
पहरेदारी
सरकारी अस्पतालों की दीवारें अक्सर चीखों से नहीं, खामोशियों से गूंजा करती है. इन अस्पतालों में मरीजों की लाचारियों का शोर नहीं होता, क्योंकि मरीज की सांसें कई बार बिना आवाज-बिना सिसकियों के टूट जाती हैं. मरीजों की सांस का टूट जाना, उनकी जिंदगी का छीन जाना है. सरकारी अस्पतालों की भीड़ में न जाने कितनी ही मजबूरियां होंगी, जो खो जाती है. सरकारी अस्पतालों में मरीजों की पीड़ा, टूटे फूटे बिस्तर, बदबूदार गलियारा, कबाड़ में पड़ी नई मशीनें, जरूरत की दवाओं का अभाव, गंभीर मरीजों की जान बचाने वाला बेजान ऑपरेशन थियेटर जैसी कई तस्वीरें हैं, जो यदाकदा पत्रकारों की नजरों में कैद होकर कलम की स्याही से होते हुए कागज पर उतरती हैं. उन तस्वीरों की जगह शब्द ले लेते हैं. शायद यही शब्द है, जो सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था को कचोटते हैं. चुभते हैं. गहरा घाव देते हैं. शब्दों के चोट के घाव गहरे होते हैं. गहरे घाव अक्सर निशान छोड़ जाते हैं. पिछले दिनों शब्दों की चोट से घायल स्वास्थ्य महकमे ने पत्रकारों पर बंदिशे लगाने वाला एक सरकारी आदेश जारी किया. स्वास्थ्य महकमे के सचिव ने इस आदेश पर 13 तारीख को दस्तखत किए, लेकिन जारी करने की मियाद तय कर दी. सरकारी आदेश पर दस्तखत के कुछ दिनों बाद सचिव विदेश दौरे पर जा रहे थे. उधर सचिव रवाना हुए, इधर मातहतों ने आदेश जारी कर दिया. सरकारी आदेश पर पत्रकारों ने चौतरफा विरोध दर्ज कराया. विरोध की आवाज तेज थी, सरकार के कानों में साफ-साफ सुनाई दी होगी, शायद इसलिए ही पहले स्वास्थ्य मंत्री ने बिगड़ते हालात को संभालने की कोशिश की और बाद में सूबे के मुखिया ने खुद ही कमान संभाल लिया. मुखिया ने अफसरों को दो टूक कह दिया आदेश वापस लिया जाए. मगर स्वास्थ्य महकमे ने आदेश वापस नहीं लिया, केवल स्थगित किया है. ऐसा नहीं है कि पत्रकार की नजर सिर्फ़ खामियां ढूँढती हैं. इन्हीं सरकारी अस्पतालों में होने वाले सफल जटिल किस्म के ऑपरेशन की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनती है. पत्रकार यह बखूबी समझता है कि गरीब की आखिरी उम्मीद यही सरकारी अस्पताल है, लेकिन स्वास्थ्य महकमा अगर सोचे कि पत्रकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले आदेश से अस्पतालों की अव्यवस्थाओं पर कैमरे न झांके, कलम की स्याही सूख जाये, पत्रकारों पर पहरेदारी लगा दी जाए. तब यह महसूस होता है कि यह पहरेदारी दरअसल उस डर का सबूत है, जो मरीजों की आड़ में की गई गड़बड़ी की नहीं, बल्कि उस गड़बड़ी के उजागर होने पर है. पत्रकारों के हाथों पर अनुमति की हथकड़ी लगाकर स्वास्थ्य महकमा अस्पतालों की छवि नहीं बचा रहा, अपनी बदनीयत का चेहरा छुपा रहा है.
कितना अच्छा होता !
कितना अच्छा होता, अगर सरकार एक ऐसा आदेश जारी करती, जिसमें यह लिखा होता कि सरकार के मंत्री, नौकरशाह समेत तमाम अधिकारी-कर्मचारी खुद का और अपने परिजनों का इलाज केवल सरकारी अस्पतालों में ही कराएंगे. निजी अस्पतालों में कराई जाने वाली इलाज की ‘सरकारी भरपाई’ नहीं होगी. यकीन मानिए एक पल में ही राज्य के सभी सरकारी अस्पतालों की तस्वीर बदल जाएगी. सरकारी अस्पतालों को कथित तौर पर ‘विश्व स्तरीय’ बताए जाने वाले सरकारी बयानों को सच्चा अर्थ मिल जाएगा. सरकारी अस्पतालों पर टूटता भरोसा बहाल हो जाएगा. मगर न तो सरकार ऐसा चाहती दिखती है, न ही नौकरशाही. बहरहाल, आखिर यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि सरकार के मंत्री अपने खुद के इलाज या अपने परिजनों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों की ओर दौड़ क्यों लगाते हैं? आखिर यह सवाल जिम्मेदार नौकरशाहों से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि इलाज की जरूरत पड़ने पर उनका भरोसा सरकारी अस्पतालों पर क्यों नहीं टिकता? मंत्री हो या नौकरशाह जब उन्हें तमाम सुख-सुविधाएं सरकारी चाहिए, तो फिर इलाज निजी क्यों? बस्तर में नक्सलवाद के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ रहे जवानों के जख्मी होने पर आखिर क्यों उन्हें राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में दाखिल नहीं कराया जाता? हजारों करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी क्या सरकार कथित ‘विश्व स्तरीय’ अस्पताल खड़ा नहीं कर पाई? दरअसल सरकारी अस्पताल सिर्फ और सिर्फ उस तबके का सहारा है, जिसके वोट के बूते किसी पार्टी को सत्ता नसीब होती है. चुनाव उस तबके को भरोसा देता है और चुनावी नतीजे उनके भरोसे पर सिर्फ ‘रफू’ लगाने का काम करते हैं. किसी सरकार से एक आम की उम्मीद उसकी बदहाल, फटेहाल जिंदगी में सिवाय एक ‘रफू’ के कुछ भी नहीं ! न जाने क्यों सरकार इन सब बातों पर हैरान नहीं होती कि जिस सरकारी अस्पताल पर सरकारी तंत्र का ही भरोसा नहीं, वह सरकारी अस्पताल राज्य के गरीब तबके का स्वास्थ्य ठीक कर रहा है.
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मेरा आदमी
एक जिला है, जहां भू जल स्तर की गिरावट इतनी है कि सरकार भी परेशान हो गई है. सरकार समाधान ढूंढ रही है कि गिरते भू जल स्तर को कैसे दुरुस्त कैसे किया जाए? खैर, इस जिले में सिर्फ भू जल स्तर ही नहीं गिरा है. भू शासन का स्तर भी रसातल में पहुंच गया है. कुछ दिन पहले की बात है. इस जिले में अवैध बोर खनन की शिकायत पर कार्रवाई हो गई. बोर खनन में लगी गाड़ी जब्त कर ली गई. किसी ने गाड़ी मालिक को सलाह दी कि कलेक्टर से मिलकर याचना करें, तो गाड़ी छूट सकती है. वह कलेक्टर कार्यालय पहुंच गया. कलेक्टर ने उसे अतिरिक्त कलेक्टर के पास भेज दिया. अतिरिक्त कलेक्टर ने डेढ़ लाख रुपए पेशगी का फरमान सुना दिया. इस बीच ही गाड़ी मालिक को रूलिंग पार्टी से जुड़ा एक छुटभैया नेता मिल गया, जिसने मंत्री से पैरवी करने का भरोसा दिलाया. छुटभैया नेता के साथ गाड़ी मालिक मंत्री तक जा पहुंचा. मंत्री ने विचार-विमर्श करने के फौरन बाद कलेक्टर को फोन लगाया और कहा कि अवैध बोर खनन के नाम पर जब्त की गई गाड़ी छोड़ दीजिए. यह ‘मेरा आदमी’ है. मंत्री का यह कथित ‘मेरा आदमी’ पहली मर्तबा मंत्री से मिल रहा था. इस फोन के बाद मंत्री ने ‘मेरा आदमी’ कहने भर की फीस एक लाख रुपए वसूल ली. गाड़ी मालिक ने भी सोचा कि पचास हजार रुपए तो बच गए. वह खुशी-खुशी लौट आया, मगर उसकी खुशी चंद लम्हों की रही. गाड़ी छुटी नहीं. गाड़ी मालिक ने यह कहकर खुद को सांत्वना दी कि सरकारी कामकाज ऐसे ही होता है. दो-तीन दिन में गाड़ी मिल जाएगी, मगर दो-तीन दिन बीतने के बाद भी गाड़ी नहीं मिली. थक हार कर गाड़ी मालिक ने कलेक्टर से फिर से याचना की. कलेक्टर कुछ फुसफुसाए. इसके बाद गाड़ी मालिक फिर अतिरिक्त कलेक्टर के पास पहुंच गया. दोनों की बातचीत वहीं पर लौट आई, जहां से शुरू हुई थी. गाड़ी मालिक ने डेढ़ लाख की अवैध पर्ची पर पेशगी की रकम चुकाई और खुद को कोसते हुए गाड़ी लेकर लौट आया. पहले ही डेढ़ लाख रुपए चुका दिया होता, तो जेब पर एक लाख रुपए की चोट और नहीं पड़ती. गाड़ी छुड़ाने के लिए गाड़ी मालिक को ढाई लाख रुपए खर्च करने पड़ गए. वह डेढ़ होशियार बन गया था. सोचा था मंत्री के नाम पर अफसर सहम जाएगा. वह भूल गया था कि यह छत्तीसगढ़ है. यूपी-बिहार नहीं, जहां जनपद अध्यक्ष भी किसी कलेक्टर को फोन कर दे, तो कलेक्टर भीगी बिल्ली बन कुर्सी से उठ जाता है. बहरहाल बोन खनन की मशीन जमीन खोदती है और मंत्री-अफसर जनता की उम्मीदें. पिछले दिनों इस जिले में यही मंत्री और अफसर सुशासन तिहार मना रहे थे. गांव-गांव जाकर लोगों से कह रहे थे कि सरकार आपके द्वार है.
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विकास विरोधी मोर्चा
रूलिंग पार्टी के विधायक का काम है कि वह अपने इलाके में ज्यादा से ज्यादा विकास के काम कराए. मगर राजधानी रायपुर से लगी एक विधानसभा के विधायक खुद ही विकास विरोधी मोर्चा के अध्यक्ष बन बैठे हैं. विधायक को अपने क्षेत्र के विकास की चिंता कम, खुद के विकास की चिंता ज्यादा है. सरकार ने इस विधायक के क्षेत्र में कुछ नई सड़क बनाने की मंजूरी दी थी. सड़क बनाने का टेंडर हो गया. ठेकेदार ने काम शुरू कर दिया. मगर विधायक को यह सब नागवार गुजरा. विधायक अब आए दिन ठेकेदार के काम में रोड़े अटका रहे हैं. न सड़क बन रही है, न विकास हो रहा है. सड़क बनेगी तो विधायक का उस इलाके में नाम होगा. मगर यहां विधायक को नाम कमाने की कोई चिंता नहीं है. विधायक का नाम बड़ा करने का ठेका समाज ने उठा रखा है. समाज है, तो राजनीति है और राजनीति है, तो कमाई है. विधायक का यही मूल मंत्र है. सो विधायक की रुचि खुद की कमाई बढ़ाने में है. ठेकेदार ने टेंडर लिया था, तो सोच लिया कि काम आसानी से हो जाएगा, मगर यह भूल गया कि टेंडर देना सरकार का काम है और काम में अड़चन लगाने का विधायक का. विधायक की अड़चनों से ठेकेदार और विभाग दोनों परेशान हैं. उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा. जब तक विधायक जी की जेब की मोटाई नहीं बढ़ेगी, सड़क में डामर नहीं बिछेगा. ठेकेदार अब बिटुमिन की क्वालिटी पर कंप्रोमाइज कर सड़क बनाने को सोच रहा है. मानसून आ गया है. सड़क धूल जाएगी, तब जनता की गालियां सरकार के हिस्से आएगी. अक्सर छोटी- छोटी सी बात कितनी बड़ी हो जाती है. सरकार समझ भी नहीं पाती.
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मुख्य सचिव कौन?
करीब हफ्ते भर बाद राज्य के नए मुख्य सचिव के नाम का ऐलान होना है, लेकिन सरकार की ओर से इस बात का इशारा भी नहीं है कि नए मुख्य सचिव के रूप में किसकी ताजपोशी होगी. ब्यूरोक्रेसी कहती है कि यह इशारा तब होता जब सरकार को मालूम होता कि मुख्य सचिव कौन बनेगा? सरकार भी कंफ्यूज है. मसलन सरकार कहीं कोई नाम फाइनल कर दे और दिल्ली उस पर वीटो लगा दे, तब क्या ही किया जा सकता है? मध्य प्रदेश की तरह सूबे की सरकार फजीहत नहीं कराना चाहती. मध्य प्रदेश में राज्य सरकार कुछ और चाहती थी, दिल्ली ने कुछ और तय कर दिया. मौजूदा मुख्य सचिव अमिताभ जैन के विकल्प के रूप में अमित अग्रवाल, सुब्रत साहू और मनोज पिंगुआ के नाम की चर्चा तेज है, लेकिन हर नाम समीकरणों के दायरे में है. किसी नाम के साथ कुछ समीकरण है, तो किसी नाम के साथ कुछ. सरकार दिल्ली से मिलने वाले संकेतों पर टकटकी लगाए बैठी है. उधर से किसी एक नाम पर इशारा होने भर की देरी है, इधर हरकत शुरू कर दी जाएगी. फिलहाल मुख्य सचिव बनने की उम्मीद में बैठे अफसरों की दिलों की धड़कन तेज है. कुछ अफसर सरकार के फैसलों पर खामोश नजर बनाए हुए हैं, तो कुछ अफसरों ने नीति निर्धारकों से मुलाकात का उपक्रम जारी रखा है. फिलहाल यह मालूम नहीं कि क्या होगा?
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कहीं 13 का फेर तो नहीं !
राज्य में अब तक 12 मुख्य सचिव हुए हैं. 13 वां मुख्य सचिव बनाया जाना है. कहते हैं कि देश की ब्यूरोक्रेसी पश्चिम की देन है और पश्चिम में 13 नंबर शुभ नहीं माना जाता. नंबरों की भी अपनी प्रतिष्ठा होती है. 12 वां नंबर शुभ माना जाता है. शायद इसलिए ही अमिताभ जैन मुख्य सचिव के रूप में रिकार्ड पारी खेल कर जा रहे हैं. वह राज्य के 12 वें मुख्य सचिव हैं. सचिन तेंदुलकर की तरह ही उनका रिकॉर्ड तोड़ पाना मुश्किल ही है. सूबे की सत्ता भाजपा की है और भाजपा ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष-वास्तु,अंक गणित-टैरो कार्ड यह सब मानने वाली पार्टी है. सरकार के करीबी कहते हैं कि मुख्य सचिव का मसला कोई ब्यूरोक्रेटिक योग नहीं, बल्कि अंक ज्योतिषीय द्वंद में फंस गया है. सरकार ज्योतिषियों से चर्चा कर रही है कि राज्य में मुख्य सचिव का नंबर 13 की बजाए 12 ए क्यों न कर दिया जाए? या फिर सीधे 14. ज्योतिषियों ने यह बताया है कि अगर मंगल वक्री हुआ तो 13 नंबर का मुख्य सचिव निर्णय नहीं ले पाएगा. सरकार के पास काम दिखाने के लिए एक साल का ही वक्त है, इसके बाद के साल से चुनावी तैयारियां शुरू हो जाएगी. सो सरकार भी पशोपेश में पड़ गई है. मुख्य सचिव की कोई कुर्सी न हो मानो कोई आफत हो गई हो. सरकार हर संभावित नाम की कुंडली देख रही है. किसी की कुंडली में शनि भारी है, तो किसी की कुंडली में राहु-केतु ने अड़ंगा लगा रखा है. फिलहाल तो यही लग रहा है कि जब तक ग्रह, गणित और गुट मिलकर कोई रास्ता नहीं निकाल लेते, तब तक 13वां मुख्य सचिव भी इंतज़ार करता रहेगा और सरकार कहती रहेगी कि हम जल्द ही निर्णय लेंगे. बस चंद्रमा का गोचर अनुकूल होने दीजिए.