आशीष तिवारी/ पुरूषोत्तम पात्रा, रायपुर- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पहाड़ों पर बसा है ताराझर गांव. बुनियादी जरूरतों के लिए भी यहां रहने वाले लोगों को काफी जद्दोजहद करनी होती है. ताराझर गांव की अपनी कोई पहचान नहीं थी, सिवाए इसके की ये राष्ट्रपति द्वारा गोद ली गई कमार जनजाति का गांव है. नाउम्मीदी की गिरफ्त में बसे इस छोटे से गांव में यदि किसी ने उम्मीद जगाया है, तो वह है मीनसागर सोरी.
मुमकिन था कि मीनसागर सोरी की पहचान भी इस गांव के चार कोनों में गिरफ्त होकर गुम हो जाती. जिंदगी तो कटती, लेकिन गुमनामी के अंधेरों में अंगड़ाई भरते यूं ही बीत जाती.  मीनसागर की आंखें गुमनामी से निकलने का सपना दिन-रात देख रही थी. दरअसल उसके अरमानों को पंख लग चुके थे. पहाड़ों की ऊंचाई से भी ज्यादा ऊंचा उड़ने का मजबूत इरादा लिए मीनसागर ने कड़ी मेहनत की और मेहनत का ही नतीजा रहा कि आज उसकी पहचान कमार जनजाति के एक युवा की नहीं, बल्कि एयरक्राफ्ट इंजीनियर के रूप में होती है, जिस ताराझर गांव ने कभी चार पहिए की गाड़ी नहीं देखी, साइकिल नहीं देखी, आज वहां का बेटा इंजीनियर बन चुका था. आज मीनसागर अपने जैसे सैकड़ों-हजारों युवाओं के लिए एक मिसाल बन चुका है. मीनसागर को यह कामयाबी यूं ही नहीं मिल गई. दिन-रात की कड़ी मेहनत ने उसे इस मुकाम पर पहुंचाया है. कांटों की सेज पर कटती जिंदगी का दर्द भी उसने झेला है. धूप की तपिश और नंगे पैर पत्थरों की चुभन से जूझते हुए अपने सपनों को पूरा करने की अथक मेहनत भी उसके हिस्से आई है.
अपनी कामयाबी को लेकर मीनसागर सोरी कहते हैं कि- गांव में रहने के दौरान कभी-कभार आसमां की ओर गुजरते हवाई जहाज को देखने के बाद यह जिज्ञासा होती थी कि कभी इसे नजदीक से देखने का मौका मिलेगा भी या नहीं. कभी इसे छू पाउंगा भी या नहीं. लेकिन यही हवाई जहाज मेरे बेहद करीब है. इसका हर एक पार्ट्स मेरी हाथों में है.
मीनसागर सोरी की कामयाबी की कहानी को समझनी है, तो उसके गांव ताराझर चलना होगा. गरियाबंद जिले के मैनपुर विकासखंड से 14 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ों पर बसा है ताराझर. सांसें भरने वाले उतार-चढ़ाव भरा सफर है इस गांव का. घनघोर जंगली इलाके से गुजरते हुए खत्म होता है ताराझर गांव का सफर. महज 22 परिवारों के इस छोटे से गांव में ही है मीनसागर सोरी का घर. सरकारी रिकार्ड में बीते 15 सालों से गांव में प्राइमरी स्कूल तो हैं, लेकिन न तो पढ़ाने के लिए शिक्षक हैं और न ही बैठने के लिए भवन. यहां पढ़ने वाले बच्चे रोजाना पहाड़ों से उतरकर कुल्हाड़ीघाट के तराई में बसे गांव जिड़ार के आदिवासी आश्रम में आकर पढ़ते हैं. इसी आदिवासी आश्रम से ही मीनसागर सोरी ने अपनी प्राइमरी स्कूल की शिक्षा पुरी की. मैनपुर के सरकारी स्कूल से गणित विषय लेकर 12 वीं की पढ़ाई की. सरकार की निःशुल्क कोचिंग योजना ने उसे खूब तराशा. यही वजह रही कि मीनसागर न केवल बोर्ड की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने वाला पहला जनजाति छात्र बना, बल्कि एआईईईई की परीक्षा में भी चुना गया.
12 वीं की परीक्षा पास करने के बाद मीनसागर सोरी ने इंजीनियर बनने की ठानी. सपना बड़ा था और उसे पूरी करने के लिए सामने आ रही चुनौतियां उससे भी ज्यादा बड़ी थी. लेकिन कहते हैं कि जब इरादा फौलादी हो, तो बड़ी से बड़ी अड़चनें दूर हो जाती है. कुछ ऐसा ही हुआ मीनसागर सोरी के साथ. राज्य सरकार की आदिवासी शिक्षा ऋण योजना के तहत मीनसागर ने लोन के लिए आवेदन दिया. सरकारी योजना का फायदा मिला और उसे तीन लाख 76 हजार रूपए का लोन मिल गया, जिसके बाद बंगलुरू से एयरक्राॅफ्ट एंड मेंटनेंस इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. आज मीनसागर रायपुर एयरपोर्ट पर इंडिगो एयरलाइंस में असिस्टेंट टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत है. आदिवासी ऋण योजना के तहत लिए गए लोन को भी उसे पूरी तरह से चुका दिया है.
मीनसागर सोरी की यह कहानी सुनने में न केवल दिलचस्प है, बल्कि दूसरों के सामने एक मिसाल भी है. यकीन मानिए मीनसागर की यह कहानी आपकी उम्मीदों को टूटने नहीं देगी. जिंदगी के संघर्षों से जूझने की प्रेरणा देगी. हौसला देगी.