Column By- Ashish Tiwari, Resident Editor Contact no : 9425525128

उड़ता तीर

जमीन की गाइडलाइन दरें बढ़ाने के तर्क निश्चित रूप से फाइलों में बहुत सधे हुए लिखे गए। मसलन राजस्व बढ़ोतरी, पारदर्शिता, बाजार मूल्य से तालमेल, जनहित वगैरह-वगैरह, लेकिन जमीन पर असलियत कुछ अलग ही ढंग से परोस दी गई। तर्क सही है पर समय और तरीका गलत चुन लिया गया। सरकार के भीतर उठती असहमति भी दरअसल इस बात का सबूत है कि निर्णय तर्कों पर नहीं, स्वीकार्यता पर टिकते हैं। इस तरह के निर्णयों के बीच सबसे विकट हालात तब हो जाते हैं, जब अपनी ही टीम को समझाना भारी पड़ जाता है। सुना है कि पिछले दिनों सीएम हाउस में जमीन गाइडलाइन में बढ़ोतरी के बाद उपजे हालातों पर विमर्श चला। सभी मंत्रियों को बुलाया गया। चर्चा बाहर नहीं आई, मगर भीतर खाने की हलचल कहती है कि अब बढ़ी हुई दरों में कुछ सुधार किया जाएगा। हाफ बिजली बिल योजना बंद करने के बाद सरकार का अनुभव ठीक नहीं था। सरकार को फैसले में कुछ संशोधन करने की नौबत आ गई थी। अब सरकार कोई दूसरा उड़ता तीर नहीं लेना चाहती, क्योंकि यह पता चल गया है कि उड़ता तीर पिछली बार जिस दिशा में गया था, वहां से आवाज आई थी- ‘आह’। 

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बेस्वाद चाय

एक मेज पर बड़ी गंभीर चर्चा चल रही थी। हाथों में गर्म चाय थी और सामने था गर्म मुद्दा- जमीन गाइडलाइन की बढ़ी हुई दरें। सरकार के एक उच्च पदस्थ सज्जन ने चाय का घूंट लिया और बड़े दार्शनिक अंदाज में बोले- किसी नीति की सफलता के लिए केवल तर्क काफी नहीं होते। तर्क तो महज चाय की पत्ती है। उनकी बात सुनकर सबने बड़ी गंभीरता से सिर हिलाया। उन्होंने आगे कहा- कोई भी सरकारी नीति, चाय की तरह होती है और चाय तभी अच्छी बनती है, जब पानी में पत्ती, दूध, अदरक और चीनी सब बराबरी से उबले। अब अगर जमीन गाइडलाइन की दरों की तरह पत्ती खूब डाल दी जाएगी, तो चाय पकेगी जरूर मगर उसका स्वाद कड़वाहट से भरा होगा। यह पीने लायक नहीं रह जाएगी। मेज पर बैठे कुछ और लोगों ने अपनी-अपनी चाय का घूंट लिया और अचानक सभी को चाय के स्वाद में कमी महसूस होने लगी। हालांकि थोड़ी देर पहले ही पहला घूँट पिये जाने के वक्त तक चाय के स्वाद पर किसी ने टिप्पणी नहीं की थी। बहरहाल मेज की चर्चा का लब्बोलुआब यह निकलकर सामने आया कि जमीन गाइडलाइन पर लिया गया फैसला भी कुछ-कुछ बेस्वाद चाय की तरह है, जिसमें तर्कों की पत्ती भर-भर कर डाली गई। संवाद का पानी कम हो गया। जनभावना की चीनी फीकी रह गई। समावेशिता का अदरक गायब रह गया। दूध तो डला ही नहीं। मेज पर चर्चा चलती रही। कुछ ने बेस्वाद चाय छोड़ दी। वह ठंडी हो गई थी, मगर जमीन गाइडलाइन का मुद्दा अब भी उबल रहा था। 

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डूबती नाव

जमीन गाइडलाइन पर मच रहे शोर के बीच भाजपा नेताओं ने पूछा है कि पिछली सरकार ने एक खास वक्त के लिए जमीन गाइडलाइन की दर में दी गई 30 फीसदी की छूट में और 10 फीसदी की अतिरिक्त छूट क्यों दे दी थी? इसे बढ़ाकर 40 फीसदी क्यों कर दिया गया। इस पर नया बखेड़ा करते हुए भाजपा नेताओं ने पूछा कि इसकी आड़ में क्या भ्रष्टाचार का पैसा जमीनों में खपाया गया? सिलसिलेवार सवाल देखिए। आखिर क्यों एनआईसी के पोर्टल में 30 लाख रुपए से अधिक की रजिस्ट्री अपलोड नहीं की गई? बिना भुगतान के रजिस्ट्री कैसे कर दी गई? क्या कोयला, डीएमएफ, शराब घोटाले का पैसा जमीनों में खपाया गया? भाजपा नेताओं ने अब इसकी जांच की मांग सरकार से की है। न जाने अब सरकार इस तरह के उठते सवालों पर क्या रुख अख्तियार करेगी। खैर, यह बात भला कौन नहीं मानेगा कि भ्रष्टाचार और टैक्स चोरी खपाने का सबसे सुलभ रास्ता जमीन ही रहा है। यह बात कौन नहीं मानेगा कि भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट नौकरशाह और टैक्स चोर कारोबारियों की नजर से शहर के भीतर और शहर के बाहर की कोई भी जमीन बची होगी? जमीन गाइडलाइन की दरों में बढ़ोतरी पर छिड़ी रार एक तरफ है, मगर मंत्री ओ पी चौधरी के इस कड़े फैसले ने अच्छे-अच्छो की बोलती तो बंद कर ही दी है। डूबती नाव पर अब हर कोई सवार होकर नाव की उस छेद को ढूंढ रहा है, जिससे सब कुछ बहा देने की तैयारी कर ली गई है। अब सब मिलकर उस छेद को बंद करने पर जोर लगा रहे हैं।

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लाठीचार्ज

अचानक सूबे में पुलिस की लाठी का शोर बढ़ गया। पिछले हफ्ते राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लाठीचार्ज की तीन घटना घटी। सरगुजा में अमेरा ओपनकास्ट कोल माइंस का विरोध करने वाले ग्रामीणों पर, दुर्ग में जमीन गाइडलाइन का विरोध करने वाली उग्र भीड़ पर और छुईखदान में एक सीमेंट फैक्ट्री का विरोध करने वाले हजारों लोगों पर। पुलिस की लाठी कहीं बचाव में चली, कहीं भीड़ की उग्रता पर लगाम लगाने के लिए चली और कहीं पुलिस की उत्तेजना ही लाठीचार्ज की वजह बन गई। सरकार नाराज है। विरोध की चिंगारी पर पुलिस की लाठी का घर्षण बड़ा विस्फोट कर देता है। हुआ भी यही। जिन मामलों पर संजीदगी से पेश आने की जरूरत थी, वहां सख्ती बरती गई। लाठी पुलिस की थी, मगर अब उससे बने घाव पर मरहम लगाने की जिम्मेदारी सरकार पर आ गई है। लाठी की गूंज अब सरकार को सुननी है। विडंबना यही है कि जिन परिस्थितियों में धैर्य और संवाद की तलाश होनी चाहिए थी, वहां ताकत का इस्तेमाल करना चुना गया। यह सोचे बगैर की लाठी से भीड़ तो छंट जाएगी, मगर सवाल नहीं। लाठी की मार खाया आम तबका सिर्फ दर्द नहीं देखता, वह यह भी देखता है कि उसके हक की बात पर पहली प्रतिक्रिया किसकी आई- समझ की या फिर लाठी की?

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जनरल टिकट

भारत-दक्षिण अफ्रीका का वनडे मैच हुआ। मैच देखने का रोमांच हर किसी को था। रसूखदार नेता, अधिकारी, व्यापारी। ओहदे के साथ रसूख खुद ब खुद आ जाता है, जाहिर है उम्मीद थी कि मुफ्त की वीआईपी टिकट मिलेगी। टकटकी निगाह जमाए बैठे लोगों को जब टिकट नसीब नहीं हुई, तब पूछताछ की गई। मालूम चला कि वीआईपी कैटेगरी वाली लिस्ट में कईयों का नाम तक नहीं। जब मंत्रियों को ही टिकट प्रसाद की तरह मिला हो, तब दूसरों की भला क्या औकात। अफसरों की तो मत ही पूछिए। ठीक ठाक अफसरों को भी टिकट के लिए माथापच्ची करनी पड़ी। निगम,मंडल और आयोग में बैठे कैबिनेट स्तर के कुछ नेताओं ने तो आम टिकट पर मैच देखा और जानबूझकर अपनी फोटो सोशल मीडिया पेज पर वायरल कर दिया। शायद यह बताने के लिए कि सरकार में होने का क्या फायदा कि मैच का टिकट भी नसीब न हो सके। कार्यकर्ताओं की बढ़ती मांग के बीच कुछ बड़े नेताओं ने ब्लैक में टिकट खरीदकर बांटा। भाजपा में चर्चा आम थी कि जब कांग्रेस की सरकार थी, तब वीआईपी टिकट अदने से कार्यकर्ताओं को भी नसीब हो जाती थी। यहां ओहदा पाकर भी जनरल कैटेगरी का टिकट मिल रहा है। सिस्टम का यह अनोखा क्षण था जब पद बड़े थे, पर टिकट छोटे।

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तराजू

कई अफसरों के दहलीज लांघने के किस्से कहानियों के बीच खबर आई है कि एक महिला ने एक डीएफओ पर दुष्कर्म का आरोप लगाया है। न जाने इसके पीछे की असल कहानी क्या है? मगर सुना है कि पीड़ित महिला दुष्कर्म की शिकायत लेकर थाने-थाने घूम रही है, मगर उसकी कोई सुनवाई नहीं हो रही। चर्चा है कि एक मंत्री का हाथ डीएफओ के सिर पर है। डीएफओ का मानना है कि जब तक मंत्री का वरदहस्त है, तब तक कोई भी उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। मंत्री के हस्तक्षेप से मामला फिलहाल सेटल हो गया है। फिलहाल यह नहीं मालूम कि मंत्री ने तराजू के एक पलड़े पर डीएफओ का अपराध रख दूसरे पलड़े पर क्या रखकर तौला है।