रायपुर। कर्नाटक में दृश्य कमोबेश वैसा ही है कि गाजे-बाजे के साथ दूल्हा बारात लेकर दरवाजे पर पहुंचा और पता चला कि दुल्हन तो किसी और के साथ फुर्र हो गई है। अब पुलिस की मदद से दूल्हन पकड़ में आ भी जाए और फेरे भी हो जाएं, लेकिन फजीहत और जग हंसाई तो हो ही जाती है।

प्रारंभिक रुझानों को ही अंतिम नतीजा मान भारतीय जनता पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने जिन हाथों से खुद की पीठ ठोकी, वह अब अपना माथा ठोक रहे हैं। क्योंकि अंतिम नतीजा बता रहा है कि स्पष्ट बहुमत से आठ सीटें कम रह गई हैं। इधर, कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री हरदन हल्ली डोडे गौड़ा देवगौड़ा का दामन थाम उनके चिंरजीव कुमार स्वामी की सेहराबंदी करने के लिए सत्ता की दहलीज पर घोड़ी बनना स्वीकार कर लिया है। अब सब टकटकी लगाए पुलिस की भूमिका में आए महामहिम राज्यपाल वजूभाई की ओर निहार रहे हैं।

आज के नतीजे वैसे बहुत अनपेक्षित नहीं हैं, सिवाय इसके कि जिस जनता दल, सेक्यूलर को राजनीतिक प्रेक्षकों द्वारा किंग मेकर की भूमिका में आंका जा रहा था, वह मौजूदा परिस्थितियों में खुद ‘किंग’ के रूप में देख रही है। यह भारत के राजनीतिक इतिहास में पहली बार नहीं है। कुमार स्वामी 2004 में एक बार पहले भी सबसे कम 58 सीट लाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुके हैं, अब और तब में फर्क इतना है कि आज कांग्रेस का समर्थन है, तब भारतीय जनता पार्टी का था। उनके पिता देवगौड़ा भी महज 46 सीट लेकर प्रधानमंत्री पद को सशोभित कर चुके हैं। तब 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की महज 13 दिन की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की मदद से तीसरे मोर्चे की सरकार बनी। ऐसे ही चालीस सांसदों के साथ चंद्रशेखर भी कांग्रेस की बैसाखी के सहारे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे थे, वहीं आज कुमार स्वामी दूसरी बार अड़तीस विधायकों की मामूली संख्या के सहारे मुख्यमंत्री पद के लिए संजीदगी भरी ताल कांग्रेस द्वारा खिलाए जा रहे च्यवनप्राश के बूते ठोक रहे हैं।

हरिभूमि के प्रबंध संपादक हिमांशु द्विवेदी की कलम से..

संसदीय परंपराओं का हवाला देते हुए राज्यपाल के लिए यह फैसला करना बहुत कठिन नहीं है कि सदन में सबसे अधिक संख्या में भाजपा के विधायक होने काे आधार मान वह वीएस येदुरप्प्पा को सरकार बनाने का आमंत्रण थमा उन्हें सदन में बहुमत साबित करने का अवसर दे देते, बशर्ते हालिया संपन्न गोवा और मणिपुर के चुनाव का उदाहरण सामने ना होता। देश की जनता अभी भूली नहीं है कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद भी सरकार बनाने का अवसर हासिल नहीं कर सकी थी, क्योंकि भाजपा ने अन्य दलों का समर्थन पत्र देकर स्वयं सरकार बनाने का दावा ठोक दिया था। वैसे यह स्वीकारने में शायद ही किसी को कोई गुरेज हो कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी असंभव को भी संभव बना देने का माद्दा रखती है। जिस कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को महज चालीस सीटें हासिल हुई थीं, आज 104 का आंकड़ा इस जादुई जोड़ी के बूते ही हासिल कर सकी है। यह आंकड़ा भले ही स्पष्ट बहुमत से थोड़ा दूर रह गया है।

लेकिन येदुरप्पा का दावा है कि कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस मुक्त राज्य का जनादेश दिया है, फिर भी कांग्रेस पार्टी पिछले दरवाजे से सत्ता में बने रहने की कोशिश कर रही है। यह बात तो फिर गोवा में भी लागू होती थी जहां भाजपा की सरकार रहते हुए कांग्रेस चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। इसके बाद सरकार बनाने का अवसर अन्य दलों के समर्थन पत्र के आधार पर भाजपा ने ना केवल हासिल किया, बल्कि आज भी सरकार उन्हीं की है।

वैसे यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह का ही खौफ है जिसने कांग्रेस के रणनीतिकारों की तोलने-मोलने की क्षमता ही समाप्त कर दी है। यही खौफ है जिसने अठहत्तर सीटें हासिल करने के बाद भी कांग्रेस को महज अड़तीस विधायकों वाले कुमार स्वामी के समक्ष समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया कि एक सौ अड़तीस साल पुरानी राजनीतिक पार्टी का यह पराभव खासा वेदनापूर्ण है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का अपनी परंपरागत सीट चामुंडेश्वरी सीट से तीस हजार से अधिक वोटों से हारने के बाद शायद यह फैसला लेने के लिए मजबूर कर दिया कि कांग्रेस पार्टी बिना शर्त खुद समर्थन देने देवगौड़ा के घर हाथ जोड़ पहुंच गई। बहरहाल अभी विषय कांग्रेस की बदहाली नहीं बल्कि कर्नाटक में चल रहा वह नाटकीय घटनाक्रम है जो जनता के खंडित जनादेश ने निर्मित कर दिया है। अब दारोमदार राज्यपाल वजूभाई के फैसले और अमित शाह के रणनीतिक कौशल पर है। यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि कांग्रेस और जनता दल सेक्यूलर के चिन्ह पर चुनाव जीते विधायक क्या अपनी निष्ठा कायम रख पाएंगे। वैसे भाजपा सरकार बनाये या न बनाये लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में तो सरकार बनने से रही। खंडित जनादेश भी मोदी शाह के लिए यह सफलता भी खासी सुकून देने वाला है। काल के कपाल पर मोदी-शाह की जोड़ी ने कांग्रेस के पराभव का तो एक नया गीत तो लिख ही दिया है, भले ही गीत की आखिरी पंक्ति लिखे जाने से पहले ही कलम की निब टूट गई।

देखना है कि राज्यपाल उन्हें नई निब उपलब्ध कराते हैं या नहीं।