लखनऊ। जाको राखे साइयां मार सके न कोय। यह किसी फिल्म की कहानी नहीं बल्कि सच है। राजधानी लखनऊ की विशेष एससी-एसटी अदालत ने दो भाईयों के खिलाफ 29 फर्जी मुकदमा दर्ज करवाने वाले अधिवक्ता परमानंद गुप्ता को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई तो मानो सब की जुबान पर एक ही चर्चा होने लगी कि हकीकत में सच का पलड़ा भारी होता है। यही नहीं उम्रकैद की सजा के साथ-साथ अदालत ने जुर्माना भी ठोंका।

निर्दोष लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया

बताते चलें कि तत्कालीन एसीपी राधा रमण सिंह और सरकारी अधिवक्ता अरविंद मिश्रा द्वारा पेश किए गए पुख्ता सबूतों और तर्कों के आधार पर अदालत ने फैसला सुनाया। अधिवक्ता परमानंद गुप्ता पर आरोप था कि उसने दुष्कर्म, एससी-एसटी एक्ट और अन्य धाराओं के तहत 29 फर्जी मामले दर्ज कराए, जिसके चलते कई निर्दोष लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया। जांच पड़ताल में सामने आया कि परमानंद का यह कृत्य विभूति खंड के अरविंद यादव और उनके भाई अवधेश यादव के साथ संपत्ति विवाद से जुड़ा था।

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इस विवाद को अपने पक्ष में करने के लिए उसने अपनी पत्नी के ब्यूटी पार्लर में काम करने वाली दलित महिला पूजा को मोहरा बनाया और दोनों भाइयों के खिलाफ दुष्कर्म व एससी-एसटी एक्ट के तहत फर्जी शिकायत दर्ज कराई। 8 जनवरी 2025 को दर्ज इस मामले की गहन जांच में तत्कालीन एसीपी राधा रमण सिंह ने पाया कि रेप का दावा करने वाला स्थान महज एक खाली प्लॉट था। कॉल रिकॉर्ड और इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों से भी घटना की पुष्टि नहीं हुई। आगे की तहकीकात में खुलासा हुआ कि परमानंद ने कुल 29 फर्जी मुकदमे दर्ज कराए, जिनमें से 18 उसने स्वयं और 11 पूजा के जरिए दर्ज करवाए। जांच में सभी मामले पूरी तरह झूठे पाए गए।

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निर्दोषों को मिला इंसाफ

इस फैसले से उन निर्दोष लोगों को न्याय मिला, जिन्हें परमानंद के फर्जी मुकदमों में फंसाया गया था। अदालत का यह फैसला फर्जी मामलों के खिलाफ कड़ा संदेश देता है और भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह मामला न केवल परमानंद को सजा दिलाने में सफल रहा, बल्कि कानून के दुरुपयोग को रोकने की दिशा में भी एक मिसाल कायम करता है।