इशहाक खान,कांकेर-अंतागढ़. पूरे देश में पावर हब बनने का सपना संजोये प्रदेश सरकार लगातार सरप्लस बिजली का दावा करती रही है. यहां तक कि छत्तीसगढ़ कई राज्यों को बिजली बेच रहा है, उसके बाद भी बस्तर के कई गांव आज भी बिजली और मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. जिले के अंतागढ़ विकासखंड के ग्राम पंचायत हिमोड़ा के आश्रित गरदा और ग्राम पंचायत धनेली के आश्रित सिलीबहार और कठोली के आदिवासी पूरी तरह सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं.

आलम यह है कि ब्लॉक मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर दूर इन गांवों में आने- जाने के लिए सरकार ने कोई पक्की सड़क तक नहीं बनाई है. बता दें कि यहां आने जाने के लिए रास्ते में बरसाती नालों को पार करना पड़ता है,उसके बाद घने जंगल का ऊबड़ खाबड़ रास्ता तय कर पहाड़ की चढ़ाई करनी पड़ती है. साथ ही गांवों में बिजली भी नहीं है.

 

पहाड़ काटकर बनाया रास्ता…

हालांकि इन सब असुविधाओं से परेशान इन गांव के मेहनतकश आदिवासियों ने पहाड़ काटकर एक कच्चा रास्ता जरूर बना लिया है. पर, बरसात के दिनों में गांव तक पैदल पहुंचना काफी मुश्किलों भरा होता है.आदिवासियों से बात करने पर पता चलता है कि उन्हें मूलभूत सुविधा भी मयस्सर नहीं है. अब तक की सरकारों ने उनके आने जाने के लिए सड़क, पुल-पुलिया का निर्माण नहीं कराया, इस इलाके के सांसद और विधायक की अनदेखी और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही की वजह से ही ग्रामीणों को बारिश के दिनों में गांव में ही कैद होकर रहना पड़ता है.

 

मरीजों को खाट पर लादकर…

यदि इस बीच कोई आदिवासी ग्रामीण बीमार पड़ जाये तो उसे गांव के ही दवा-दारू पर निर्भर रहना पड़ता है. गांव से अस्पताल तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है.मरीजों को खाट पर लादकर बड़ी मुश्किल से दूर के अंतागढ़ अस्पताल लाया जाता है. तब तक मरीज की हालत और भी खराब हो जाती है. कई बार तो लोगों को जान भी गवाना पड़ा है.यहा के आदिवासी का कहना है कि गांव में चिकित्सक नहीं आते है, और जिला प्रशासन इस ओर ध्यान नहीं देता है.

ऐसे में इतने कठिन हालात में खुद को जिंदा रखें इन आदिवासी परिवारों को बारिश के दिनों में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. बरसाती नाला में पानी भर जाने के बाद ग्रामीण आबादी का संपर्क अंतागढ़ मुख्यालय से भी कट जाता हैं और हां, स्वच्छ भारत मिशन कभी इन गांवों में आया ही नहीं, इस वजह से आदिवासियों के परिवार आज भी खुले में शौच जाते हैं.

कई बच्चों को बीच में ही छोड़नी पड़ी पढ़ाई…

सरकार ने गरदा गांव के आदिवासी बच्चों के लिए प्राथमिक स्कूल खोल रखा है, जिसमें कक्षा पांचवी तक की पढ़ाई ही हो पाती है. इसके बाद विद्यार्थियों को अपना गांव-घर छोड़कर 5 किलोमीटर दूर हिमोड़ा गांव में रहकर कक्षा 6 वीं से 8वीं तक की शिक्षा हासिल करनी पड़ती है और फिर हिमोड़ा छोड़कर अंतागढ़ के आश्रमों में पढ़ाई करनी पड़ता है. इसी कारण से इस गांव के कई बच्चों को बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिवासी बहुल इलाकों में तमाम सरकारी योजनाओं के बाद भी दावों की हकीकत कागजों में दम तोड़ दे रही है. ज़ाहिर है इस इलाके में सरकार, मीडिया और कुछ एनजीओ के दावों से लगता है कि यहां विकास की ऐसी बयार आई हैं, जिसमें नागरिकों को ज़मीन पर ही मोक्ष मिल गया है. ऐसे में चिंता वाली बात ये हैं कि इस इलाके में बद से बदतर होते हालात की वजह से आदिवासी समुदाय को अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा है.

बिजली की सप्लाई करना भूल गए…

ग्राम पंचायत हिमोड़ा के उप-सरपंच चंपालाल मंडावी कहते है कि सरकार ने गांव में बिजली का खंभा और उस पर तार जरूर लगा दिया है, लेकिन बिजली की सप्लाई करना भूल गए हैं. जबकि छत्तीसगढ़ अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (क्रेडा) ने सौर ऊर्जा से बिजली पहुंचाने से ही इंकार कर दिया है. सरकारी नियम के मुताबिक अगर किसी गांव में बिजली का खंभा और तार पहुंच गया है तो वहाँ क्रेडा के सौर उर्जा का लाभ गांववालों को नहीं मिल सकता.

स्थानीय आदिवासी राजाराम नाग कहते है कि सरकार भले ही विकास के लिए करोड़ों रूपये भेजती हो मगर हमे  इसका लाभ नहीं मिल रहा है. और यही कारण है कि हमारे गरदा गांव में आदिवासियों का जीवन अभिशाप बन गया है. गांव में पेयजल के लिए एक सरकारी हैंडपंप लगाया गया है, उसमें से फ्लोराइड और आयरन युक्त पानी आता है. जिसके कारण यहाँ के आदिवासी झरिया का पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहें हैं.

झिरिया का पानी पीना पड़ता है…

सिलीबहार गांव के आदिवासी बिसाहूराम मरकाम भारी मन से अपने गांव की समस्या सिलसिलेवार तरीके से बताते हैं. वे कहते हैं कि आदिवासी परिवारों को आज भी झिरिया का पानी पीना पड़ता है. झिरिया का दूषित पानी पीकर कई बार लोग बीमार हो जाते हैंं सांसद, विधायक से लेकर जिला प्रशासन से भी कई बार मूलभूत सुविधाओं की मांग की गई, लेकिन किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी है।.यहाँंरहने वाले आदिवासी, नागरिक जीवन की सुविधाओं के लिए तरस रहें है. ऐसे में ग्रामीणों की दुर्दशा की कल्पना करना मुश्किल तो नहीं ही है, जिन्हें पीने के लिए पानी तक नसीब नहीं हो रहा है।.और अगर थोड़ा-बहुत पेयजल मिलता भी है तो उसका स्रोत दूषित हैं.

जीवन यापन का संघर्ष

ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्तर पर लोगों को शुद्ध पेय जल की आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है. आलम यह है कि वर्षो से खराब पड़े हैंडपंप को देखने तक कोई नही आता. लोगों को शुद्ध जल पिलाने के लिए नियुक्त लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी यानी पीएचई महकमा का आलम यह है कि इसके द्वारा लगाये गए हैंडपंप धरातल पर केवल दिखते हैं. जो पानी तो देते नहीं पर अपनी बदहाली का किस्सा ज्यादा बयां करते हैं.

तिल-तिल मरने को मजबूर…

गांव के ही राजलाल कुमेटी कहते हैं कि भौगोलिक संरचना के कारण आवागमन की दिक्कतें, सामंती मानसिकता और आज़ादी के बाद चुने गए जनप्रतिनिधियों में विकास को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, ये तीन इस इलाक़े के पिछड़ेपन के प्रमुख कारण हैं. यह सत्ताधारियों की गलती ही कही जाएगी कि आदिवासी समाज समस्याओं से उबर नहीं पा रहा है. आदिवासी, जो कम से कम में गुजारा कर रहा है, राजनीतिक पार्टियों के नारों एवं संवैधानिक स्थितियों के बावजूद आदिवासी तिल-तिल मरने को मजबूर हैं. हमारी गरीबी और अशिक्षा जाने का नाम नहीं ले रही है.

वो आगे कहता हैं कि इस विकास को केवल खास आदमियों से प्रेम है. बस्तर में आज भी आदिवासियों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं. आदिवासियों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है और संविधान के अनुरूप उन्हें जितनी सुविधाएं मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल पा रही है.

ऐसे में ये कहा जा सकता है कि गांव को लोगों की राय अलग-अलग हो सकती हैं,लेकिन अगर आप भी इन इलाकों का दौरा कर लें तो आपको भी लगेगा का सराकार के विकास के सारे दावे पूरी तरह खोखले हैं.