इस युग के चर्चित कवि मंगलेश डबराल नहीं रहे। कल कोरोना से उनका निधन हो गया। मंगलेश का चला जाना किसी रौशनी से आग के चले जाने जैसा है। अपनी एक कविता ‘टार्च’ में वे लिखते हैं-
“दादी ने कहा- बेटा उजाले में थोड़ी आग भी रहती तो कितना अच्छा था…”
मंगलेश कह रहे थे कि हमारे वक्त की कविताएं टार्च की तरह बेशक अंधेरे को चीर देती हैं। पहाड़ों पर अंधकार में रास्तों के खतरे दिखाती हैं, लेकिन उनमें वह आग अनुपस्थित है, जिसकी जरूरत दादी को अपने चूल्हे के लिए है।
पहाड़ों पर जन्मे मंगलेश डबराल की कविताओं में पहाड़ों जैसा सौंदर्य और वैसा ही संघर्ष हमेशा उपस्थित रहा। उसमें बुनावट रही, बनावट कभी नहीं। इसीलिए उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने अपनी कविताओं का इस्तेमाल मशीनी टार्च की तरह नहीं, बल्कि धधकते हुए मशाल की तरह किया। यह एक विचारों की मशाल थी, जिसमें वंचितों, शोषितों, पीड़ितों के लिए आग भी थी।
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मंगलेश डबराल का यूं चला जाना, साहित्य को एक बड़ी क्षति है। न केवल हिंदी साहित्य को, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य को भी। उनकी कविताओं ने भाषाओं, राज्यों और देशों की सीमाएं लांघ कर लंबी-लंबी यात्राएं कीं। वे जहां-जहां पहुंची, वहां-वहां बसती गईं। वे भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, इतालवी, पुर्तगाली समेत अनेक भाषाओं में अनुदित हुईं। ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
मंगलेश की कविता वर्णमाला की पहली पंक्तियां हैं-
“एक भाषा में अ लिखना चाहता हूं
अ से अनार अ से अमरूद
लेकिन लिखने लगता हूं अ से अनर्थ अ से अत्याचार…”
– एक कवि के रूप में कविता की नयी वर्णमाला रचने वाले मंगलेश डबराल का चले जाना कविता के क्लास-रूम से चॉक के गुम हो जाने जैसा है।
लेखक -तारन प्रकाश सिन्हा
(लेखक छत्तीसगढ़ जनसंपर्क विभाग में जनसंपर्क आयुक्त हैं)