रायपुर. किसी भी चीज की अति सर्वथा घातक होता है. इसीलिए कहा जाता है कि किसी के अच्छे गुण भी दुर्गुण में बदल जाते है जब वह उसकी अति कर देता है.

अति रूपेण वै सीता ह्यतिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बध्दो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।

अति रूपवती होने के कारण सीता का हरण हुआ. अति गर्व के कारण रावण मारा गया और अति दानी होने के कारण राजा बलि बन्धन में पड़ गए. अतः निश्चित ही अति का सर्वत्र त्याग किया जाना चाहिए. अति महत्वाकांक्षा ही व्यक्ति से नैतिक-अनैतिक, वैधानिक-अवैधानिक, सामाजिक-असाजिक कार्य कराती है.

महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है किंतु अति सर्वत्र वर्जयेत् अर्थात् अपनी सामर्थ्य से अधिक की चाह अथवा गलत तरीके से महत्वाकांक्षा की पूर्ति पतन की ओर ले जा सकती है. कई बार ये महत्वाकांक्षा कानूनी शिकंजे का कारण भी बनती है. अति किसी भी कार्य या व्यवहार में किया जाए, हानि तथा कष्ट का कारण हो सकता है. सामाजिक प्रतिष्ठा तथा मानसिक कष्ट भी प्रभावित हो सकती है इसका पूर्ण आकलन ज्योतिष द्वारा किया जाना संभव है.

अगर किसी की कुंडली में तीसरे स्थान का स्वामी छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो अथवा तीसरे स्थान में मंगल शुक्र जैसे ग्रह हों अथवा इन ग्रह के साथ राहु हो या इन स्थान पर यदि कू्रर, प्रतिकूल ग्रह बैठे हों तो व्यक्ति की महत्वाकांक्षा ज्यादा रहती है. इनकी दशाओं और अंतदशाओं में अपनी क्षमता से ज्यादा की चाह भी कर सकता है. इसके साथ ही षष्ठेश एवं अष्टमेश किस स्थिति में है उससे किस प्रकार का अतिरेक्त की चाह होगी इसका कारण ज्ञात किया जा सकता है.

अगर अति की कामना जाग रही हो और दूसरो की तुलना कर अपनी क्षमता से ज्यादा पाने के लिए गलत या विपरीत मार्ग चुनने में भी कोताही न बरती जा रही हो, तो ऐसे जातक की कुंडली का जरूर अध्ययन करना चाहिए और जिन ग्रहों की विपरीत स्थिति या परिस्थितियों में कष्ट उत्पन्न हों, उसके ग्रहों की स्थिति, दशाओं का ज्ञान कर उसके अनुरूप आवश्यक उपाय जीवन में कष्टों की समाप्ति कर जीवन सुखमय बनाता हैं.