रायपुर. भारत के अधिकांश प्रान्तों में छींद का पेड़ पाया जाता है. खेत खलिहानों की बाड़ और सड़कों के किनारे इसे अक्सर उगता हुआ देखा जा सकता है. इसे जंगली खजूर, शुगर डेट पाम, टोडी डेट पाम, सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट पाम आदि नामों से भी जाना जाता है.
गर्मी शुरू होते ही प्रदेश के छोटे-छोटे गांव में छींद का रस बीयर के रूप में बिकने लगता है. ग्रामीण इस पेड़ के ऊपरी हिस्से को काटकर रस निकालते हैं. इसका रस मीठा होता है जो कुछ देर बाद हल्का नशीला देता है. सीमावर्ती राज्य आंध्रप्रदेश, तेलंगाना से प्रतिवर्ष बड़ी तादाद में लोग इस रस का स्वाद लेने आते हैं. छिंद एक बहुउपयोगी व बहुवर्षीय पेड़ है. इस पेड़ में गर्मी के मौसम में मीठे फल लगते हैं. छिंद की पत्तियों व तने से झाड़ू, चटाई, शादी का मुकुट, रस से गुड़ बनाने आदि में उपयोग होता है.
आंतरिक घावों और अल्सर भी ठीक कर सकता है इसका फल पेड़ पर गुच्छों में लदे नारंगी फल लगते हैं जो खजूर के जैसे स्वाद लिए होते हैं. इसके बीज भी खजूर के बीजों की तरह दिखते हैं. गले के छालों में राहत दिलाने के लिए इसके फल बेहद असरदार होते हैं. जीभ और गले के आंतरिक घावों और अल्सर में ये काफी असरकारक होते हैं. छींद के बीजों का चूर्ण पाचक होता है और इसके पके हुए फल शरीर में ताकत और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं. छींद का कच्चा फल कसैला होने के कारण गले में खराश लाता है. जब भी कभी आप गाँव देहात की ओर जाएं तो देसी फलों को जरूर खाएं. देसी फलों के बारे में मेरा मानना है कि इन्हें कभी भी हम लोगों ने महत्व नहीं दिया. इन्हें डायनिंग टेबल पाए सजाने में लोग संकोच करते हैं जब कि विदेशी फलों की तुलना में ये ज्यादा पोषक होते हैं.
गन्ने-शक्कर से मीठा होता है
गन्ने की शक्कर से सेहतमंद होते हैं छींदी की चीनी. ग्रामीण इस मीठे रस से गुड़ भी तैयार करते हैं. जिसे पाम जगरी के नाम से जाना जाता है. जो सामान्य गन्ने से प्राप्त शक्कर से कहीं अधिक सेहतमंद होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में जब कोई छींद का पेड़ आंधी और तूफान से टूट कर गिर जाता है, तब ग्रामीण चरवाहे इसके शीर्ष भाग को काटकर तने का कोमल हिस्सा निकालते हैं, जो देखने में तथा स्वाद में पेठे से मिलता-जुलता होता है. इसे खाने का एक अलग ही मजा होता है. एक अन्य नजरिए से देखें तो इसके कोमल जाइलम में स्टार्च का भंडार होता है, जिससे साइकस की तरह ही साबूदाना निर्माण के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जबकि किसान इसे खेती के साथ जोड़कर अपना ले.
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