अनिल सिंह कुशवाह,भोपाल. पिछले साल, तीन साल बाद रिंग में उतरे देश के सबसे नामी पहलवान सुशील कुमार जिस तरह से 74 किलोग्राम वर्ग पुरुष कुश्ती के राष्ट्रीय चैंपियन बने, वह हैरान करने वाला था। इत्तफाक यह है, राष्ट्रीय कुश्ती चैंपियनशिप मध्यप्रदेश में ही लड़ी गई। इंदौर में हुए पहले मुकाबले में सुशील ने मिजोरम के लालमल स्वामा को 48 सेकेंड में चित किया तो दूसरे दौर में झारखंड के मुकुल मिश्रा को हराने में उन्हें सिर्फ 45 सेकेंड लगे। भले ही चंद सेकेंडों में सुशील ने ये दोनों मुकाबले जीत लिए हों, लेकिन देखने वालों को उनमें पहले जैसा दमखम और कौशल नहीं दिखा। इसके बाद सुशील क्वॉर्टर फाइनल में पहुंचे तो उनकी जोड़ के प्रवीण ने उन्हें वॉकओवर दे दिया। फिर सेमीफाइनल में पहुंचे सुशील को एक और वॉकओवर मिला, क्योंकि जिन सचिन दहिया से उन्हें मुकाबला करना था, वह भी रिंग में नहीं उतरे। फाइनल के मैच में पहलवान प्रवीण राणा ने भी उन्हें वॉकओवर दे दिया। इस तरह ओलिंपिक में 2 बार भारतीय कुश्ती का परचम लहरा चुके सुशील कुमार बगैर कांटे की कुश्ती लड़े ही नैशनल चैंपियन बन गए..!
इत्तफाक यह भी है ये चैंपियनशिप नवम्बर महीने में हुई और मध्यप्रदेश में इस साल विधानसभा के चुनाव भी नवम्बर में ही होने हैं। तो चुनावी दंगल में ‘वॉकओवर’ की आस किसे है ? 15 साल से कांग्रेस की कमजोरी का लाभ ले रही सत्तारूढ़ बीजेपी को या फिर सरकार के खिलाफ बढ़ रही एंटी इकंवेंसी से गदगद कांग्रेस को ?
इसमे कोई दो राय नहीं कि बीजेपी के लिए माहौल 2008 और 2013 जैसा बिल्कुल नहीं है। यानी, बीजेपी इस समय अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। प्रदेश में भाजपा के बुरे दौर से गुजरने के पीछे एक नहीं, कई बजह हैं। हर तबका कहीं न कहीं नाराज दिखाई दे रहा है। टैक्स की मार, झूठे वादे, ब्यूरोक्रेसी की हठधर्मिता और भ्रष्टाचार से परेशानी की बातें सामने आती रहीं हैं। भ्रष्टाचार के कारण सरकार की योजनाओं का लाभ किसानों को ज्यादा नहीं मिल पा रहा है। सबसे ज्यादा नाराजगी किसानों में ही है। जबकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद किसान पुत्र हैं। शपथ लेने के बाद सबसे पहला ‘कमिटमेंट’ उनका यही आया था कि खेती को लाभ का धंदा बनाएंगे। लेकिन, इतने सालों बाद भी क्या ऐसा हो पाया है ? उल्टे मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ गईं हैं, जो बेहद शर्मनाक और दुखद है। किसानों के नाम पर अगर कोई संपन्न हुआ है तो वह हैं बिचौलिये और इस महकमे से जुड़े अफसर। यही कारण है, मुख्यमंत्री अब किसानों के सम्मेलन बुलाकर घोषणाओं की झड़ी लगाते हैं तो किसान सहज भरोसा नहीं कर पाते।
प्रदेश के युवा और छात्रों में भी बीजेपी सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ी है। व्यापमं घोटाले में कानूनी पक्ष कुछ भी कह रहा हो, पर सच यह है कि ये सबसे अमानवीय घोटाला भी था। जिन प्रतिभावों के लिए हमें फूलों के गलीचे बिछाना चाहिए था, उनमें से न जाने कितनों ने हतोत्साहित होकर जान दे दी। और ‘ओपन स्टोर’ में जिन मां-बाप ने अपने घर-मकान बेचकर या कर्ज लेकर अपने बच्चों को सिलेक्शन दिलाए, उन्हें भी बेइज्जत होकर अपने बच्चों के साथ जेल जाना पड़ा। जबकि, इस महाघोटाले को अंजाम देने वालों की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। अलबत्ता, एसटीएफ के कुछ अफसर जरूर मालामाल हो गए। लेकिन, क्या इस महाघोटाले को भूला जा सकता है ? गुस्से को जरूर दबा दिया गया है, लेकिन यह भी सच है, सत्ता विरोधी लहर कोई एक दिन में नहीं बनती। कई बार इसके परिणाम तत्काल सामने नहीं आ पाते।
इधर, बम्पर रोजगार के जुमले उछालकर निवेशकों को मध्य प्रदेश बुलाने के नाम पर टैक्सपेयर मिडिल क्लास का धन भी खूब खर्च किया गया। इसके जो नतीजे रहे, उससे बेरोजगारों को मिला कुछ नही, सपने जरूर टूटे। खुद सरकारी आंकड़े कहते हैं, मध्यप्रदेश में लगभग 1 करोड़ 41 लाख युवा हैं। पिछले 2 सालों में राज्य में 53% बेरोजगार बढ़े हैं। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में हर छठे घर में एक युवा बेरोजगार है और हर 7वें घर में एक शिक्षित युवा बेरोजगार बैठा है।
इस समय नौकरीपेशा वर्ग भी सबसे ज्यादा नाराज दिखाई दे रहा है। लच्छेदार भाषणों और कोरी घोषणाओं के कारण इतनी उम्मीदें जगा दी गईं कि इन्हें मनाने में अब सत्ता और संगठन को न जाने कितने और कैसे जतन करने पड़ रहे हैं ? क्या फिर भी नाराजगी दूर हो पा रही है ? भाजपा के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यक्रमों में भी अब भीड़ उतनी नहीं जुट पाती जो पहले पंडाल भर दिया करती थी। ये स्थिति तब है, जब विधानसभा के आम चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं। ऐसे में हर कोई एक दूसरे से यही सवाल पूछ रहा है कि सरकार किसकी बनेगी ? जब दफ्तरों और चौक-चौराहों पर लोग खुलकर चर्चा करने लगें तो यही सत्ता विरोधी लहर कहलाती है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस सत्ता वापस लेने को तैयार है ? अगर है तो उसके पास जीत का गणित और रणनीति क्या है ? मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमान कमलनाथ के हाथ में आने के बाद कुछ दिन लगा भी कि जनता को विकल्प मिल गया है। लेकिन, नाथ दिल्ली और भोपाल से अब तक बाहर नहीं निकल पाए। ऐसे में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को भी जिस तरीके से हल्ला बोलना था, वह नहीं दिख रहा। पूरी ताकत से सड़क पर निकलने की बजाय कार्यकर्ताओं में अब भी विजिटिंग कार्ड छपवाने के लिए पद की लालसा भरी हुई दिख रही है। कमलनाथ ने दो महीने की मसक्कत के बाद जो टीम (पीसीसी) घोषित की, उसे देखकर लग जाता है कि उन पर कितना दबाव रहा होगा ? ऐसे में जब विधानसभा चुनाव के टिकिट बांटेगे तो क्या स्थिति रहेगी ?
अध्यक्ष बनने के कुछ दिन बाद कमलनाथ का अपने समर्थकों को दो टूक कहना था कि प्रदेश में उनका कोई आदमी नहीं है। शायद वे संदेश देना चाहते थे कि कांग्रेस में गुटबाजी के दिन लद चुके हैं और पीसीसी गठन व चुनाव के टिकिट भी इसी सोच के साथ बांटे जाएंगे। लेकिन, पीसीसी बनाते समय वह समर्थकों को चुनाव तक भी अपने से दूर नहीं कर सके। लिस्ट देखकर कोई भी बता सकता है कि कौन किसका आदमी है ?
कमलनाथ का एक बयान भी आया था कि चुनाव के लिए अभी पर्याप्त समय है। ऐसा शायद उन्होंने उन पत्रकारों से पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया होगा, जो पूछ रहे हैं कि भोपाल से बाहर आपके दौरे कब से शुरू होंगे ? इधर, ज्योतिरादित्य सिंधिया का कहना है ‘समय बहुत कम बचा है।’
मध्यप्रदेश में कांग्रेस का वनवास खत्म करने और पार्टी को एकजुट करने दिल्ली से भेजे गए दीपक बाबरिया के अक्सर आने वाले बयान भी पार्टी की स्थिति बयां कर रहे हैं। प्रदेश प्रभारी को तो तोल कर बोलने की कला में माहिर होना चहिए। ऐसे में मान सकते हैं कि दीपक बाबरिया ने सुरेन्द्र चौधरी को भावी उप मुख्यमंत्री बतलाने की पहल शायद दलित वोट बैंक को साधने के लिए की होगी ? और कमलनाथ या सिंधिया, इन दोनों में से कोई भी हो सकता है मुख्यमंत्री, ये बयान भी झाबुआ में शायद ये सोचकर दिया होगा कि सिंधिया के समर्थक निराश न हों ? यानी गुटों को साधना कांग्रेस के लिए अब भी बड़ी चुनौती है ?
अब भी कोई कमलनाथ गुट का है तो कोई दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया या सुरेश पचौरी कोटे से टिकट बंटते समय फिर मारामारी करते दिख सकते हैं। सवाल कांग्रेस से, क्या इस बार भी ऐसा होगा ? जनता सरकार से नाराज है, लेकिन कांग्रेस की रणनीति ठीक नहीं रही तो हो सकता है मुकाबला दलों के बीच न होकर कई जगह उम्मीदवारों के बीच दिखाई दे ? ऐसे में फिर पलड़ा बीजेपी का भारी पड़ता दिखेगा। वैसे, दो दलीय व्यवस्था में दूसरे दल के सामने अंतिम वक्त तक बाजी पलटने के अवसर खुले रहते हैं। लेकिन तब, जब यह गलतफहमी नहीं पाली गई हो कि जनता मजबूर है और एंटी इकंवेंसी मुफ्त में उनके लिए ‘हरा गलीचा’ बिछाए हुए है ?