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रायपुर. राजधानी के अनुपम उद्यान में शाम 4-6 बजे फैन्स रायपुर चैप्टर एवं CIPS-RF के संयुक्त तत्वावधान में समागम-युवा विमर्श वैचारिक चर्चा का आयोजन किया गया. जिसका ध्येय- ‘पढ़ाई और नौकरी के लिए विदेश गये युवाओं ,रायपुर संभाग के महाविद्यालयीन युवाओं, जनजातीय क्षेत्र के युवाओं के बीच विचारों का आदान-प्रदान समागम में किया गया. जिसमें शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य और संचार संबंधी चर्चा की गई. जिसमें बुद्धिजीवी वर्ग के अलावा विद्यार्थी, विभिन्न सामाजिक क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएं और उद्यान में आये लोग उपस्थित रहे.
राष्ट्रीय चेयरमैन जनजातीय अध्ययन समूह(Fans) और CIPS-RF की अध्यक्ष डॉ.वर्णिका शर्मा ने कहा- भारतीय संस्कृति स्वतः ही परिपक्व है. वर्तमान में सुधार नहीं अपितु निखार की सतत प्रक्रिया जारी रखनी होगी. इसके लिये समय-समय पर वैचारिक विमर्श आवश्यक होगा. जिससे हम प्रगतिशील रह सके. इतिहास साक्षी है कि, जिन देशों में विचारों का प्रवाह रोका (उदाहरण के तौर पर- ‘आयरन कर्टेन’ ) वो देश विखंडित हुए हैं.
ऐसे में प्रवासी भारतीय युवाओं तथा जनजातीय छात्रों के मध्य, एक ओर अनुभव और तो दूसरी ओर जिज्ञासा की, दो वैचारिक बातियों के सांमजस्य से दीपोत्सव पर उत्कर्ष का समागम द्वीप प्रज्वलित करना तथा दो विचारों के मध्य उत्पन्न ख़ाई के तमस को दूर कर एकता और अखण्डता का पुल बनाना ही हमारा ध्येय होगा. जागरूकता और शांति की इस स्थापना हेतु FANS एवं CIPS-RF सदैव कटिबद्ध हैं.
विदेश से पढ़ाई और नौकरी करके लौटे युवा अश्विनी कौशिक ,चंद्रशेखर आचार्या, श्रेया दुबे और विवियन रक्से प्रवासी अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे, जिन्होंने जनजातीय बच्चियों और उपस्थित लोगों को विदेशी शिक्षा प्रणाली के साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली एवं व्यवस्था के सतही और अंदरूनी रूप से अवगत कराया.
‘समागम-युवा विमर्श’ में बस्तर और नागालैंड की बालिकाओं ने ख़ासी रूचि दिखाई और मन में आये प्रश्नों को विदेश से लौटे ‘युवा अतिथियो’ से पूछे और अपनी जिज्ञासायें दूर की.
चीन जैसे देश से अनुभव लेकर लौटे, अश्विनी कौशिक ने कहा- हम सब पढ़ाई के पीछे भागे जा रहे हैं, केवल डिग्री और ग्रेड तक सीमित हो रहे है जबकि हमें ज्ञान अर्जित करने के बारे में सोचना चाहिए. अंग्रेजी ना आना समस्या नहीं बल्कि समस्या ये है कि हमें जो बोली भाषा आती है उसमें अपने विचार ‘कौन क्या सोचेंगे’ इस धारणा के चलते सम्प्रेषित नहीं कर पाते और यही धारणा आगे बढ़ने नहीं देती.
जर्मनी में नौकरी कर रही श्रेया दुबे ने कहा- जो हम अपने पाठ्यक्रम में पढ़ते हैं, उन्हें निजी जीवन में कभी प्रयोग करके नहीं देखते और यही सबसे बड़ा अंतर हैं विदेश और हममें. यदि हमने पुस्तक में पढ़ा की बीज रोपित करने से पौधा बनता या दो फूलों की कलम को संकरित करने से रंगीन फूल खिलते हैं, इस तथ्य को हमने बस पढ़ कर आगे बढ़ गये पर, प्रयोग नहीं किया. जिससे ज्ञान का स्तर सीमित हो कर रह जाता हैं.
तो वही दुबई जैसे जगह से नौकरी करके आये चंद्रशेखर आचार्या ने कहा- हमारा विदेश जाना हमारी आवश्यकता से अधिक विदेशों में भी हमारी योग्यता की आवश्यकता थी. उन्होंने कहा हमें आत्मविश्वास की कमी ही आगे बढ़ने से रोकती हैं. बेझिझक होकर हमें हर उन चीज़ो को सीखना चाहिए, जिनके बारे में जानना चाहते हैं साथ ही अपने छिपी प्रतिभा को भी पहचाना चाहिए, और चाहे तो रूचि गत कामों में विद्वता हासिल कर उसे अपना प्रोफेशन भी बना सकते हैं.
जर्मनी में पढ़ाई कर रहे विवियन रक्से ने कहा कि हममें आत्मानुशासन का होना बहुत ही जरूरी हैं. हमें लक्ष्य के प्रति जागरूक होना चाहिये और हमेंशा कुछ न कुछ करते रहना चाहिए.