वैभव बेमेतरिहा, रायपुर। 28 सितंबर सन् 1991. सुबह के चार बज रहे थे. भिलाई के हुडको में दूर-दूर तक फैले सन्नाटे के बीच एक आवाज़ सुनाई देती है. ये आवाज़ थी गोली की. एक ऐसी गोली जो छत्तीसगढ़ के इतिहास में सबसे चर्चित हत्याकांड के रूप में दर्ज हो गई. इतिहास में दर्ज होना लाजिमी भी था. क्योंकि इस गोली ने छत्तीसगढ़ की एक ऐसी आवाज़ को हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिया, जिससे पूँजवादी ताकतें काँपने लगी थी. जिससे सरकारें डरने लगी थी. जिस आवाज़ से छत्तीसगढ़ गूँज उठा था. जिस आवाज़ से छत्तीसगढ़ के मजदूर एकजुट हो चुके, जिस आवाज़ ने कॉरपोरेट के शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ हल्ला बोल दिया था. ये आवाज़ थी कॉमरेड शंकर गुहा नियोगी की. आज उसी शंकर गुहा नियोगी का शहादत दिवस है.

कॉमरेड शंकर गुहा नियोगी का असली नाम था धीरेश. उनका जन्म पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में 19 फरवरी 1943 को हुआ था. मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले नियोगी की शिक्षा जलपाईगुड़ी में हुई थी. वे छात्र जीवन से आक्रमक और संघर्षशील रहे. वे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के स्थानीय इकाई में संयुक्त सचिव भी रहे.

60 का दशक. इस दशक में छत्तीसगढ़ में औद्योगिक क्रांति की जोर-शोर से शुरुआत हो चुकी थी. दुर्ग जिले के भिलाई में एशिया के सबसे बड़े स्टील प्लांट की नींव रखी जा चुकी थी. स्टील प्लांट के लिए दल्लीराजहरा के बड़े इलाके में लौह अयस्क के लिए कई खदानें प्रारंभ हो गई थी. प्लांट और इन खदानों में काम करने के लिए देश भर से पढ़े-लिखे और कुशल कामगार छत्तीसगढ़ पहुँच रहे थे.

इसी 60 के दशक में जलपाईगुड़ी से धीरेश भिलाई आ गए थे. वरिष्ठ पत्रकार बाबूलाल शर्मा बताते हैं कि “भिलाई में धीरेश के मामा रहते थे. उनके मामा स्टील प्लांट में नौकरी करते थे. उनके मामा ने धीरेश को भी स्टील प्लांट में नौकरी लगवा दी थी. धीरेश को काम स्टील प्लांट के कोक-1 में मिला था. कुछ वर्षो में धीरेश मजदूरों के हित में काम करते-करते उनके बीच लोकप्रिय हो गए. उन्होंने मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया था. मजदूरों को उनके हक़-अधिकार के लिए लड़ना सीखाया.”

सन् 1967 में उन्होंने मजदूरों को एकजुट कर प्रबंधन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. हड़ताल की शुरुआत हो गई. मजदूरों का यह सरकारी उपक्रम में बड़ी हड़ताल थी. बीएसपी प्रबंधन को मजदूरों के समक्ष झुकना पड़ा और उनकी मांगें भी मानी गई. लेकिन प्रबंधन ने तो जैसे यह तय कर लिया था कि दोबारा ऐसी स्थिति न बने लिहाजा धीरेश को नौकरी से निकाल दिया गया. उन्हें गिरफ्तार करने की तैयारी चलने लगी.

इस बीच धीरेश का संघर्ष कमजोर नहीं हुआ. धीरेश नौकरी के जाने के बाद टूटे नहीं, बल्कि और मजबूती से ऊपर उठे. उन्होंने फिर से भिलाई की सरज़मीं में वापसी की. इस दौरान वे बालोद जिले में पहुँच गए. वरिष्ठ पत्रकार बाबूलाल शर्मा कहते हैं कि “बालोद के दानी टोला में कुछ दिनों तक जंगल में रहे. यहाँ उन्होंने बकरी चराने का भी काम किया. दानी टोला में रहते ही उन्हें आशा नाम की युवती से प्रेम हुआ और उन्होंने कुछ समय बाद उनसे शादी कर ली.”

इस दौरान दल्ली राजहरा के लौह अयस्क खदानों के मजदूरों ने एक संगठन तैयार कर लिया था. इस संगठन का नाम था संयुक्त मजदूर संघ. धीरेश जब यहाँ पहुँचे तो नए नाम और पहचान के साथ. धीरेश अब शंकर गुहा नियोगी थे और वे बीएसपी कर्मचारी से अब श्रमिकों के नेता बन चुके थे.

दल्लीराजहरा स्थित बीएसपी के खदानों में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की हालत बहुत खराब थी. बाबूलाल शर्मा बताते हैं कि, “मजदूरों से तब 14 से 16 घंटे काम लिया जाता था और उन्हें महज दो रुपये तक रोजी दी जाती थी. इन मजदूरों का कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं थी. जब शंकर गुहा नियोगी इनके बीच पहुँचे तो उन्होंने इन मजदूरों लेकर एक संगठित किया. यह सन् 1976-77 की बात होगी. गुहा नियोगी के इस संगठन का नाम था छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ(सीएमएसएस). इस संगठन के बैनर तले उन्होंने मजदूरों के हक़ में काम करना शुरू किया.”

संगठन तैयार होने के दो महीने में ही इसमें करीब 10 हजार मजदूर जुड़ गए. शंकर गुहा नियोगी ने इन मजदूरों को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल की शुरुआत कर दी. यह ठेके पर काम वाले मजदूरों की देश में सबसे बड़ी हड़ताल थी. इसका इतना व्यापक असर हुआ की संयंत्र प्रबंधन को मजदूरों की तमाम मांगे मांगनी पड़ीं. मजदूरों का वेतन 2 रुपये से बढ़ाकर 272 रुपये कर दिया गया.

इस दौरान शंकर गुहा नियोगी ने मजदूरों के हित में एक बड़ा काम किया. यह काम था शराबबंदी का. बाबूलाल शर्मा बताते हैं कि “नियोगी ने अपने संगठन के सभी 10 हजार साथियों को नशा नहीं करने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने संकल्प दिलवाया कि शराब का नशा नहीं करेंगे. गुहा नियोगी से जुड़े सभी लोगों ने यही संकल्प लिया. वहीं नियोगी अपने साथियों के साथ भट्टी बंद करने की मांग को लेकर भी आंदोलन करते रहे.”  इन सब सामाजिक सुधार और मजदूरों के हक़ में लड़ने वाले नियोगी अब देश में मजदूरों के सबसे बड़े नेताओं में से एक बन चुके थे.

सन् 1990. करीब 3 दशकों के संघर्ष में नियोगी का दायरा इतना बड़ चुका था कि निजी कंपनियों और कारखानों में काम करने वाले मजदूर संगठन भी नियोगी के संग जुड़ते चले गए. दल्लीराजहरा से लेकर भिलाई तक वे सतत् मजदूरों के हित में आवाज़ उठाते रहे. इस दौरान तक उन्होंने पूँजीवादियों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था. बड़े-बड़े उद्योगपति नियोगी की ताकत से घबराने लगे थे. लिहाजा नियोगी को डराने-धमकाने की कोशिशें भी होने लगी थी. यहाँ तक उन्हें जान से मारने की कई धमकियाँ भी मिलती रही. लेकिन नियोगी इन सबसे बेपरवाह रहते थे.

सन् 1991. जिस बात की आशंका नियोगी के साथी जताते रहे वही हुआ. तारीख़ थी 27 सितंबर. नियोगी किसी काम से रायपुर गए थे. रायपुर से वे देर रात भिलाई लौटे. वे भिलाई के हुडको स्थित अपने निवास पहुँचे. यहाँ वे अकेले थे. रात बीतते-बीतते सुबह होने को आ गई. तारीख़ भी बदल चुकी थी. यह तारीख़ थी 28 सितंबर. सुबह के 4 बज रहे थे. हुडको में पूरी तरह से सन्नाटा पसरा था. नियोगी अपने कमरे में गहरी नींद में सो रहे थे. इस दौरान एक व्यक्ति नियोगी के कमरे में दाखिल हुआ और उन्होंने सोते हुए नियोगी को गोली मार दी. गोली मारने वाला शख्स था पल्टन मल्लाह.

इस घटना को कवर करने वाले पत्रकार बाबूलाल शर्मा बताते हैं कि “जैसे ही घटना की ख़बर आई भिलाई नहीं बल्कि अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर पूरे देश में इस हत्याकांड की गूँज थी. मजदूरों में आक्रोश फैल चुका था मजदूरों को संभालना प्रशासन और सरकार के लिए बड़ी चुनौती थी. मजदूर संगठन आरोप लगाते रहे कि इस घटना के पीछे उद्योगपतियों का हाथ. मामले की उच्च स्तरीय जाँच हुई. कुछ बड़े उद्योगपतियों के नाम भी सामने हैं. कुछ की गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन बरी हो गए. सजा हुई सिर्फ़ पल्टन मल्लाह को. मल्लाह को पहले फाँसी की सजा हुई थी, लेकिन बाद में उन्हें उम्र कैद की सजा दी गई.”

इस हत्याकांड के बाद नियोगी के नाम के आगे शहीद जुड़ गया. जिस समय उनकी हत्या हुई शहीद शंकर गुहा नियोगी महज 48 साल के थे. इस हत्याकांड के बाद से ही छत्तीसगढ़ के मजदूर संगठन नियोगी को याद करते हुए उनके स्मरण 28 सितंबर को शहादत दिवस के रूप में मनाते हैं.