डॉ. वैभव बेमेतरिहा –

रायपुर. इस विशेष रिपोर्ट में बात छत्तीसगढ़ के उन दिगग्ज राजनेताओं की, जिन्होंने दल बदला, पार्टी छोड़ी, खुद की पार्टी बनाई, लेकिन कामयाबी नहीं पाई. कुछ देर-सबेर घर भी लौटे, लेकिन पहले जैसी बात नहीं रही. बात ताराचंद साहू, वीसी शुक्ल, पवन दीवान, अजीत जोगी, सोहन पोटाई, अरविंद नेताम, पी. आर. खूंटे, गणेश राम भगत, रामदलाय उइके, नंदकुमार साय जैसे नेताओं की. इनमें कुछ नेताओं का निधन हो चुका है, जबकि जो शेष हैं वे एक तरह से हाशिए पर हैं.

दरअसल पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं की स्थिति छत्तीसगढ़ में कभी अच्छी नहीं रही. जिस पार्टी के साथ लंबे वक्त जुड़े रहे, उस पार्टी को छोड़ने के बाद या दूसरे दल के साथ जुड़ने के बाद न साहू, पोटाई, नेताम सफल हो पाए, न ही शुक्ल, जोगी और दीवान. फिलहाल सबकी नज़र साय पर जाकर टिकी है.

हमारी यह श्रृंखलाबद्ध स्टोरी राज्य के इन नेताओं पर ही केंद्रित है. इस कड़ी में पहली स्टोरी स्व. ताराचंद साहू पर…

‘तारा’ का नहीं चमका सितारा

पृथक छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा के प्रथम अध्यक्ष रहे स्व. ताराचंद साहू का सितारा राजनीति में दूसरे नेताओं की तरह चमक नहीं पाया. उन्हें भाजपा में या भाजपा की केंद्र और राज्य सरकार रहते हुए वो जगह नहीं मिली जिसके वे हकदार रहे. नतीजन उन्होंने लोकसभा सांसद रहते हुए कठोर निर्णय के साथ पार्टी छोड़ दी थी. ताराचंद साहू छत्तीसगढ़ में भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक नेता रहे. उन्होंने जनसंघ के साथ राजनीतिक जीवन में पदार्पण किया था.

ताराचंद साहू का जन्म 1 जनवरी 1947 को दुर्ग जिले के कचांदुर में हुआ था. किसान परिवार में जन्मे ताराचंद साहू अध्ययन के बाद अध्यापन कार्य से जुड़ गए थे. वे स्कूली शिक्षक के तौर अपने इलाके में कार्य कर रहे थे. लेकिन इस दौरान वे जनसंघ से भी जुड़ गए थे.

सन् 1964 में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए. बाद में भारतीय जनता पार्टी के उदय के साथ ही वे पार्टी के कार्यकर्ता और स्थानीय नेता के तौर काम करने लगे. धीर-धीरे दुर्ग जिले में अपनी पकड़ और पार्टी को मजबूत करते चले गए.

दुर्ग जिले में भाजपा की पकड़ कमजोर थी. क्योंकि दुर्ग कांग्रेस का गढ़ था. कांग्रेस में उन दिनों राजनीति के चाण्यक कहे जाने वाले वासुदेव चंद्राकर सक्रिय थे. दुर्ग का पूरा इलाका वासुदेव का इलाका माना जाता था. ऐसे में उस इलाके में भाजपा को स्थापित करना ताराचंद के लिए महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी.

जिम्मेदारी मिलते ही उन्होने अविभाजित मध्यप्रदेश के समय कांग्रेस के ‘दुर्ग’ में भाजपा का झंडा गाड़ दिया. भाजपा ने सन् 1990 में उन्हें अविभाजित दुर्ग जिले के गुंडरदेही विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा. वे पहले ही चुनाव में जीत गए. इसके बाद 1993 में दोबारा विधायक बने. पार्टी ने उन्हें दुर्ग जिला भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी. सन् 1996 में जिलाध्यक्ष रहते ही उन्हें दुर्ग लोकसभा सीट से उम्मीदवार बना दिया. उस समय उनके सामने कांग्रेस के दिग्गज नेता वासुदेव चंद्राकर प्रतिद्वंदी थे. उन्होने वासुदेव चंद्राकर को हराकर सबको चौंका दिया. यह एक तरह से दुर्ग में कांग्रेस के किले को ध्वस्त करने जैसा था.

इसके बाद वे लगातार 98, 99 और 2004 में लोकसभा चुनाव जीते और सांसद बने. उनकी जीत और कांग्रेस की हार से दुर्ग में कांग्रेस कमजोर और भाजपा मजबूत हो गई. बावजूद इसके लंबे समय बाद जब केंद्र में पूर्णकालिक भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें मंत्रिमंडल में कहीं जगह नहीं मिली, जबकि तब पहली बार सांसद बनने वाले डॉ. रमन सिंह केंद्रीय राज्य मंत्री बन गए थे. इस बात का मलाल स्व. साहू को जीवनकाल तक रहा.

सन् 2000 में मध्यप्रदेश अलग होकर जब छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना तो स्व. साहू प्रदेश में भाजपा के पहले अध्यक्ष बने. हालांकि 2003 विधानसभा चुनाव के दौरान उन्हें दोबारा अध्यक्ष बनने का मौका नहीं मिला. 2004 में चौथी बार सांसद बने, लेकिन असंतोष का भाव मन में बना रहा. यही असंतोष 2008 में कठोर निर्णय में तब्दील हुआ. उन्होने सांसद रहते हुए ही उस पार्टी को छोड़ दिया, जिसके वे छत्तीसगढ़ में संस्थापक सदस्य रहे. भाजपा छोड़ने के साथ उन्होंने स्वयं की पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया.

10 अगस्त 2008 को उन्होने ‘छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच’ का गठन किया. यह भाजपा के खिलाफ खुलकर की गई बगावत थी. भाजपा ने 6 जनवरी 2009 को लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में उन्हें निष्कासित कर दिया.

भाजपा को सबक सीखाने और पार्टी से अपमान का बदला लेने 2009 लोकसभा में निर्दलीय चुनाव लड़े, लेकिन सफलता नहीं मिली. 2009 में भाजपा ही जीती और सरोज पाण्डेय सांसद बनीं थी. हालांकि वे निर्दलीय होने के बाद भी दूसरे नंबर पर रहे थे.

उन्होंने 10 अप्रैल 2010 को छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच का क्षेत्रीय पार्टी के रूप में पंजीयन कराया. इसके वे खुद केंद्रीय अध्यक्ष रहे. हालांकि वे इस पार्टी के साथ 2013 का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ पाए, जैसा कि उन्होंने सपना देखा था. बीमारी के चलते 11 नवंबर 2012 को मुंबई में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया.

ताराचंद साहू के निधन के बाद उनके साथियों ने 2013 विधानसभा चुनाव में स्वाभिमान मंच और दूसरे दलों के साथ तीसरा मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ा, लेकिन परिणाम शून्य रहा. भाजपा तीसरी बार सरकार बनाने में सफल रही. 2013 चुनाव के बाद स्व. ताराचंद की पार्टी का स्वाभिमान, बेटे दीपक साहू की भाजपा में वापसी के साथ खत्म हो गया. इस तरह ताराचंद साहू का सितारा चमक ही नहीं पाया.

कई सितारे यहाँ टूटते बिखरते हैं
सब अपनी सतहा से आख़िर कहाँ उभरते हैं

  • हयात लखनवी

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