सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात के गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के संबंध में छह आरोपियों को बरी कर दिया. अदालत ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति का केवल घटना स्थल पर होना या वहां से गिरफ्तार होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि वे अवैध भीड़ का हिस्सा थे. जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने गुजरात हाईकोर्ट के 2016 के निर्णय को अस्वीकार कर दिया, जिसमें गोधरा कांड के पश्चात 2002 में हुए दंगों के मामले में छह व्यक्तियों को बरी करने का आदेश वापस लिया गया था. बेंच ने स्पष्ट किया कि केवल मौके पर उपस्थित होना या वहां से गिरफ्तार होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि वे (6 लोग) एक हजार से अधिक लोगों की अवैध भीड़ में शामिल थे.

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धीरूभाई भाईलालभाई चौहान सहित पांच अन्य व्यक्तियों को एक वर्ष की कारावास की सजा सुनाई गई है, जो एक ऐसी घटना से संबंधित है जिसमें कथित रूप से भीड़ ने वडोद गांव में एक कब्रिस्तान और मस्जिद को घेर लिया था. सभी आरोपियों को घटना स्थल से गिरफ्तार किया गया था.

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निचली अदालत ने सभी 19 आरोपियों को निर्दोष घोषित किया था, लेकिन उच्च न्यायालय ने उनमें से 6 को दोषी पाया. एक आरोपी की मामले की सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई थी. अपीलकर्ताओं समेत 7 व्यक्तियों का नाम एफआईआर में शामिल किया गया था.

सुप्रीम कोर्ट ने एक निचली अदालत के 2003 के निर्णय को मान्यता देते हुए उन्हें बरी कर दिया. अदालत ने स्पष्ट किया कि 28 फरवरी 2002 को वडोदरा में हुई घटना में उनकी संलिप्तता के संबंध में कोई ठोस सबूत नहीं है, क्योंकि उनके खिलाफ किसी प्रकार की दोषी भूमिका का अभाव है. विशेष रूप से, उनके पास से न तो किसी विध्वंसक उपकरण का पता चला और न ही कोई भड़काऊ सामग्री मिली.

बेंच ने उल्लेख किया कि पुलिस की गोलीबारी के कारण लोग भागने लगे. ऐसी स्थिति में एक निर्दोष व्यक्ति को भी अपराधी के रूप में देखा जा सकता है. इसलिए, अपीलकर्ताओं की मौके पर गिरफ्तारी उनके दोषी होने की पुष्टि नहीं करती है. सामूहिक झड़पों के मामलों में अदालतों पर यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है कि वे किसी निर्दोष व्यक्ति को दोषी न ठहराएं और उसकी स्वतंत्रता को न छीनें.

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सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि अदालतों को ऐसे मामलों में सतर्क रहना आवश्यक है और उन्हें उन गवाहों की गवाही पर निर्भर नहीं होना चाहिए, जो आरोपी या उसकी भूमिका के संदर्भ में सामान्य बयान प्रस्तुत करते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अक्सर, विशेषकर जब अपराध का स्थान सार्वजनिक होता है, लोग जिज्ञासा के कारण अपने घरों से बाहर निकलकर घटनास्थल की स्थिति का अवलोकन करने लगते हैं. ऐसे व्यक्ति केवल दर्शक होते हैं, लेकिन गवाह के रूप में वे गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा प्रतीत हो सकते हैं.

बेंच ने स्पष्ट किया कि सावधानी के नियम और कानून के नियम के तहत, जब रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे, तो केवल उन व्यक्तियों को दोषी ठहराना उचित होगा जिन पर प्रत्यक्ष कृत्य का आरोप लगाया गया है. कई मामलों में, अदालतों ने बहुलता परीक्षण को अपनाया है, जिसका अर्थ है कि दोषसिद्धि तभी मान्य होगी जब इसे कुछ निश्चित संख्या में गवाहों द्वारा समर्थित किया जाए, जो घटना का सुसंगत विवरण प्रदान करते हैं.

बेंच ने यह स्पष्ट किया कि अदालत के लिए यह आवश्यक है कि यह तय किया जाए कि अभियुक्त, जिस पर मुकदमा चल रहा है, वह गैरकानूनी भीड़ का सदस्य था या केवल एक दर्शक. इस प्रकार का निर्णय मामले के वास्तविक तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता उसी गांव के निवासी थे, जहां दंगे हुए थे, इसलिए उनकी घटनास्थल पर उपस्थिति स्वाभाविक है. कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अभियोजन पक्ष का यह आरोप नहीं है कि वे हथियार या विध्वंसक उपकरण लेकर आए थे. बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा अपनाया गया विपरीत दृष्टिकोण पूरी तरह से अनुचित है.