लखनऊ। उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में कॉमन मिनिमम सिलेबस लागू करने की कवायद का शिक्षक विरोध कर रहे हैं. इस संबंध में आयोजित वर्चुअल मीटिंग में शिक्षकों ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि सरकार की तरफ से अप्रूव करने के लिए भेजे गए सिलेबस से विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता पर फर्क पड़ेगा. वहीं कुछ शिक्षकों का कहना है कि कुछ पाठ्यक्रमों के कॉमन मिनिमम सिलेबस यूनिवर्सिटी के स्टैंडर्ड के नहीं इसलिए इसे एडॉप्ट नहीं किया जा सकता.

लखनऊ विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष विनीत वर्मा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने शीध्रातिशीध्र कोर्स का रीविजन कर सिलेबस मांगा गया है. मेरा मानना है कि जो कोर्स बना है, उसको लेकर भ्रांतियां है, जिस तरह का कोर्स है, उसके हिसाब से शिक्षक नहीं है. इसके अलावा बीए, बीएससी के लेवल के हिसाब से बहुत हाई लेवल का कोर्स बना दिया गया है. यह सही है कि नई पॉलिसी में समग्र विकास की बात कही गई है, जो देश के लिए जरूरी है. लेकिन यकायत निर्णय लेना ठीक नहीं है. उप्र एक्ट में सिलेबस तैयार करने के लिए एक प्रावधान है. इसमें डिपार्टमेंटल लेवल पर बोर्ड ऑफ स्टडीज है, उसके बाद स्टडी बोर्ड, एकेडमिक काउंसिल और उसके बाद एक्जीक्यूटिव काउंसिल की अनुमति के बाद ही कोर्स को लागू किया जाता है.

विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पर गहरा संकट

लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी विभाग के प्रोफेसर विभूति राय कहते हैं कि आज जो विश्वविद्यालयों की स्थिति है, उससे एक गहरा संकट आ खड़ा हुआ है. इसके साथ ही विश्वविद्यालय की स्वायत्ता के लिए सरकारों ने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. उन्होंने कहा कि पिछले डेढ़ वर्षों से जिस प्रकार का षड़यंत्र रचा जा रहा है. विश्वविद्यालयों का स्वतंत्र अध्ययन व अध्यापन मूल चरित्र था. आज राज्य सरकार कह रही है कि 70 प्रतिशत सिलेबस सामूहिक रूप से सभी शिक्षक मिलकर तय करेंगे. उसके बाद शिक्षा विभाग उसे फाइनल शेप देंगे. ऐसे में 30 प्रतिशत ही विश्वविद्यालय ही स्वतंत्रता रह जाएगा. शिक्षक सरकार की दी गई गाइडलाइन से पढ़ाएगा. विश्वविद्यालय के स्वायत्त चरित्र पर मूल सवाल है. यह विश्वविद्यालय के मूल चरित्र को खत्म करने की साजिश है.

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कॉमन मिनिमम सिलेबस की क्या जरूरत

केकेसी पीजी कॉलेज एसोसिएट प्रोफेसर विनोद चंद्रा सवाल उठाते हैं कि कामन मिनिमम सिलेबस की जरूरत क्या है. वे कहते हैं कि जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति आई है, उसमें पाठ्यक्रम में विविधता की बात कही गई, लेकिन यहां पर उसके उलट उसे समेटने की कोशिश की जा रही है. यह अपनी ही एजुकेशन पालिसी के खिलाफ है. कामन सिलेबस करना है तो हाईस्कूल-इंटर का करना होगा. उप्र में तीन बोर्ड चल रहे हैं, क्या वहां पर ऐसा प्रयास किया गया है. वहां तो ऐसा कुछ नहीं किया गया. जहां हायर एजुकेशन में स्वतंत्रता होनी चाहिए, वहां पर कामन सिलेबस की बात कही जा रही है. विश्वविद्यालयों पर दबाव बनाया जा रहा है कि जो सिलेबस है, उसे बोर्ड आफ स्टडीज से पास कर दे दिजिए. कुछ विभागों में आपत्ति थी, उनको एड्रेस किया जाना चाहिए. उनका निवारण किया जाना चाहिए. यह तो जबरदस्ती हुई. इसका शिक्षा पर इसका प्रभाव पड़ेगा.

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