नई दिल्ली. राष्ट्रीय सेवा संघ (RSS) ने अपने 100 साल पूरे कर लिए हैं. इस खास अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘100 वर्ष की संघ यात्रा – नए क्षितिज’ विषय पर तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का कार्यक्रम किया गया. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यक्रम को संबोधित किया. इस दौरान उन्होंनेआजादी के आंदोलन में संघ की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला. साथ ही हिंदू राष्ट्र, विश्व गुरु का अर्थ भी समझाया. इस कार्यक्रम में सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, उत्तर क्षेत्र संघचालक पवन जिंदल और दिल्ली प्रांत के संघचालक डॉ. अनिल अग्रवाल मंच पर उपस्थित रहे. वहीं सेवानिवृत न्यायदगीश, पूर्व सेनाधिकारी,  खेल, कला और अन्य क्षेत्र से जुड़ी हस्तियां मौजूद रही. 

संघ शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला के प्रथम दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में है. संघ कार्य की प्रेरणा संघ प्रार्थना के अंत में कहे जाने वाले “भारत माता की जय” से मिलती है. संघ के उत्थान की प्रक्रिया धीमी और लंबी रही है, जो आज भी निरंतर जारी है. उन्होंने कहा कि संघ भले हिन्दू शब्द का उपयोग करता है, लेकिन उसका मर्म ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है. इसी क्रमिक विकास के तहत गांव, समाज और राष्ट्र को संघ अपना मानता है. संघ कार्य पूरी तरह स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होता है. कार्यकर्ता स्वयं नए कार्यकर्ता तैयार करते हैं.

व्याख्यानमाला के उद्देश्य पर मोहन भागवत ने कहा कि संगठन ने विचार किया कि समाज में संघ के बारे में सत्य और सही जानकारी पहुंचनी चाहिए. वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार का आयोजन हुआ था. इस बार चार स्थानों पर कार्यक्रम आयोजित होंगे ताकि अधिक से अधिक लोगों तक संघ का सही स्वरूप पहुँच सके. उन्होंने कहा कि राष्ट्र की परिभाषा सत्ता पर आधारित नहीं है. हम परतंत्र थे, तब भी राष्ट्र था. अंग्रे का ‘नेशन’ शब्द ‘स्टेट’ से जुड़ा है, जबकि भारतीय राष्ट्र की अवधारणा सत्ता से जुड़ी नहीं है.

स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद देश में उप विचारधाराओं का विकास पर कहा कि 1857 में स्वतंत्रता का पहला प्रयास असफल रहा, लेकिन उससे नई चेतना जागी. उसके बाद आंदोलन खड़ा हुआ कि आखिर कुछ मुट्ठीभर लोग हमें कैसे हरा सके? एक विचार यह भी उभरा कि भारतीयों में राजनीतिक समझ की कमी है. इसी आवश्यकता से कांग्रेस का उदय हुआ, लेकिन स्वतंत्रता के बाद वह वैचारिक प्रबोधन का कार्य सही प्रकार से नहीं कर सकी. यह दोषारोपण नहीं, बल्कि तथ्य है. आजादी के बाद एक धारा ने सामाजिक कुरीतियों को मिटाने पर जोर दिया, वहीं दूसरी धारा ने अपने मूल की ओर लौटने की बात रखी. स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद ने इस विचार को आगे बढ़ाया.

उन्होंने कहा कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना सब प्रयास अधूरे रहेंगे. बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं. हेडगेवार ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे. 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिन्दू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा.

हिन्दू नाम का मर्म समझाते हुए सरसंघचालक ने स्पष्ट किया कि ‘हिन्दू’ शब्द का अर्थ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का भाव है. यह नाम दूसरों ने दिया, पर हम अपने को हमेशा मानव शास्त्रीय दृष्टि से देखते आये हैं. हम मानते हैं कि मनुष्य, मानवता और सृष्टि आपस में जुड़े हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं. हिन्दू का अर्थ है समावेश और समावेश की कोई सीमा नहीं होती. सरसंघचालक ने कहा कि हिन्दू यानी क्या – जो इसमें विश्वास करता है, अपने अपने रास्ते पर चलो, दूसरों को बदलो मत. दूसरे की श्रद्धा का भी सम्मान करो, अपमान मत करो, ये परंपरा जिनकी है, संस्कृति जिनकी है, वो हिन्दू हैं. हमें संपूर्ण हिन्दू समाज का संगठन करना है. हिन्दू कहने से यह अर्थ नहीं है कि हिन्दू वर्सेस ऑल, ऐसा बिल्कुल नहीं है. ‘हिन्दू’ का अर्थ है समावेशी.

उन्होंने कहा कि भारत का स्वभाव समन्वय का है, संघर्ष का नहीं है. भारत की एकता का रहस्य उसके भूगोल, संसाधनों और आत्मचिंतन की परंपरा में है. हमने बाहर देखने के बजाय भीतर झाँककर सत्य को तलाशा. इसी दृष्टि ने हमें सिखाया कि सबमें एक ही तत्व है, भले ही वह अलग-अलग रूपों में दिखता हो. यही कारण है कि भारत माता और पूर्वज हमारे लिए पूजनीय हैं.

मोहन भागवत ने कहा कि भारत माता और अपने पूर्वजों को मानने वाला ही सच्चा हिन्दू है. कुछ लोग खुद को हिन्दू मानते हैं, कुछ भारतीय या सनातनी कहते हैं. शब्द बदल सकते हैं, लेकिन इनके पीछे भक्ति और श्रद्धा की भावना निहित है. भारत की परंपरा और डीएनए सभी को जोड़ता है. विविधता में एकता ही भारत की पहचान है. उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे वे लोग भी स्वयं को हिन्दू कहने लगे हैं, जो पहले इससे दूरी रखते थे. क्योंकि जब वन की गुणवत्ता बेहतर होती है तो लोग मूल की ओर लौटते हैं. हम लोग ऐसा नहीं कहते कि आप हिन्दू ही कहो. आप हिन्दू हो, ये हम बताते हैं. इन शब्दों के पीछे शब्दार्थ नहीं है, कंटेंट है, उस कंटेंट में भारत माता की भक्ति है, पूर्वजों की परंपरा है. 40 हजार वर्ष पूर्व से भारत के लोगों का डीएनए एक है. उन्होंने कहा कि जो अपने आपको हिन्दू कह रहे हैं, उनका वन अच्छा बनाओ. जो नहीं कहते वो भी कहने लगेंगे. जो किसी कारण भूल गये, उनको भी याद आयेगा. लेकिन करना क्या है, संपूर्ण हिन्दू समाज का संगठन. जब हम हिन्दू राष्ट्र कहते हैं तो किसी को छोड़ रहे हैं, ऐसा नहीं है. संघ किसी विरोध में और प्रतिक्रिया के लिए नहीं निकला है. हिन्दू राष्ट्र का सत्ता से कोई लेना देना नहीं है.

उन्होंने संघ कार्य पद्धति के बारे में कहा कि समाज उत्थान के लिए संघ दो मार्ग अपनाता है – पहला, मनुष्यों का विकास करना और दूसरा उन्हीं से आगे समाज कार्य कराना. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संगठन है. संगठन का कार्य मनुष्य निर्माण का कार्य करना है. संघ के स्वयंसेवक विविध क्षेत्रों में काम करते हैं, लेकिन संगठन उन्हें नियंत्रित नहीं करता. उन्होंने कहा कि संघ को लेकर विरोध भी हुआ और उपेक्षा भी रही. लेकिन संघ ने समाज को अपना ही माना.

व्यक्तिगत समर्पण से चलता है संघ : डॉ. मोहन भागवत

उन्होंने कहा कि संघ की विशेषता है कि यह बाहरी स्रोतों पर निर्भर नहीं, बल्कि स्वयंसेवकों के व्यक्तिगत समर्पण पर चलता है. ‘गुरु दक्षिणा’ संघ की कार्यपद्धति का अभिन्न हिस्सा है, जिसके माध्यम से प्रत्येक स्वयंसेवक संगठन के प्रति अपनी आस्था और प्रतिबद्धता प्रकट करता है. यह प्रक्रिया निरंतर जारी है. हमारा प्रयास होता है कि विचार, संस्कार और आचार ठीक रहे. इतनी हमें स्वयंसवेक की चिंता करनी है, संगठन की चिंता वो करते हैं. हम सबको मिलकर भारत में गुट नहीं बनाना है. सबको संगठित करना है.