मुंबई. साल 1929 में ऑस्कर आवार्ड की शुरुआत हुई. 5 मार्च 2018 को 90वां अवॉर्ड समारोह है. दुनियाभर में फिल्म जगत के इस सबसे प्रतिष्ठित अवॉर्ड को सराहा जाता है. यकीनन हर साल लोग यही जानना चाहते हैं कि बेस्ट फिल्म, बेस्ट एक्टर और बेस्ट एक्ट्रेस का ऑस्कर किसे मिला, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इनका नाम ऑस्कर कैसे पडा? अवार्ड वाली वह सुनहरी मूर्ति किसने डिजाइन की? पहला ऑस्कर किसने जीता? तो चलिए ऑस्कर अवार्ड से जुडी तमाम दिलचस्प बातें आपको बताते हैं.
ऑस्कर अवार्ड्स 1929 में शुरू हुए. जब मशहूर फिल्म कंपनी एमजीएम के मालिक लुई बी मेयर की अगुआई में हॉलीवुड में एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स की बुनियाद रखी गई. सबसे दिलचस्प कहानी तो है पहले ऑस्कर अवार्ड विजेता की. आधिकारिक तौर पर तो पहला ऑस्कर जर्मन कलाकार एमिल जैनिंग्स ने जीता था. वो एमिल, जिन्होंने बाद में जर्मन तानाशाह हिटलर के लिए काम किया और नाजी सरकार के लिए कई प्रचार फिल्में बनाईं.
मगर जेनिंग्स इस अवार्ड के पहले हकदार नहीं थे. यह अवार्ड जर्मन शेफर्ड नस्ल के एक कुत्ते ने जीता था, जिसका नाम था रियो टिन टिन. इस कुत्ते को पहले विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस में बचाया गया था. 1918 में फ्रांस में जंग लड रहे अमेरिकी वायुसेना के एक जवान ने रियो को बचाया था.
रियो टिन टिन हॉलीवुड में मशहूर कलाकार बना. उसने 27 फिल्मों काम किया. इनमें से चार तो 1929 में ही रिलीज हुई थीं. इन्हीं में एक में उसकी शानदार एक्टिंग के लिए अवार्ड कमेटी ने उसे ऑस्कर का हकदार माना. मगर एकेडमी के पहले प्रेसीडेंट लुई मेयर को लगा कि अगर पहला ऑस्कर किसी कुत्ते को दिया गया, तो अच्छा संदेश नहीं जाएगा. इसीलिए अवार्ड कमेटी को फिर से वोट करने को कहा गया. तब जर्मन एक्टर एमिल जैनिंग्स को पहला ऑस्कर मिला.
यानी पहले अवार्ड विजेता से ही ऑस्कर पुरस्कारों का विवादों से नाता जुड गया था. कुछ और दिलचस्प आंकडों पर नजर डालिए. सबसे ज्यादा 27 ऑस्कर जीतने का रिकॉर्ड वॉल्ट डिज्नी के नाम है. जबकि मशहूर निर्देशक अल्फ्रेड हिचकॉक को एकेडमी ने एक भी ऑस्कर के लायक नहीं समझा.
हां, उन्हें बाद में मानद अवार्ड जरूर दिया गया. एक बार अवार्ड समारोह पेश करते हुए अमेरिकी कॉमेडियन बॉब होप ने मजाक में कहा था कि अगर सबको बांटने से भी ऑस्कर की कोई मूर्ति बच रही हो, तो उसे वाल्ट डिज्नी के घर भिजवा दिया जाएगा. एकेडमी के अंदर सियासत और इससे जुडे विवादों से इतर ऑस्कर्स की पूरी दुनिया में शोहरत है. हर कलाकार एक बार इसे हासिल करना चाहता है.
ऑस्कर समारोहों के 87 साल पुराने इतिहास में कई उतार-चढाव देखे गए. मगर इसकी सोने की मूर्ति कमोबेश वैसी ही है, जैसा पहले अवार्ड समारोह का डिजाइन था. दुनिया के सबसे चर्चित फिल्म अवार्ड की इस सुनहरी मूर्ति का डिजाइन, फिल्म कंपनी एमजीएम के उस वक्त के मुख्य कला निर्देशक सेड्रिक गिबन्स ने कागज पर बनाया था. इसे मूर्ति के रूप में गढ़ा लॉस एंजेल्स के कलाकार जॉर्ज स्टैनले ने.
खुशमिजाज सेड्रिक गिबन्स हॉलीवुड के सबसे असरदार कला निर्देशकों में थे. वह एक आयरिश आर्किटेक्ट के बेटे थे. जब 1925 में पेरिस में दुनिया भर में होने वाली कलाकारों का मेला लगा तो, उसमें शिरकत करने वालों में वह हॉलीवुड के इकलौते डिजाइनर थे. इस महामेले को आज दुनिया ‘आर्ट डेको’ के नाम से जानती है.
गिबन्स आर्ट डेको की थीम से बडे प्रभावित हुए थे. उन्होंने इसी नाम से हॉलीवुड में अपना घर भी बनाया -आर्किटेक्ट डगलस होनाल्ड की मदद से. गिबन्स के घर का इंटीरियर झक सफेद रखा गया था. 1930 में गिबन्स की शादी से ठीक पहले उनके सपनों का यह आशियाना बनकर तैयार हो गया था.
गिबन्स ने मेक्सिकन मूल की अभिनेत्री डोलोरेस डेल रियो से शादी की थी. डोलोरेस, हॉलीवुड की मूक फिल्मों के दौर की बेहद कामयाब अदाकारा थीं. ऑस्कर अवार्ड का सुनहरा बुत डिजाइन करके गिबन्स अमर हो गए.
कहते हैं कि ऑस्कर की मूर्ति बनाने में किसी मॉडल का इस्तेमाल नहीं हुआ. मगर, गिबन्स की पत्नी डोलोरेस का दावा था कि उनके मेक्सिकन दोस्त एमिलियो फर्नांडिस ने इसके लिए बिना कपडों के मॉडलिंग की थी. तब, जब आर्टिस्ट जॉर्ज स्टैनले, इस अवार्ड के लिए मूर्तियों को गढ़ रहे थे.
एमिलियो, हॉलीवुड में दूसरे दर्जे के कलाकार थे. उन्होंने कई फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए. वैसे मॉडल की मदद से बनी या फिर बिना मॉडल के, ऑस्कर की मूर्ति बेहद मनमोहक है. यह किसी भी मॉडल या किसी भी युवक से मेल खाती मालूम हो सकती है.
ये तो हुई मूर्ति के डिजाइन की बात. अगला सवाल यह कि आखिर इनका नाम ऑस्कर कैसे पड़ा. इनका आधिकारिक नाम तो एकेडमी अवार्ड ऑफ मेरिट है. मगर दुनिया इन्हें ऑस्कर के नाम से ही जानती है. इन्हें ऑस्कर क्यों कहा गया, इस बारे में भी कई किस्से चलन में हैं. जैसे कहते हैं कि एकेडमी की लाइब्रेरियन मार्गरेट हेरिक ने इन मूर्तियों को देखकर बेसाख्ता कहा कि ये उनके चाचा ऑस्कर जैसी दिखती हैं, और इन्हें ऑस्कर नाम दे दिया गया.
एक और कहानी है कि अभिनेत्री बेटी डेविस ने इन्हें ये नाम अपने पहले पति हरमन ऑस्कर नेल्सन के नाम पर दिया था. अब सचाई जो भी हो, लेकिन एकेडमी अवार्ड ऑफ मेरिट आज ऑस्कर के नाम से ही मशहूर हैं. अब तो एकेडमी ने भी इसी नाम को मान लिया है.
पहले पहल ऑस्कर की मूर्तियां कांसे से बनाई गईं, जिन पर सोने की परत चढ़ी होती थी. इन्हें इलिनॉय की ‘सीडब्ल्यू शुमवे एंड संस’ नाम की कंपनी बनाती थी. कुछ साल बाद ऑस्कर अवार्ड की मूर्तियों को टिन, एंटीमनी और तांबे को मिलाकर बनने वाले ब्रिटानिया मेटल से बनाया जाने लगा और इस पर चढ़ाई जाने लगी 24 कैरेट यानी शुद्ध सोने की परत.
तब से ही ऑस्कर अवार्ड की ये चमचमाती मूर्तियां कमोबेश वैसी ही हैं. सन् 1982 से इन्हें बनाने की जिम्मेदारी, शिकागो की ‘आरएस ओवेन्स एंड कंपनी’ के पास है.
हालांकि इस परंपरा में कई बार छोटे-मोटे बदलाव भी देखने को मिले. रवायत से हटकर 1939 में वॉल्ट डिज्नी को एक खास तरह का ऑस्कर अवार्ड दिया गया. इसमें लकड़ी के पोडियम पर ऑस्कर की मूर्ति थी. साथ ही में डिज्नी की मशहूर फिल्म ‘स्नो व्हाइट एंड सेवेन ड्वार्फ्स’ के सात बौने भी दिखाए गए थे.
दूसरे विश्वयुद्ध के चलते 1942 से 1945 के बीच ऑस्कर अवार्ड्स के बुत रंगीन प्लास्टर से बनाए गए. वजह यह कि उन्हें बनाने के लिए मेटल नहीं मौजूद था. हालांकि इस दौरान अवार्ड जीतने वालों को कहा गया था कि विश्वयुद्ध के बाद जब हालात सामान्य होंगे तो वो इन रंगीन बुतों को बदलकर सुनहरी मूर्तियां ले सकेंगे.
ऑस्कर अवार्ड्स से जुड़े एक पहलू की हमेशा अनदेखी हुई है. वो है, इन सुनहरे बुतों की खरीद-फरोख्त. एकेडमी के नियम के मुताबिक ऑस्कर विजेता या उनके वारिस इन्हें बेचने से पहले एकेडमी को इसे एक डॉलर की मामूली कीमत पर वापस देने का ऑफर देंगे.
हालांकि कुछ ऑस्कर विजेताओं ने इस नियम की कमियों का फायदा उठाया. सबसे मशहूर किस्सा हुआ साल 2011 में जब अमेरिकी अभिनेता-लेखक-निर्देशक ऑर्सन वेल्स की बेटी बीट्रिस वेल्स ने अपने पिता के 1942 में जीते ऑस्कर अवार्ड की बोली लगाई. नीलामी में बीट्रिस को 8 लाख 61 हजार 542 डॉलर या करीब छह करोड़ रुपए मिले.
वैसे, ऑस्कर बेशकीमती हैं. दुनिया भर में फिल्मी कारोबार के सबसे बड़े प्रतीक हैं. हॉलीवुड की पहचान हैं. देवी-देवताओं, संत-फकीरों की तरह इन बुतों को भी फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग पूजते हैं.
कहते हैं कि जब दूसरे विश्वयुद्ध के आखिरी दौर में मित्र देशों की सेनाएं हिटलर के आखिरी मोर्चे की तरफ बढ़ रही थीं तो पहले ऑस्कर विजेता एमिल जैनिंग्स, अपना ऑस्कर अवार्ड उठाए हुए जोर से चिल्लाए थे, “मेरे पास ऑस्कर है”, ताकि दुश्मन उनकी जान बख्श दे. अब यह किस्सा कितना सच है, पता नहीं. मगर एमिल की जान बच गई थी.
पिछले 87 सालों में ऑस्कर के सुनहरे बुत, बिना किसी खास फेरबदल के अपनी चमक बिखेरते रहे हैं. दुनिया में आए तमाम उतार-चढ़ाव, बदलावों का इन पर खास असर नहीं दिखा. हॉलीवुड और बाकी दुनिया में इनकी बुलंदी कायम है.