विक्रम मिश्र,लखनऊ। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि संवैधानिक न्यायालयों द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार किसी अजनबी या व्यस्त व्यक्ति के कहने पर सेवा मामलों में प्रतिकूल मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं है। जस्टिस अजय भनोट की पीठ ने एक याचिकाकर्ता पर 20,000 रुपये का जुर्माना लगाते हुए यह टिप्पणी की ताकि वह अपने रिश्तेदार (प्रतिवादी नंबर 4) शिक्षा मित्र की नियुक्ति को चुनौती देने वाली रिट याचिका दायर करने के उसके आचरण को हतोत्साहित कर सके, इस आधार पर कि नियुक्ति अवैध रूप से की गई और उसने धन का गबन किया। यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता के पास प्रतिवादी नंबर 4 की नियुक्ति पर हमला करने का कोई अधिकार नहीं है और वह एक दखलंदाज व्यक्ति है,जो केवल उसे परेशान करना चाहता है, अदालत ने रिट याचिका को अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग करार दिया।
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एकल जज ने टिप्पणी की
याचिकाकर्ताओं को यह संतुष्ट करना आवश्यक है कि वे एक पीड़ित पक्ष हैं। याचिकाकर्ता ऐसा करने में विफल रहे हैं। लागू किए जाने वाले कानूनी अधिकारों की प्रकृति उन्हें पीड़ित व्यक्ति की परिभाषा में नहीं लाती। याचिकाकर्ताओं के पास रिट याचिका को बनाए रखने का अधिकार नहीं है।”इस संबंध में हाईकोर्ट ने अयाउबखान नूरखान पठान बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य 2013 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि किसी अजनबी को किसी कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जब तक कि वह अदालत को यह संतुष्ट न कर दे कि वह पीड़ित व्यक्तियों की श्रेणी में आता है।
कोर्ट ने डीएम को दिए निर्देश
एकल न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के 2003 के अशोक कुमार पांडे बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें यह देखा गया कि सेवा मामलों में जनहित याचिकाओं पर विचार नहीं किया जाना चाहिए और जब भी ऐसी तुच्छ याचिकाएं दायर की जाती हैं तो अदालतों को न केवल याचिकाओं को खारिज करना चाहिए बल्कि अनुकरणीय लागत भी लगानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की पृष्ठभूमि में अदालत ने याचिका को खारिज करते हुए फिरोजाबाद के डीएम को दो महीने की अवधि के भीतर याचिकाकर्ता से भूमि राजस्व के बकाया के रूप में 20 हजार रुपये वसूलने का निर्देश दिया। केस टाइटल- मिर्जा इकरार बेग बनाम यूपी राज्य और 3 अन्य
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