हेल्थ डेस्क. थैलिसिमिया एक गंभीर रोग है, जिसे वंशानुगत बीमारियों की सूची में शामिल किया जाता है. इससे शरीर में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाती है, जो हीमोग्लोबिन के दोनों चेन (अल्फा और बीटा) के कम निर्माण होने के कारण होता है. माता-पिता से अनुवांशिक तौर पर मिलने वाले इस रक्त-रोग की रोकथाम के लिए जागरूकता एक जरूरी उपाय है, जिसके लिए हर साल 8 मई को World Thalassemia Day मनाया जाता है.

एक अनुमान के अनुसार, भारत में लगभग 1 लाख थैलिसीमिया मेजर के मरीज है, वहीं प्रत्येक वर्ष लगभग 10,000 थैलिसीमिया ग्रसित बच्चों का जन्म होता है. इस बीमारी से ग्रसित बच्चों के खून को लगातार बदलने (ब्लड ट्रांसफ्यूजन) की जरूरत होती है. सही समय पर ऊचित खून न मिलने एवं ब्लड ट्रांसफ्यूजन से शरीर में होने वाले आयरन ओवरलोड से परेशानी रहती है. वहीं दूसरी ओर स बीमारी के निदान के लिए होने वाले बोन मैरो ट्रांसप्लांट (बीएमटी) के महंगे होने के कारण लोग इसका लाभ नहीं उठा पाते हैं. ऐसे में जरूरी है कि न संबंधित किसी भी तरह की समस्या पति, पत्नी या रिश्तेदार में कहीं हो तो सावधानी के तौर पर शिशु जन्म के पहले थैलिसिमिया की जांच जरुर करानी चाहिए.

दाे प्रकार के होते हैं थैलेसीमिया

थैलासीमिया दो प्रकार का होता है. यदि पैदा होने वाले बच्चे के माता-पिता दोनों के जींस में माइनर थेलेसीमिया होता है, तो बच्चे में मेजर थेलेसीमिया हो सकता है, जो काफी घातक हो सकता है. किन्तु पालकों में से एक ही में माइनर थेलेसीमिया होने पर किसी बच्चे को खतरा नहीं होता. यदि माता-पिता दोनों को माइनर रोग है, तब भी बच्चे को यह रोग होने के 25 प्रतिशत संभावना है. अतः यह अत्यावश्यक है कि विवाह से पहले महिला-पुरुष दोनों अपनी जांच करा लें.

बार-बार शरीर में खून की कमी

इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है, जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है. सूखता चेहरा, लगातार बीमार रहना, वजन ना ब़ढ़ना और इसी तरह के कई लक्षण बच्चों में थेलेसीमिया रोग होने पर दिखाई देते हैं. इस रोग के होने पर शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिसके कारण रक्तक्षीणता के लक्षण प्रकट होते हैं. इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है. त्वचा और नाखूनों में पीलापन आने लगता है.

गर्भस्थ बच्चे के जरूरी कराएं जांच

थेलेसीमिया से पीड़ित महिलाओं को प्रेग्नेंसी के चार महीने के भीतर गर्भस्थ की जांच जरूर करवा लेनी चाहिए. अगर गर्भ के बच्चे को बीमारी की पुष्टि होती है, तो गर्भपात करवाया जा सकता है. हालांकि, यह पूरी प्रक्रिया पति-पत्नी के साथ-साथ पूरे परिवार के लिए दुखदाई होता है, लेकिन भविष्य को ध्यान में रखते हुए इस पर कड़ा निर्णय लेना जरूरी हो जाता है.

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