रायपुर। मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के मीडिया प्रभारी के आलेख का कांग्रेस प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला ने जवाब दिया है. सुशील आनंद शुक्ला ने बयान जारी करके कहा है कि आरएसएस को उसके एक प्रचारक द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के कलंक से बचाया नहीं जा सकता.
हम ज्यों का त्यों सुशील आनंद शुक्ला का बयान जारी कर रहे हैं. ये पूर्णत उनका निजी बयान है.
– सुशील आनंद शुक्ला
आरएसएस को उसके प्रचारक के द्वारा की गई महात्मा गांधी की हत्या के कलंक से इस प्रकार के मनगढंत और तथ्यहीन लेख से बचाया नहीं जा सकता. 1948 से ही गांधी की हत्या के इस पाप को धोने के लिए लाख जतन करने के बाद आज भी भारत के जनमानस में उसकी छवि एक अतिवादी संगठन की ही बन कर रह गयी. गांधी की हत्या के बाद लम्बे समय तक जनमानस में घर कर गयी. संघ के प्रति नफरत और रुसवाई को दूर करने प्रायश्चित की तमाम हथकंडे अपनाए गए. जिन वृद्ध और कृशकाय गांधी को कुछ और वर्ष अर्थात पूरी आयु तक भी जीवित देखना मंजूर नही था. उन्ही महात्मा गांधी के नाम के आवरण ओढ़ने की नौटन्की करने का उपक्रम संघ दीक्षित शिष्यों ने अनेक बार किया. तो इसके पीछे भारत के जनमन में गांधी और उनके आदर्शों के प्रति भरी हुई कूट कूट कर आस्था का दबाव है.
स्वतन्त्रता की लड़ाई में कमोबेश अंग्रेजो का साथ देने और अंग्रेजी हुकूमत को भारत के हित में बताने वाले लोग अंग्रेजो की बिदाई के साथ ही अपने अस्तित्व के बचाव के जद्दोजहद मे कसमसा रहे थे. आजादी के बाद अपने आपको देश के लोगो की निगाहों में प्रासंगिक बनाये रखने के लिये भी जरूरी था कि विभाजन का विरोध कर रहे महात्मा गांधी को मार कर उन्हें हिन्दू विरोधी साबित कर दिया जाय.
भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही देश के प्रबुद्ध वर्ग के लोगो में आरएसएस और हिन्दुमहासभा की भूमिका पर भी सवाल उठने शुरू हो गए थे. आखिर हिन्दुमहासभा का गठन 1922में हो चुका था देश आज़ाद 1947 हुआ अपने स्थापना काल से आजादी तक के इन पच्चीस सालो में इस संगठन ने इस लड़ाई में क्या योगदान दिया? उल्टे अपने कार्यो से आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रही कांग्रेस और गांधी जी का विरोध कर अंग्रेजो के खिलाफ चल रहे आंदोलन को कमजोर करने के आरोप इनके ऊपर लगते रहे. हिंदू धर्म के सच्चे अध्येता और अपनी मृत्यु के अंतिम समय भी अपने आराध्य हेराम ! का सुमिरन कर महात्मा गांधी ने राम नाम और हिंदुत्व का चोला ओढ़े कलनेमियों को मरते मरते भी बेनकाब कर दिया था. गांधी को मार कर मकसद हासिल नही कर पाए तब गांधीवादी बनने का ढोंग रचने लगे.
पहले गोंड़से को महिमा मंडित किया गांधी को कोसा. फिर भी जनता ने गांधी की हत्या को अक्षम्य माना । गांधी के हत्यारों से लोग नफरत करने लगे तब नया पैतरा गोंड़से को भटका हुआ नौजवान और उसके द्वारा गांधी की हत्या देश हित मे बिना किसी गलत इरादे के की गई बता कर गोंड़से के साथ गोंड़से वादी अपने फर्जी राष्ट्रवाद के आवरण को जीर्ण शीर्ण होने से बचाने में लग गए. स्वतन्त्रता आंदोलन में अपने पूर्वजों की शून्य और शर्मनाक भूमिका से हताश संघ और भाजपा के लोगो ने आजादी की लड़ाई में शामिल रहे कांग्रेस नेताओं की नुक्ता चीनी कर अपने को इससे जोड़ रखने का नुस्खा खोजा.
गांधी ,नेहरू ,पटेल के रिश्तों की काल्पनिक व्यख्या भगत सिंह की फांसी रोकने में गांधी की भूमिका के संदर्भ की झूठी कहानियां इनके प्रिय विषय रहे. हमारे पूर्वजो ने कुछ किया नही तब जिन्होंने किया उनको कोस कर कुछ ध्यानाकर्षण किया जाय इनकी नीति रहेगी. अपने जीवन के बड़े हिस्से को जेल की काल कोठरी के भीतर गुजारने वाले तत्कालीन समय के सबसे बड़े बेरिस्टर के एक मात्र पुत्र जवाहर लाल नेहरू की शाहखर्ची जीवन शैली की खूब काल्पनिक कहानियां गढ़ कर परोसने का उपक्रम आज तक भी बंद नही किया है. देश के लिए सर्वश्व न्योछावर करने वाले महापुरुषों की संमृद्ध विरासत वाली कांग्रेस के समाने अपनी कुंठा को दूर करने छद्म आवरण तैयार कर महापुरुष गढ़ने की कवायद शुरू की गई.
देश की आजादी के समय 1947 में 31 वर्ष के परिपक्व नौजवान दीन दयाल उपाध्याय का स्वतन्त्रता की लड़ाई में योगदान पूछने पर संघी मुह छुपाने लगते है. उनकी मृत्यु पर सवाल खड़ा करना व्यक्तिगत टिप्पणी हो जाएगी और कांग्रेस पोषित मेरे संस्कारो के विरुद्ध हो जाएगा अन्यथा तथ्य पूर्ण सवाल और राघवी कहानियां तो हमारे पास भी है.