अरबों की हेरोइन पकड़ी गयी कोई हंगामा नहीं चुटकी भर ड्रग्स पर चौबीस घंटे छापामारी की ख़बरें क्यों? देश लूटकर कई कॉर्पोरेट विदेश भाग गए ये सोते रहे पर आये दिन बॉलीवुड के कलाकारों, प्रोड्यूसरों पर छापे क्यों ? बातों बातों पर फिल्मों के प्रदर्शन रुकवाए जाते हैं दूसरी तरफ एक वर्ग लगातार नफ़रत फैलाता है पर हमले बॉलीवुड पर ही होते हैं क्यों ?

ज़ाहिर है इन दिनों बॉलीवुड पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे ,आलम ये है जो टीवी में दिख रहा है NCB की कार्यवाही में बीजेपी का नेता अफसर की तरह एक्शन में दिख रहा. आख़िर ऐसे संगीन ,खुले हमले क्यों ?

अगर हम समझते हैं कि बॉलीवुड पर पिछले कुछ समय से चौतरफ़े हमले सिर्फ़ इसलिए हो रहे क्योंकि सरकार बॉलीवुड को लखनऊ शिफ्ट करना चाहती है ,तो ये कथन अपूर्ण है .

नोएडा में ही अब तक बहुत हाथ -पैर मारकर भी क्या स्थापित कर लिया ?

अगर हम ये समझते हैं बॉलीवुड पर हमले इसलिए हो रहे ताकि कुछ और अनुपम -अजय -अक्षय
मिलें जो ये इंटरव्यू लेें कि आम चूस के खाते हैं या काट के खाते हैं ?..सिर्फ़ ये भी कारण नहीं है . बॉलीवुड के रूप में नोट छापने वाली मशीन मिल जाएगी, ये भी मुख्य कारण नहीं है.

दरअसल ,बड़ी आबादी तक सबसे आसान तरीके से पहुँचने का सशक्त माध्यम टीवी और सिनेमा है .नब्बे फीसद आबादी को कुछ भी पढ़ाइये उतना असर न होगा जितना किसी फिल्म से होगा .ये कड़वा सच है .टीवी पर काबिज़ होने के बाद इस सरकार की पूरी कोशिश है हिन्दुस्तान का ये सबसे तगड़ा माध्यम उनकी मुट्ठी में हो .

इस सरकार की कोशिश है कि ऐसे लोग जिनका आज़ादी के आंदोलन में कोई योगदान न रहा उन पर फ़िल्में बनें और वो जनता के सामने हीरो के तौर पर उभर सकें .

आज के सेक्युलर ,कभी प्रगतिशील रहे हिन्दुस्तान के बनने में सिनेमा का भी बड़ा योगदान रहा. पृथ्वी राज कपूर ,बलराज साहनी ,कैफ़ी आज़मी ख़्वाजा अहमद अब्बास , गुरु दत्त , दिलीप कुमार राजकपूर , सलिल चौधरी ,साहिर , उत्पल दत्त सत्यजीत रे ,ऋत्विक घटक,बासु भट्टाचार्य ,मृणाल सेन , राही मासूम रज़ा ,शबाना आज़मी , स्मिता पाटिल , नसीर ,ओम पुरी अदूर गोपालकृष्णन गोविन्द निहलानी गिरीश कर्नाड ,जावेद अख़्तर जैसी लम्बी सूचि है .

इसी तरह गायकों अन्य अभिनेताओं ,सिने वर्कर्स कि भी लम्बी सूचि है ,जिन्होंने देश को सुंदर ,प्रेरक ,देशभक्ति की ,सांप्रदायिक सदभाव बनाये रखने की लगातार फ़िल्में देश को दीं. फ़िल्मी लेखन का इतिहास देखिये गुलज़ार तो अब भी हैं कभी कमलेश्वर ,नीरज
गीतकार शैलेन्द्र ,अमृत लाल नागर ,भगवतीचरण वर्मा ,अश्क़ सुदर्शन ,नरेंद्र शर्मा और प्रेमचंद जी भी जुड़े थे.

समझिये आज सरकार को दो बीघा ज़मीन ,गर्म हवा ,काबुलीवाला ,नया दौर ,शहीद ,आक्रोश ,अर्धसत्य , मिर्च मसाला ,बाज़ार ,तमस,मंडी ,पार ,दामुल , फायर,वॉटर , माचिस , मुल्क़ जैसी फ़िल्में नहीं बल्कि अन्धविश्वास ,कट्टरता अपने नेताओं पर बायोपिक और अपनी विचार धारा पर आधारित फ़िल्में चाहियें.इसलिए सिर्फ़ शिक्षा , इतिहास से छेड़-छाड़ से काम नहीं चलेगा जब तक सूचना और मनोरंजन के पूरे साधनों पर कब्ज़ा न हो जाये तब तक इनका अभियान चलेगा ताकि आसानी से मध्ययुग -बर्बर युग में वापिसी हो सके .इस रास्ते पर वापिस जाने के लिए ज़रूरी है लोगों की वैज्ञानिक चेतना का नाश हो.

न्यू इंडिया के निर्माण के लिए ज़रूरी है लोगों को अंधराष्ट्रवादी और अलोकतांत्रिक बनाना .ये ज़हर सिर्फ़ मीडिया नहीं फैला सकता सिनेमा इसके लिए बहुत ज़रूरी है . सती प्रथा को जब फिल्मों से महिमामंडित किया जायेगा तो रूप कंवर जैसों की चीखें किसी को क्यों विचलित करेंगी ?

पड़ोसियों को सिर्फ़ दुश्मन के तौर पर पेश किया जायेगा तो युद्ध उन्माद छाया रहेगा , हथियार बिकते रहेंगे भले ही गरीबी भूखमरी बढ़ती रहे . कश्मीर सिर्फ़ आतंकवाद की घाटी है और सेना ही इसकी सर्जरी कर सकती है ,ये यकीन भला सिनेमा से बेहतर कौन दिला सकता है ?

आतंकवाद ,युद्ध ,दंगों पर अपने विचार जनता के दिमाग में डालने और उन्हें विश्वास दिलाने कि ये सरकारी लाइन सही है , फिल्म उद्योग पर नियंत्रण ज़रूरी है. बॉलीवुड के गले से इनकी ही आवाज़ निकले कॉलर पकड़ कर गला इसलिए तो दबाया जा रहा

लेखक – अपूर्व गर्ग

(लेखक राजनीतिक मामलों के जानकार हैं ).