बिंदेश पात्र, नारायणपुर। अबूझमाड़ और घोटूल दो अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची भी हैं, अबूझमाड़ भले ही जगह हो और घोटुल उसकी परंपरा लेकिन दोनों जिस्म और जान की तरह एक-दूसरे से ऐसे मिले हुए हैं. लेकिन आधुनिकता की दौड़ में अबूझमाड़ की इस संस्कृति से नई पीढ़ी दूर होते जा रही है, जिसे देखते हुए समाज के बड़े-बुजुर्गों ने बच्चों के लिए खुद घोटुल बना रहे हैं. बच्चे तीन दिन घोटुल में रहकर समाज की परंपरा और रीति-रिवाज को करीब से जानेंगे.

अबूझमाड़ क्षेत्र में गोटाल परगना (पूरा क्षेत्र) के लगभग 45 गांव एक जगह पर भव्य घोटुल का निर्माण कर पुरानी संस्कृति से युवाओं को जोड़ रही है. ताकि यह सभ्यता और संस्कृति बची रहे. परगना के बुजुर्ग ग्राम कस्टर्मेटा निवासी चुमकेश्चर देहरी बताते हैं कि तीन दिवसीय कार्यशाला में परगना में शामिल 46 गांव के बच्चों को बुलाया गया है, जहां उन्हेंआदिवासी परंपरा और रीति-रिवाज के बारे में बड़े-बुजुर्ग जानकारी देंगे. वे कहते हैं कि अगर हम बड़े-बुजुर्ग अपने बच्चों को इन बातों की जानकारी नहीं देंगे तो वे और पिछड़ते चले जाएंगे.

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आदिवासियों की पुरानी संस्कृति और सभ्यता का उदय घोटुल से हुआ है. घोटुल सैकड़ों सालों से शिक्षा का केंद्र बना हुआ है. लेकिन जैसे-जैसे शहरीकरण और आधुनिक दुनिया में हम प्रवेश कर रहे हैं, नई पीढ़ी पुरानी बातों की तिलांजलि देती जा रही है. उनका मानना है कि अगर हमारी संस्कृति नहीं बची तो पूरा अबूझमाड़ खत्म हो जाएगा. घोटुल में कई प्रकार का शिक्षा दी जाती है, जिसमें शिकार करना, जड़ी-बूटियों से दवाई बनाना, जंगल, नदी ,नालों की सुरक्षा करना क्यों जरूरी है, जमीन का उपयोग किस प्रकार करनी चाहिए. इसके अलावा आदिवासी परंपरा के नाच और गाने की सीख भी घोटुल से ही मिला करती है.

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