7 दिसंबर 2003 का ही दिन था, जब डाॅ.रमन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. 14 अगस्त 2017 का दिन होगा, जब बतौर मुख्यमंत्री डाॅ.रमन सिंह पांच हजार दिन पूरा करेंगे. बीजेपी शासित राज्यों में डाॅ.रमन सिंह ऐसे इकलौते चेहरे होंगे, जो पांच हजार दिन पूरा करने जा रहे हैं. कुशल नेतृत्व और बेहतरीन प्रशासनिक क्षमता के बूते छत्तीसगढ़ को विकसित राज्यों की सूची में शुमार करने वाले डाॅक्टर रमन सिंह आखिर इस पायदान तक कैसे पहुंचे ? कैसे एक आय़ुर्वेदिक डाॅक्टर, मुख्यमंत्री बनकर प्रदेश की नब्ज को दुरूस्त करने में जुट गया ?  खेल के मैदान से राजनीति के गुर रमन ने आखिर कैसे सीखे ?  पेश है लल्लूराम डाॅट काॅम की विशेष रिपोर्ट-

 

 

 

तारीख- 24 जनवरी 2002

वक्त- करीब 2.30 बजे

स्थान- दिल्ली का बीजेपी मुख्यालय

 

 

अपने कमरे में बैठे बीजेपी के तात्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष वैंकेया नायडू काफी उलझन में नजर आ रहे थे. उनकी चिंता छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष के चयन को लेकर थी. प्रदेश अध्यक्ष का चयन नहीं हो पा रहा था. तभी वैंकेया नायडू ने अचानक अपने मोबाइल फोन के कान्टैक्ट को खंगालना शुरू किया. बस फिर क्या था, अचानक वे एक नंबर पर आकर रूक गए, वह नंबर था, डाॅ.रमन सिंह का. फौरन ही वैंकेया नायडू ने डाॅ.रमन सिंह से फोन पर बात कर उनसे पूछा कि क्या वो छत्तीसगढ़ बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनना चाहेंगे. वैंकेया का यही वो सवाल था, जो डाॅ.रमन सिंह की जिंदगी को एक नई करवट देने जा रही थी. यही वो सवाल था, जिसने छत्तीसगढ़ का एक नया इतिहास लिखने की पृष्ठभूमि तैयार की थी.

 

मोबाइल फोन वैंकेया नायडू के पूछे सवाल पर डाॅ.रमन सिंह की राजनीति की अग्निपरीक्षा में कब और कैसे चुनौतियों का नया मोड़ आया, ये बताने से पहले आइए पढ़िये, उस दौर की सियासत में फैले उस खौफ को, जिसकी वजह से बड़े-बड़े राजनेता भी छत्तीसगढ़ की सियासत में हाथ डालने से डरते थे-

 

 

साल 2003 में केंद्र में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बेहतर तालमेल के साथ चल रही थी. लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनावी शंखनाद के बावजूद बीजेपी की जीत का रास्ता आसान नहीं था. एक तरफ अजीत जोगी के रूप में कांग्रेस के पास चतुर और मजबूत नेतृत्व था, तो दूसरी तरफ बीजेपी का बिखरा कुनबा. पार्टी गहरे संकट में थी. वो संकट था, मजबूत नेतृत्व का. बीजेपी के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को देख दिलीप सिंह जूदेव जैसे दिग्गज भी ना तो प्रदेश की राजनीति में रमने को तैयार थे और ना ही रमेश बैस जैसे वरिष्ठ सांसद केंद्रीय मंत्री का पद छोड़ने को तैयार.

डाॅ.रमन सिंह उस दौर के ही सांसद थे, जिन्होंने राजनांदगांव लोकसभा सीट से मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेता को हराकर बीजेपी नेताओं के चहेते बन गए थे. कद्दावर नेता को हराने की वजह से डाॅ.रमन सिंह को तोहफे में केंद्रीय मंत्री का मखमली सेज दिया गया, अटल बिहारी बाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय राज्य मंत्री बनाया गया. ऐसे में जब वैंकेया नायडू ने छत्तीसगढ़ बीजेपी अध्यक्ष के लिए डाॅ.रमन सिंह के सामने प्रस्ताव रखा, तो असहज स्थिति सामने खड़ी हो गई. एक ओर केंद्रीय मंत्री का रूतबा, शानोशौकत थी, तो दूसरी ओर छत्तीसगढ़ बीजेपी अध्यक्ष की जिम्मेदारी लेकर कांटों के सेज पर सोने का विकल्प था. लेकिन रमन सिंह ने राजनीति के उस ब्रम्हवाक्य को याद किया, जिसमें कहा गया था कि सियासत में सब्र कामयाबी का सबसे बड़ा हथियार हैं. बस फिर क्या था, उन्होंने वैंकेया नायडू के प्रस्ताव पर हामी भर दी. 29 जनवरी 2002 को रमन सिंह ने केंद्रीय मंत्री का पद छोड़कर बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी थाम ली.

नये और जोशीले अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी होने के बाद छत्तीसगढ़ बीजेपी भी रंगत लौट लाई. बैठकों का दौर और चुनावी रणनीति गढ़ने का सिलसिला रफ्तार पकड़ने लगा.  जोगी शासनकाल में लगभग टूट चुके कार्यकर्ताओं के अंदर जोश-जुनून और बदलाव की चाह लौट आई. लेकिन ठीक उस वक्त दिलीप सिंह जूदेव पर लगे कथित घूसकांड के आरोप ने बीजेपी की चिंता बढ़ा दी. दाग केंद्र सरकार के मंत्री के दामन पर था, लेकिन उस मंत्री का वास्ता छत्तीसगढ़ से होने से बदनामी का रंग प्रदेश बीजेपी पर भी चढ़ा. लगभग आसान दिखने वाले रास्ते में एक बड़ी अड़चन खड़ी हो गई. रास्ता मुश्किल भरा साबित होता दिखने लगा, एक ओर रमन की तकदीर दांव पर थी, तो दूसरी तरफ खुद के दामन पर लगे दाग को धोने दिलीप सिंह जूदेव ने अपनी मूंछ को ही दांव पर लगा दिया. भ्रष्टाचार के दाग पर रमन की मेहनत का रंग ज्यादा निखरने लगा. साल 2003 में हुए विधानसभा चुनाव में डाॅ.रमन सिंह के नेतृत्व में पार्टी ने चुनाव लड़ा और करिश्माई जीत दर्ज की. 90 में मे 50 सीट लाकर विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई. डाॅ.रमन सिंह को सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री चुन लिया गया. राजधानी रायपुर के पुलिस परेड ग्राउंड में 7 दिसंबर 2003 को छत्तीसगढ़ की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर डा.रमन सिंह ने शपथ ली.

 

 

11 साल के अपने सफर में रमन सिंह छत्तीसगढ़ की सियासत के शिखर योद्धा तो बने ही, हुनरमंद नेतृत्वकर्ता बनकर नायाब मिसाल भी पेश की. छत्तीसगढ़ की सियासत में लगातार तीसरी बार मैदान मारने वाले रमन की कामयाबी की कहानी बड़ी दिलचस्प है. बहुत कम लोगों को ही ये मालूम है कि रमन सिंह की कामयाबी की कहानी दरअसल एक मैदान से शुरू हुई थी.

 

 

छत्तीसगढ़ की सियासत में बुलंदी पर पहुंचने वाले रमन का बचपन अपने तीन भाईयों और दो बहनों के साथ कवर्धा जिले के ठाठापुर गांव गुजरा. इसी गांव के जमींदार घराने में ठाकुर विघ्नहरण सिंह ठाकुर और सुधा सिंह के घर 15 अक्टूबर 1952 में रमन का जन्म हुआ. पिता विघ्नहरण पेशे से सरकारी वकील और जनसंघ के भी करीबी थे, जबकि मां सुधा एक धार्मिक महिला. पिता से रमन को अनुशासन और राजनीति की सीख मिली, तो मां ने भक्ति और संस्कृति का पाठ पढ़ा, लेकिन रमन ने राजनीति में नेतृत्व का गुर सीखा गांव के खेल मैदान से, जहां वो वॉलीबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी और क्रिकेट टीम में एक कामयाब कप्तान के रूप जाने जाते थे,  विरोधियों को कैसे, कब और कहां पस्त करना है, ये हुनर रमन ने क्रिकेट मैदान से सीखा. हमेशा जीतने की जिद में रमन क्रिकेट टूर्नामेंट खेलने दूर-दूर जाते और अधिकांश मैच जीतकर ही लौटते. बांये हाथ के आक्रामक बल्लेबाज रमन को हमेशा फ्रंट फुट पर खेलना पसंद था. क्रिकेट के वार्मअप के लिए वो वॉलीबॉल भी पूरी लगन से खेलते थे. खेलने के शौक के अलावे रमन को लजीज व्यंजनों का भी खूब शौक था. घर से मिले पैसों से हाट-बाजार जाकर खाने का समान खरीदना और साथियों के साथ मिलकर पार्टी मनाने में रमन को खूब मजा आता था.  बेशक, छत्तीसगढ़ की सियासत में रमन तेज दौड़ लगा रहे हो, लेकिन, बचपन में वैसे नहीं थे. खासकर सुबह उठना उन्हें काफी नागवार लगता था. एक बार उन्होंने अपने साथियों के साथ सुबह उठकर दौड़ने की ठानी भी, लेकिन कुछ दूर दौड़ने के बाद उन्हें ये बात समझ में आ गई, ये काम उनके बस का नहीं, लेकिन बचपन के रमन की ये आदत आज के रमन से मेल नहीं खाती, क्योंकि आज के रमन को बिना रूके और बिना थके काम करना पसंद है.

 

खेल के मैदान में अपनी काबिलियत दिखाने वाले रमन अपने स्कूल के होनहार छात्र थे. क्लास में हमेशा दूसरी और तीसरी पंक्ति में बैठना और अपने होमवर्क को हमेशा समय पर पूरा करना. ना स्कूल में किसी से लड़ना और किसी की चुगली करना. कभी किसी साथी को कुछ जरूरत हो तो खुद आगे बढ़कर मदद करना उनका स्वभाव था. परीक्षा के वक्त तो दोस्तों में रमन के पास बैठने की होड़ लग जाती थी, क्योंकि सबको ये पता था, जिस सवाल का जवाब किसी को नहीं मालूम वो रमन को मालूम होगा.  

 

 

वक्त के साथ जिम्मेदारियों ने रमन की क्रिकेट के मैदान से दूरियां और किताबों से दोस्ती बढ़ी. पिता विघ्नहरण को रमन का स्वभाव पता था. इसलिए वो चाहते थे रमन या तो बेहतर वकील बने या फिर हुनरमंद डाक्टर बने, लेकिन पढ़ाई के दौरान छुईखदान, कवर्धा और राजनांदगांव के ग्रामीण और कस्बाई इलाके में डाक्टरों की कमी से लोगों को जान गंवाते उन्होंने अपनी नजरों से देखा था. ऐसे में रमन ने डाक्टर बनने का फैसला कर लिया और फिर फैसले के अनुरूप रमन ने 1975 में रायपुर के आयुर्वेदिक कॉलेज से बीएएमएस की डिग्री ली. डिग्री लेने के बाद डाॅ.रमन सिंह ने कवर्धा में खुद की एक छोटी की क्लीनिक खोली. रमन के क्लीनिक पर सुबह से ही भीड़ रहती, लेकिन भीड़ में अधिकांश वैसे मरीज होते जिनका इलाज मुफ्त में होता. डाॅ.रमन सिंह मुफ्त में तो दवा लिखते ही थे, कई मरीज उन दवाओं को खरीदने के लिए पैसे भी उन्ही से मांगकर ले जाते. डाॅ.रमन को अपने पेशे में ज्यादा पैसा तो नहीं मिलता, लेकिन लोगों का भरपूर प्यार जरूर उनके हिस्से आता. धीरे-धीरे रमन की पहचान डाक्टर से ज्यादा समाजसेवी के रूप में होने लगी. एक तरफ पिता विघ्नहरण सिंह ठाकुर जनसंघ की गतिविधियों में मशगूल थे, तो दूसरी तरफ सक्रिय राजनीति की छाया से कोसों दूर रमन सिंह एक डाक्टर के रूप में पहचान बना रहे थे, लेकिन साल 1976 में रमन सिंह की किस्मत ने नया रंग दिखाया और जिस राजनीति से दूर भाग रहे थे, वह उनके काफी करीब आकर खड़ी हो गई. एक शाम रमन के घर पर जनसंघ युवा मोर्चा की बैठक में कवर्धा जिलाध्यक्ष के लिए एक तेज तर्रार और सक्रिय नेता की तलाश चल रही थी, जिसमें सबने डाॅ. रमन सिंह का नाम सुझाया. रमन से जब उन्हें दी रही जिम्मेदारी को लेकर राय ली गई, तो पहले रमन ने खुद के पेशे और दूसरी बातों का हवाला देकर ना नुकूर किया लेकिन बाद मेंमान गये. यहीं से शुरू हुआ रमन सिंह की सियासत का सफर.

रमन की सियासत को सफलता की नई दिशा मिली अटल बिहारी बाजपेयी के कवर्धा दौरे से. दौरे के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी से डाॅ.रमन सिंह ने सभा लिए जाने का अनुरोध किया, लेकिन वक्त की कमी होने की वजह से अटल बिहारी बाजपेयी ने सुबह-सुबह सभा लिए जाने पर हामी भर दी, बस फिर क्या था. रात भर मेहनत कर रमन से हजारों लोगों की भीड़ सभा के लिए जुटा दी. कम वक्त में भीड़ जुटाने की उनकी काबिलियत ने अटल बिहारी बाजपेयी को प्रभावित किया और रमन रातों-रात बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की नजर में आ गए.

 

जिम्मेदारी को रमन ने हमेशा चुनौतियों के रूप में लिया, बिना घबराये, बिना झिझके. जब खेल के मैदान रहे तो पूरी जिम्मेदारी के साथ खेला. जब सियासत की दुनिया में आये तो पूरी जवाबदेही से काम किया और जब परिवारिक चुनौतियों से वास्ता पड़ा तो उसे भी पूरी शिद्दत से निभाया.  

 

 

अपने पेशे में रमन इतने रम गये कि वो भूल ही गये थे उन्हें जल्द ही नई जिम्मेदारी भी संभालनी होगी. मां के लाड़ले रमन के सामने वैसे तो शादी के कई प्रस्ताव आये, लेकिन उन्होंने हामी भरी वीणा सिंह को देख. साल 1980-81 में रमन सिंह, वीणा सिंह को दुल्हन बनाने को राजी हो गये.  रमन को बारात लेकर शहडोल के बुलवा गांव जाना था और बरातियों के लिए एक बस की व्यवस्था की गई. जिस रमन के आगे पीछे आज दर्जनों गाड़ियां चलती है. वो रमन दुल्हा बनकर घोड़ी पर नहीं, बल्कि दोस्तों के साथ बस पर सवार होकर अपने ससुराल पहुंचे और बस भी थी राज्य परिवहन निगम की. शादी के बाद की जिम्मेदारी के बावजूद रमन का स्वभाव नहीं बदला, बल्कि उनके स्वभाव को सहयोग और साथ मिला वीणा सिंह का. परिवार की नई जिम्मेदारी के बीच रमन सिंह और भी निखर कर सामने आये. शादी के कुछ दिन बाद ही रमन सिंह को राजनीति में पहला मुकाम मिल गया. साल 1983-84 में वे कवर्धा नगरपालिका के शीतला वार्ड से पार्षद चुने गये. कांग्रेस के मजबूत गढ़ वाले नगरीय निकाय क्षेत्र में बीजेपी से उस वक्त सिर्फ दो ही पार्षद बीजेपी से थे, जिसमें एक नाम रमन सिंह का था. पार्षद बनकर एक तरफ रमन की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी. तो दूसरी तरफ रमन सिंह का दायरा और लोकप्रियता भी बढ़ा. इसी बीच रमन दो बच्चों के पिता बन गये. बीटिया अस्मिता और बेटा अभिषेक. 1990 में रमन सिंह ने अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और अपने पहले ही चुनाव में रमन ने कांग्रेस के जगदीश चंद्रवंशी पर शानदार जीत दर्ज की. उसके बाद 1993 में राम राज्य परिषद की रानी शशिप्रभा के खिलाफ जीत दर्ज की, लेकिन उसके बाद 1998 के विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के योगेश्वर राज से हार गये. सबको यही लगा शायद रमन सिंह की कामयाबी सफर थम गया, लेकिन इस हार ने रमन के सियासत की पूरी नियति बदल दी. अटल बिहारी के चहेते रमन को मोतीलाल वोरा जैसे दिग्गज के खिलाफ 1999 के आम चुनाव में राजनांदगांव से चुनाव मैदान में उतारा. सबने बोला वोरा की आंधी में रमन तिनके की तरह उड़ जायेंगे. वैसे भी मोतीलाल वोरा की गिनती उस वक्त कांग्रेस के सबसे बड़े सियासी दिग्गज में होती थी, लेकिन रमन ने हर राजनीतिक विश्लेषकों की राय को गलत और कांग्रेसी दिग्गजों की गणित को बिगाड़ दिया. अपनी सबसे बडी़ अग्नि परीक्षा में रमन ने मोतीलाल वोरा को बड़े अंतर से हराकर रातों रात सियासत की दुनिया में सुर्खियां बनकर छा गये. इस जीत का इनाम भी रमन सिंह को मिला और अटल बिहारी वाजपेयी की कैबिनेट में 13 अक्टूबर 1999 को उन्हें मंत्री पद की शपथ दिलाई गई.

 

कौन जानता था क्रिकेट के मैदान में बल्ले और बॉल का जानदार खिलाड़ी एक दिन सियासत की दुनिया का भी शानदार खिलाड़ी साबित होगा.  पार्षद से विधायक. विधायक से सांसद और फिर सांसद से मंत्री. सियासत में रमन ने कामयाबी की सीढ़ी एक के बाद एक चढ़ी. लेकिन उन्होंने अपने आप को जमीन से जोड़े रखा. उन्होंने ना जनता से दूरी बनाई और ना ही बचपन के दोस्तों से. 

 

 

होली हो या दिवाली, दशहरा हो या नया साल मुख्यमंत्री होने के बावजूद रमन का ये खास वक्त अपने दोस्तों के साथ गुजरता है. खुद कम खाना और अपने दोस्तों को खूब सारा खिलाना और खाने-खिलाने के दौर के बीच दोस्तों के साथ महफिल में बैठना आज भी रमन को बहुत भाता है. बचपन में अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने जो यूथ क्लब बनाया था, वो क्लब आज भी चल रहा है और उस क्लब के रमन सिंह आज भी अध्यक्ष है. दोस्तों के लिए रमन आज भी वही रमन है. रमन को आज भी जब कभी मौका मिलता है, कवर्धा के अपने घर के पड़ोस के चाय वाले दादा से चाय बनवाकर जरूर पीते हैं.

मुख्यमंत्री बनने के बाद भी रमन की धार्मिक आस्था कम नहीं हुई. व्यस्त कार्यक्रमों के बीच रमन हमेशा डोंगरगढ़ के प्रसिद्ध देवी बमलेश्वरी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी और रतनपुर की महामाया देवी के दरबार में जाकर माथा ठेकना नहीं भूलते. हर शुभ काम की शुरुआत और हर पुण्य काम को करने के बाद रमन सपरिवार भगवान के मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना जरूर करते हैं.  ईश्वर में आस्था रखने वाले रमन को अंक ज्योतिष में भी अटूट विश्वास है. दूसरी बार रमन 12 दिसंबर 2008 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, लेकिन जब तीसरी बार ताजपोशी होने वाली थी, तो उन्होंने अंक ज्योतिष हिसाब से 2013 में भी उसी 12 दिसंबर की तारीख को चुना.  2013 में रमन ने हैट्रिक बनाने का अपनी पार्टी का सपना सच किया, तो साल 2014 में उनका एक बड़ा सपना बेटे अभिषेक ने सच कर दिखाया. अभिषेक ने अपने पिता के ही संसदीय क्षेत्र रहे राजनांदगांव से शानदार जीत दर्ज कर युवा सांसद के रूप में संसद में जगह बनाई.

 

सियासत की दुनिया बदल रही है. बदलते वक्त के साथ चुनौतियां बढ़ रही है और बढ़ती चुनौतियों के साथ राजनीति की राह मुश्किल हो रही है, लेकिन रमन को जानने वाले आज भी रमन को उसी चेहरे में देखते और तलाशते हैं. कभी किसी पर गुस्सा ना करना. कभी बेसब्र होकर खुद पर काबू ना खोना. मुश्किल हालातों में भी मायूस ना होना, ये रमन के पास ऐसी करिश्माई कला है, जिसने हर किसी को उनका मुरीद बना रखा है.   

 

 

 

हर सपने को पूरी जिंदादिली से जीने वाले रमन सिंह ने राजनीति का हर वो रंग देखा और हर वो आरोप झेला है, जिसमें कई राजनेता जल जाते हैं, लेकिन रमन सिंह राजनीति की तपिश में पूरी तरह से निखर कर सामने आये. कभी डाॅक्टर बनकर मरीजों की नब्ज समझा करते थे, लेकिन आज वो मुख्यमंत्री बनकर जनता के दिल के दर्द को जान रहे हैं, लेकिन रमन के लिए कभी भी वक्त अनुकूल नहीं रहा. पहले कार्यकाल से लेकर अब तक के वक्त में रमन को राजनीतिक चुनौतियों से जूझना भी पड़ा. मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद 2005 में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुड़ूम अभियान चलवाया, तो इस अभियान पर संगीन आरोप लगे.  2007-08 में चावल योजना की शुरुआत की, तो विपक्ष ने उन पर राज्य के लोगों को निकम्मा बना देने का आरोप मढ़ा, लेकिन रमन सिंह की इस चावल योजना ने ना सिर्फ उन्हें लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाया बल्कि रमन की शोहरत चाउर वाले बाबा के रूप में फैल गई.  हर मुश्किलों को मुख्यमंत्री के तौर पर रमन सिंह ने संयमित और संजीदगी के साथ हल किया.  कभी मरीजों के नब्ज समझने वाले रमन आज जनता के दिल के दर्द का भरपूर ख्याल रखा, इसके लिए उन्होंने जनदर्शन लगाना शुरू किया, जिसमें जनता सीधे रमन से मुलाकात कर अपनी समस्याएं और शिकायत रख सकती है.

चाहे बात नान घोटाले की हो, या झीरम घाटी नक्सल हमले की या फिर विधायक खरीद-फरोख्त कांड की. चुनौतियों को चैलेंज बनाकर जिस तरह रमन सिंह ने तमाम मसलों को सुलझाया. उसने उन्हें छत्तीसगढ़ की सियासत का महानायक बना दिया है. कभी दिल जीत लेने वाली मुस्कुराहट, तो कभी गहरी सोच वाली गंभीरता. कभी हार नहीं मानने का जज्बा, तो कभी दावे को दमदारी से निभाने का दम. डाॅ. रमन सिंह के चेहरे के पीछे की ये वो परछाई है, जिसने उन्हें सियासत के हर चुनौतियों में निखारा है. डाॅ. रमन सिंह को करीब से देखने वाले उन्हें कई नजरों से देखते हैं और जानने वाले कई अंदाज में पहचानते हैं, लेकिन हर नजर और हर अंदाज उनकी मजबूती और संजीदगी के साथ-साथ सियासत के सबसे बड़े सूरमा के रूप में ही पहचान बताती और दिखाती है. ऐसा नहीं था कि विपक्ष ने उनके दामन पर कीचड़ नहीं उछाले. कभी कोल ब्लॉक आवंटन का मामला, तो कभी उद्योगपतियों पर दरियादिली दिखाकर बालको और संचेती जैसों को उपकृत करने का मसला. कभी कमजोर नीति पर सवाल, तो कभी कमजोर रणनीति का हवाला. कई बार रमन सिंह सियासी चक्रव्यूह में उलझे, लेकिन हर बार वो बेदाग सामने आये. अपने 13 साल के कार्यकाल में रमन को जनता से दुलार मिला, तो विरोधियों से भी वाहवाही बटोरी. प्रदेश की शानदार खाद्य योजना की मुरीद तो तात्कालीन केंद्र की मनमोहन सरकार थी ही. सुप्रीम कोर्ट ने भी रमन की पीठ थपथपाई थी. केंद्र की फूड सिक्योरिटी बिल हो या फिर कौशल विकास का कानूनी अधिकार डाॅ. रमन सिंह की योजना को ही आदर्श मानकर केंद्र सरकार ने देश में लागू किया. आज छत्तीसगढ़ के पास उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त हैं और इसके पीछे चेहरा एक, डाॅ.रमन सिंह…….