चंद्रकांत देवांगन, दुर्ग। यूं तो आज हम आज़ादी की 71 वी वर्षगाठ बड़े धूमधाम से मना रहे है पर इस आज़ादी के पीछे का इतिहास हम बड़ी जल्दी भूलते भी जा रहे है. हर जिले गांव में आज़ादी के पहले आज़ादी के दीवानों की कुर्बानी और बलिदान की कोई न कोई कहानी छुपी है शायद जो हमें मालूम भी नही और उन्हीं वीरों के बलिदान की वजह से आज हम आज़ादी की सांस ले पा रहे है.
दुर्ग जिले के एक छोटे से ग्राम कुथरेल में मौजूद ये प्रतिमा सुखदेव राज की है. इतिहास की जानकारी के अनुसार ये वही क्रांतिकारी है जिसने भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ी और अंग्रेजो की यातनाएं सही.
इनका जन्म 7 दिसंबर को 1907 को पंजाब के खत्री वंश में हुआ था, भगवतीचरण बोहरा के सम्पर्क से क्रांतिकारी दल में आये थे. ये भगतसिंह के निकटतम साथी भी रहेे है और इन्हें 3-3 वर्ष के सश्रम कारावास की 2 सजाये भी हुई थी. उन्होंने करीब 5 साल की सजा काटी थी जिसके बाद भी आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय रहे थे वही अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के समय भी सुखदेव राज उनके साथ थे. आज़ादी के बाद सुखदेव राज ने विनोबा भावे की प्रेरणा से समाजसेवा का फैसला करने की ठानी, जिसके बाद दुर्ग जिले में फैली कुष्ठ रोग की बीमारी के मरीजो की सेवा करने 1963 में दुर्ग आये. वे लगभग 10 वर्षो तक यहाँ कुथरेल में रहे व ग्रामीणों की सेवा करते हुए उन्होंने 1973 में अपने प्राण त्याग दिए.
गाँव के लोग बताते है कि वे एक गुमनाम जिंदगी जिया करते थे बहुत कम ही लोग है जिनसे वे अपनी आजादी की लड़ाई का जिक्र करते थे. गाँव के लोग उन्हें बाबाजी कहकर भी पुकारा करते थे.
म.प्र. शासन काल में मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल थे तब से गाँव में 8 दिसंबर 1976 को शहीद भगत सिंह के भाई सरदार कुलतार सिंह जो की राज्यमंत्री उ. प्र . शासन थे उनकी अध्यक्षता में सुखदेव राज की प्रतिमा इस गाँव में स्थापित की गयी थी.
इस प्रतिमा की स्थापना के बाद इसकी जर्जर स्थिति को देखकर यही प्रतीत होता है कि इस क्रांतिवीर की तरफ शासन प्रशासन ने कभी पलटकर ध्यान नही दिया. शायद इसी लिए ये फटे कपड़ो में दिखने वाले मजदूर आज़ादी में उनके योगदान को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे है.
प्रदेश और केंद्र में बैठी सरकार को देशभक्त सरकार कहा जाता है पर देशभक्तो के नाम पर राजनीति करने से थोड़ा ऊपर उठकर यह सरकार काम करे तो ऐसे वीरो का इतिहास हमारे देश और प्रदेश से गुमनाम होने से बच सकता है. आजादी की लड़ाई के इस वीर को श्रद्धांजली देने उन्हें नमन करने के लिए न तो कोई नेता मंत्री पहुंचते हैं और न ही कोई अधिकारी। यहां रहने वाले मजदूर ही इस वीर सपूत को याद करते हैं उन्हें फूल-माला अर्पित कर उनके बलिदान को याद करते हैं.
उस गाँव का एकमात्र जीवित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गिरधारी दास मानिकपुरी है. जिसको सुखदेव राज जी अपनी स्वन्त्रता आंदोलन की दास्तान बताया करते थे.