्रालय अब छोटा पड़ रहा है. अफसरों की भरमार है. सरकार को एक्सटेंशन पर कुछ विचार करना चाहिए, वर्ना जिस तेजी से कमरे भर रहे हैं, आने वाले दिन कहीं कैबिनेट में यह प्रस्ताव पारित न करना पड़ जाए कि मंत्री अपने-अपने बंगलों से काम करेंगे. और अब मंत्रियों के कमरे अफसरों के लिए आरक्षित किए जाते हैं. 

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पूर्ण विराम 

सुशासन तिहार ने मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को आत्मविश्वास से लबरेज कर दिया है. सुशासन तिहार के आखिरी दिन, दिनभर की भागदौड़ खत्म कर विष्णुदेव साय सबसे पहले अखबारों और टीवी चैनलों के संपादकों से मुखातिब हुए. सुशासन तिहार का अपना अनुभव साझा किया. सुशासन तिहार के जरिए सरकारी योजनाओं की जमीनी पड़ताल, प्रशासनिक कामकाज की समीक्षा, प्रशासनिक तंत्र की खामियां, सामने आने वाली शिकायतें और उन शिकायतों पर किए गए समाधान पर सिलसिलेवार ढंग से मुख्यमंत्री दो घंटे तक बोलते रहे. राजनीतिक अनुभव के लिहाज से साय पहले से ही समृद्ध हैं, लेकिन प्रशासनिक कामकाज की समझ पर उठने वाले संदेहों पर उन्होंने अब पूर्ण विराम लगा दिया है. साय सरल-सहज हैं और उनकी इसी मूल प्रकृति का आकलन उनकी कमजोरी के रूप में किया जाता रहा है. मगर बीते 18 महीनों ने मुख्यमंत्री की हैसियत से विष्णुदेव साय ने एक नए विष्णुदेव साय को तैयार किया है. जाहिर है, मुख्यमंत्री की कुर्सी बेशुमार ताकत देती है, लेकिन इस बेशुमार ताकत के बीच ही बेशुमार आत्मविश्वास भी पैदा करती है. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद हुए इंटरव्यू में हर किसी ने उनसे यह सवाल किया था कि आपका स्वभाव इतना सरल है. आप सख्ती कैसे बरतेंगे? तब उन्होंने जवाब दिया था कि हर वक्त सख्ती बरती जाए, यह जरूरी है. लेकिन यह किसने कह दिया कि जरूरत के वक्त सख्ती नहीं बरती जाएगी. बहरहाल, अनुभव आत्मविश्वास लेकर आता है, जो मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय में दिखाई पड़ रहा है.