गौरव जैन, गौरेला-पेन्ड्रा-मरवाही। कलाधर की कला चरम पर थी. साल 1946 शरद पूर्णिमा को धरती ने श्रृंगार किया था और भारत भूमि के दक्षिण दिशांचल में श्रृंगार को वीतराग की रश्मियों से प्रकाशित करने साधना के सूरज, कर्नाटक के बेलगाम जिला के सदलगा में चिक्कोड़ी गांव के सद्गृहस्थ धार्मिक रूचि से ओतप्रोत परिवार मलप्पा अष्टगे और श्रीमंती की उदर से द्वितीय पुत्र ने जन्म लिया. बाल्यकाल से ही अद्वितीय क्रियाएं दिखाई देने लगीं. बालक विद्याधर सांसारिकता में तत्व की तलाश करने उन्मुख रहते.

किशोरावस्था में विद्याधर ने दिगंबर जैनाचार्य देशभूषण महाराज से आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत लेकर भविष्य के चारित्र चक्रवर्ती की आधारशिला रख दी. दक्षिण के साधना पिपासु ब्रह्मचारी विद्याधर को राजस्थान में ज्ञान के सागर का सानिध्य मिला और 1967 में अजमेर में युगांतरकारी घटना घटित हुई, जब ब्रह्मचारी विद्याधर ने सांसारिक अवलंबनों का पूर्णतः परित्याग करते हुये करपात्री और पदयात्री की दिगंबर मुनिदीक्षा आचार्य ज्ञान सागर महाराज से ली और मोक्षपथ पर कदम बढ़ाया. 1972 में आचार्य ज्ञान सागर महाराज ने अपना आचार्य पद अपने ही शिष्य मुनि विद्यासागर को देकर सल्लेखना का आग्रह किया. जैनदर्शन का यह दुर्लभ योग देख दुनिया आश्चर्यचकित रह गई…

तब से अब तक अनियत विहारी करपात्री पदयात्री की साधना यात्रा अनविरत जारी है. कोई विराम नहीं कोई विश्राम नहीं, किसी से राग नहीं किसी से द्वेष नहीं और जगत के सब जीवों के लिये करुणा दया वात्सल्य का सागर ह्रदयांगम है. आचार्य विद्यासागर उच्चकोटि के आगमानुरूप साधक होने के साथ समाज के उत्थान के लिये वचनों की निर्झरिणी से सतत् दिशा निर्देश भी दे रहे हैं. आपने शांतरस में महाकाव्य मूकमाटी सहित साहित्य का भी अनमोल सृजन किया है जिससे अग्निदग्ध जगत को शीतल धारा मिल रही है.

मोक्षमार्ग के पथ पर चलते हुये अनेक पथिकों का पथप्रदर्शन कर सुपथ पर चलने की प्रेरणा दी दिशाबोध दिया. आचार्य पथिक हैं और पथप्रदर्शक भी, वर्तमान में महाराष्ट्र के शिरपुर में पावस योग चातुर्मास में विराजमान हैं. निजपरहितकारी आचार्य विद्यासागर महाराज संसार में है मगर संसार के नहीं है. वर्तमान युग उन्हें वर्तमान के वर्धमान की छवि देखता है.

पास जिसके अपना कोई
घर नहीं होता,
उसको किसी से कोई
डर नहीं होता।
जमीन बिछौना ओढ़
लिया आसमान,
न कोई अपना न कोई
पराया होता।
नर्मदा के नरम कंकर
पर चलकर,
बताया जग को कि
तोता क्यों रोता।
जिसके स्पर्श से बोलती
माटी मूक, वो
आचार्य विद्यासागर सिवा
दूसरा नहीं होता।
क्षीरनीर से वेद नित्य पावन इन
पावन चरणों को धोता।

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