रायपुर। मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने ट्वीट करके ईशा फाऊंडेशन के नदियों के बचाने के अभियान का समर्थन किया है. उन्होंने इस प्रयास की शुरुआत करने वाले सदगुरु की प्रशंसा की है. क्या इस ट्वीट को केवल एक रस्म अदायगी समझा जाए या फिर इसे एक संकेत के रुप में देखा जाए. संकेत इस बात के कि अब उनकी अगुवाई वाली छत्तीसगढ़ सरकार नदियों के संरक्षण को लेकर ठोस कदम उठाएगी.

रमन सिंह जिस समय ये ट्वीट कर रहे हैं उस वक्त उनका प्रदेश भयंकर सूखे की चपेट में पड़ता दिख रहा है. हालात इस कदर खराब हैं कि गर्मियों में पीने के पानी के लिए तरसना पड़ सकता है. 21 जिलों की 96 तहसीलें सूखाग्रस्त घोषित हो चुकी हैें. जिन तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित नहीं किया गया है वहां भी हालात सामान्य नहीं कही जा सकते. ऐसे हालात में सरकार की मशीनरी के साथ आवाम यह सोचने को मजबूर है कि आखिर सूखे के हालात में पानी के संकट से कैसे निपटा जाए. चूंकि जब गर्मी ज़्यादा पड़ती तो लोगों को पेड़ों का और कम बारिश में जल संरक्षण का महत्व समझ सबको समझ में आता है तो क्या राज्य सरकार को नदियों की महत्ता समझ में आ रही है और तालाबों की ज़रूरत महसूस हो रही है?

राज्य में तीन प्रमुख नदियां है. अरपा, महानदी और इंद्रावती. इंद्रावती बस्तर के बीहड़ों से बहती है जहां इंसानी हस्तक्षेप छत्तीसगढ़ के इलाके में सीमित है जिससे इंद्रावती अभी सुरक्षित नज़र आती है. जबकि अरपा और महानदी अपनी सहायक नदियों के साथ पूरे मैदानी भू-भाग की मानवीय, कृषि और औद्योगिक ज़रूरतों को पूरा कर रही है. लेकिन इसमें एक जबरदस्त असंतुलन दिखना शुरु हो गया है. इसकी बड़ी वजह है इन नदियों में पर्याप्त जल का नही होना है. पिछले साल छत्तीसगढ़ आए जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने अरपा की दुर्दशा देखी तो दंग रह गए. यहां उन्हें अरपा नाम की नदी नज़र नहीं आई बल्कि रेल के पहाड़ ही नज़र आए. कुछ वैसा ही हाल महानदी और उसकी सहायक खारुन नदी का है.

जब 2003 में नई सरकार आई थी तब उन्होंने जल संरक्षण के लिए एनीकट बनाने का सुझाव दिया था लेकिन सरकारी विभाग ने कुछ सौ मीटर के फासले पर एनीकट बनवा दिए. रेत के अवैध उत्खनन ने हालात इतने बिगाड़ दिए कि अरपा बिलासपुर में मृतपाय अवस्था में है. रायपुर में खारुन भी इसी हालत में दिखती है. सरकार एनीकट बनाकर शहरों और उद्योगों की ज़रूरतें पूरी करने की कोशिश में लगी है. लेकिन ये ज़रूरत भी पूरी नहीं हो रही है. जिस साल कम बारिश होती है संकट दिखने लगता है. पूरे देश में कमोवेश ऐसे ही हालात हैं.

ऐसा नहीं है कि नदियों पर संकट केवल एनीकट बनाने से आया है. पहले नदियां गर्मियों में सूखती थीं. अब प्राय: सभी नदियां सर्दियां खत्म होते-होते सूख जाती हैं. इसकी दो प्रमुख वजहें हैं. नदी जहां से बहती है उसके आसपास जल का जमकर दोहन किया जा रहा है. तालाब नष्ट हो चुके हैं. कौन यकीन करेगा कि रायपुर में कभी 100 से ज़्यादा तालाबें थीं. हर कोई नलकूप से अंडर ग्राऊंड वाटर डिस्चार्ज हो रहा है. इसलिए जब नदी बहती है तो उसके पानी का बड़ा हिस्सा इसके रिचार्ज में चला जाता है. दूसरी बड़ी वजह पेड़ों का कटना है. पेड़ पौधे पानी के स्तर को बनाए रखने में मददगार होते हैं. छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में बड़ी तेज़ी से जंगल कटे हैं. जो एक बड़ी वजह है.

दो साल पहले कोरिया में करीब 60 फीसदी कम बारिश हुई थी. सरकार ने कम बारिश को देखते हुए जगह-जगह नदी नालों का पानी रोक दिया था ताकि इंसान और मवेशी को पीने के पानी की किल्लत न हो.  उस वक्त इलाके के जनकपुर और सोनहत ब्लॉक में बहने वाली नदियों में सीमेंट की बोरियों में रेत भरकर अस्थाई एनीकट बनाए गए थे. लेकिन हैरानी की बात है कि इतनी कम बारिश के बाद भी यहां की नदियों में पानी था. जहां कहीं एनीकट बनाए गए थे वहां ज़रूर कुछ दूरी तक पानी सूख गए थे लेकिन बाकी जगहों पर नदियां बह रही थीं.

ये बात महत्वपूर्ण है कि इसी इलाके में जो छोटी और मझौले आकार की नदियां होती हैं वो सोन और रेण नदी में मिलकर वाराणसी तक पहुंचने के बाद कमजोर हो चुकी गंगा को ताकत देती हैं. यहां की नदियों में सालभर पानी होता है. गौरतलब है कि ये घने वृक्षों से आच्छादित हैं. मध्यप्रदेश सरकार ने इस साल नर्मदा में पानी कम होने के बाद इसके तटों पर वृक्षों को लगाने के लिए नमामि देवी नर्मदे नाम से एक अभियान शुरु किया. दरअसल, वक्त की ये ज़रूरत है. पेड़ लगाकर जलस्तर को बनाए रखा जाए.

आपको ये पता है कि कावेरी, गोदावरी, नर्मदा 20 से 60 फीसदी तक सूख चुकी हैं लेकिन अरपा और महानदी कितने प्रतिशत सूखीं ये आंकड़ा किसी के पास नहीं है. सदगुरु नदियों को बचाने का अभियान चला रहे हैं. नदियों को बचाने के लिए जरुरी है कि पेड़ और पहाड़ भी बचाए जाएं ताकि ज़िंदगी कायम रह सके.